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क्यों गलत हो जाती हैं मौसम की भविष्यवाणियां?

क्लेयर रोठ
२० जुलाई २०२२

क्या आपके साथ भी ऐसा हुआ है कि फोन ने बताया दिन में मौसम अच्छा रहेगा और बाहर निकलते ही बारिश शुरू हो गई? जानिए, क्यों गलत हो जाती हैं मौसम की भविष्यवाणियां.

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मौसम के पूर्वानुमान पर निर्भर हैं किसान
मौसम के पूर्वानुमान पर निर्भर हैं किसानतस्वीर: Mauro Ujetto/NurPhoto/picture alliance

सुबह गूगल या एप्पल ऐप ने बताया कि बारिश होनी है, पर नहीं हुई. क्या आपके साथ ऐसा हुआ है? फिर आप उस ऐप का मजाक उड़ाते होंगे. लेकिन दूसरी स्थिति ज्यादा भयानक है जबकि एकाएक कोई मौसमी आपदा आई और उसके बारे में कोई चेतावनी पहले से जारी नहीं हुई थी. उस आपदा में लोगों की जानें जाती हैं और संपत्ति का भारी नुकसान होता है, जो पूर्वानुमान से बच सकता था.

ऐसा तब हो रहा है जबकि इंसानी सभ्यता तकनीकी रूप से सबसे उन्नत और आधुनिक युग से गुजर रही है. फिर इतनी बड़ी गलतियां कैसे हो जाती हैं? सबसे पहले तो यह मानना होगा कि मौसम विज्ञानी भले ही कुछ पूर्वानुमानों में गलत साबित होते हैं लेकिन उनके बहुत सारे पूर्वानामन सही भी साबित होते हैं. पहले से कहीं ज्यादा.

इंग्लैंड की रीडिंग यूनिवर्सिटी में जलवायु विज्ञान पढ़ाने वाले प्रोफेसर रिचर्ड ऐलन कहते हैं, "पिछले 20 साल में मौसम के पूर्वानुमान की सटीकता बहुत सुधरी है. अब पांच दिन का पूर्वानुमान उतना अच्छा होता है, जितना दस साल पहले तीन दिन का हुआ करता था."

यह सुधार हुआ है अत्याधुनिका सुपर कंप्यूटरों के कारण. मौसम विज्ञानी इन सुपर कंप्यूटरों का प्रयोग उपग्रहों द्वारा ली गईं तस्वीरों से जुटाए गए आंकड़ों का विश्लेषण करने के लिए करते हैं. इन विश्लेषण का आधार कुछ वैज्ञानिक मॉडल होते हैं.

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यह मॉडलिंग मौसम विज्ञानिकों यो वातावरण की मौजूदा स्थिति के आधार पर अलग-अलग संभावित परिदृश्य तैयार करने में मदद करती है और वे गणना कर पाते हैं कि आने वाले समय में वातावरण में किस तरह के बदलाव आएंगे जिनका मौसम पर असर पड़ेगा. ऐलन कहते हैं कि सही पूर्वानुमान जारी करने के लिए 50 बार तक कंप्यूटर पर अनुमान लगाए जाते हैं और उन 50 में से कई बार एक या दो ही सही परिदृश्य होते हैं.

ऐलन कहते हैं कि ऐसा तभी होता है जबकि पूर्वानुमान का समय एकदम निकट भविष्य में हो. डॉयचे वेले से बातचीत में उन्होंने कहा, "चूंकि वातावरण अव्यवस्थित है, तो हफ्तेभर का क्षेत्रीय पूर्वानुमान ही सटीकता से संभव है. वह भी इस बात पर निर्भर करता है कि मौसम के पैटर्न क्या हैं."

और फिर, मौसम विज्ञानियों को आंधी और बिजली-तूफान का अनुमान लगाने में और ज्यादा मुश्किल हो सकती है क्योंकि वे बहुत छोटे क्षेत्र में होते हैं. ऐसा प्रोफेसर नाइजल आरनेल बताते हैं जो रीडिंग यूनिवर्सिटी में ही एक मौसम विज्ञानी हैं. वह कहते हैं कि मौसम के ये मॉडल ग्रिड में काम करते हैं जिनके एक हिस्से को लेकर उसकी अन्य हिस्सों से तुलना के आधार पर पूर्वानुमान जाहिर किए जाते हैं.

आरनेल कहते हैं कि जब बिजली गिरने की घटना ग्रिड के एक हिस्से में घटती है तो मौसम विज्ञानी उसे जानने से चूक सकते हैं या उनका अनुमान हो सकता है कि वह घटना किसी अन्य हिस्से में होगी.

कोई मॉडल सौ प्रतिशत सही नहीं

जर्मनी की लाइपजिग यूनिवर्सिटी में पढ़ाने वाले जलवायु वैज्ञानिक कार्स्टन हाउस्टाइन कहते हैं कि भले ही मौसम विज्ञानी अक्सर सही पूर्वानुमान लगाते हैं लेकिन उनका आधार तो मॉडलिंग ही होता है. वह कहते हैं, "कोई एक मॉडल कभी सौ फीसदी सही नहीं हो सकता. वे एक हद तक ही सही हो सकते हैं. कुछ मॉडल किसी खास परिस्थिति में बेहतर प्रदर्शन करते हैं जबकि कुछ अन्य अपना पूर्वानुमान जाहिर करते वक्त कुछ खास तरह के पूर्वाग्रहों पर काम करते हैं. इन शर्तों का ज्ञान ना रखने वाले लोग इन पूर्वानुमानों को गलत समझ सकते हैं."

हाउस्टन कुछ यूं समझाते हैं, "जैसे कि पिछले हफ्ते के पूर्वानुमान को लीजिए जिसमें तापमान के 40 डिग्री सेल्सियस तक पहुंचने की बात कही गई थी. एक मॉडल में कुछ हिस्सों ने ही इस तापमान का अनुमान जाहिर किया था. ज्यादातर विशेषज्ञ जानते हैं कि उस मॉडल में अत्याधिक उच्च तापमान के प्रति पूर्वाग्रह मौजूद हैं. और फिर किसी अन्य मॉडल ने ऐसा पूर्वानुमान जाहिर नहीं किया था. तो जाहिर है कि इसे खबर नहीं बनना चाहिए था. लेकिन यह खबर बना. क्यों? मेरे ख्याल से यह गलत मॉडल की समस्या नहीं है बल्कि गलत रिपोर्टिंग की समस्या है."

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यह गलत रिपोर्टिंग ही है जो अक्सर उन रोजमर्रा की समस्याओं को जन्म देती है कि ऐप ने कहा, बारिश होगी पर नहीं हुई और आप यूं ही दिनभर छाता लिए घूमते रहे.

यही बात चेतावनियों पर भी लागू होती है. नाइजल आरनेल कहते हैं कि पूर्वानुमान और भविष्यवाणियां दरअसल चेतावनी प्रक्रिया का एक हिस्सा मात्र हैं. वह कहते हैं, "आपके पास ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए जो इन चेतावनियों को लोगों व अधिकारियों तक पहुंचा सके." साथ ही, अधिकारियों को पता होना चहिए कि कब उन्हें ऐसी चेतावनियां मिलेंगी और जनता कब उन्हें गंभीरता से ले.

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