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भारत में डॉक्टरों के खिलाफ क्यों बढ़ रही हिंसक घटनाएं

मुरली कृष्णन
१६ जून २०२३

भारत में चिकित्सा के क्षेत्र में कार्यरत पेशेवरों और डॉक्टरों के साथ होने वाली हिंसक घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं. इस वजह से अब वे सुरक्षा की मांग कर रहे हैं.

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डॉक्टरों की कमी से जूझते अस्पताल
डॉक्टरों की कमी से जूझते अस्पतालतस्वीर: Danish Siddiqui/REUTERS

वंदना दास एक युवा सर्जन थीं. पिछले महीने केरल राज्य में एक मरीज ने चाकू से हमला कर उनकी हत्या कर दी थी. कथित तौर पर वह हमलावर नशे में धुत था और पुलिस मेडिकल परीक्षण के लिए उसे अस्पताल लेकर आयी थी.

कुछ महीने पहले केरल के ही एक निजी अस्पताल में मरीज को इलाज के लिए लेकर आए कुछ लोगों ने वरिष्ठ हृदय रोग विशेषज्ञ के साथ मारपीट की थी. जबकि, वह डॉक्टर इस मरीज के इलाज में शामिल नहीं था.

इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) केरल की अध्यक्ष सुल्फी नूहू ने कहा, "केरल में हर महीने डॉक्टरों पर हमले के कम से कम पांच मामले दर्ज किए जाते हैं. पिछले तीन सालों में डराने-धमकाने सहित हमले के 200 से अधिक मामले दर्ज किए गए हैं.” यह संगठन स्वास्थ्य देखभाल के क्षेत्र में काम करने वाले पेशेवरों के खिलाफ होने वाली हिंसा को रोकने के लिए व्यापक कानून बनाने की मांग कर रहा है.

2019 में, पश्चिम बंगाल में भीड़ ने एक जूनियर डॉक्टर पर हमला किया था. इस घटना से नाराज कई डॉक्टरों ने सामूहिक रूप से इस्तीफा दे दिया था. मारपीट की यह घटना एक मरीज की मौत के बाद हुई थी. परिजनों ने आरोप लगाया था कि इलाज में लापरवाही की वजह से मरीज की मौत हुई थी.

आईएमए के एक अध्ययन के अनुसार, 75 फीसदी से अधिक डॉक्टरों ने कार्यस्थल पर किसी न किसी प्रकार की हिंसा का सामना किया है. ज्यादातर मामलों में मरीज के परिजन शामिल थे.

भारत में बढ़ती आबादी और डॉक्टरों की कमी

सरकारी अस्पतालों में इंटर्न और छात्रों को होता है ज्यादा खतरा

स्वास्थ्य देखभाल के क्षेत्र से जुड़े पेशेवरों के प्रति कार्यस्थल पर होने वाली हिंसा को लेकर देश में कोई केंद्रीकृत डेटाबेस मौजूद नहीं है. हालांकि, ऐसा लगता है कि सरकारी अस्पतालों में मेडिकल स्टाफ, विशेष रूप से जूनियर डॉक्टरों, मेडिकल इंटर्न और अंतिम वर्ष के मेडिकल छात्रों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है. कई डॉक्टर एसोसिएशन इस समस्या से निपटने के लिए एक केंद्रीय कानून की मांग कर रहे हैं.

अप्रैल 2020 में, भारत में एक कानून पेश किया गया था जिसके तहत स्वास्थ्य देखभाल सेवा से जुड़े पेशेवरों के खिलाफ हिंसा को एक संज्ञेय और गैर-जमानती अपराध के रूप में मान्यता दी गई.

डॉक्टर मनीष गुप्ता ने डीडब्ल्यू को बताया, "कोरोना महामारी खत्म होने के साथ ही यह कानून खत्म हो गया. हम डॉक्टरों की सुरक्षा के लिए एक सर्वव्यापी कानून चाहते हैं. राज्यों के मौजूदा कानून पूरी तरह से लागू नहीं किए गए हैं और स्वास्थ्य पेशेवरों की सुरक्षा के लिए वे कारगर नहीं हैं.”

देश की आबादी के हिसाब से कम है डॉक्टरों की संख्या

विशेषज्ञों का कहना है कि व्यक्तिगत घटनाओं से इतर, हिंसा की इन घटनाओं को देश की खराब सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था के संदर्भ में देखने की जरूरत है. विशेषज्ञों ने कई समस्याओं की ओर इशारा किया. जैसे, सीमित संसाधन और कर्मचारियों की सीमित संख्या की वजह से गलत प्रबंधन, स्वास्थ्य देखभाल से जुड़ी उच्च लागत, निजी अस्पतालों में लंबे समय तक मरीजों को इलाज के नाम पर रोके रहना वगैरह. ये समस्याएं संभावित हिंसक स्थितियों के मुख्य कारण हैं.

सरकारी आंकड़े बताते हैं कि देश में 34 लाख नर्स ही रजिस्टर्ड हैं. वहीं, 13 लाख अन्य पेशेवर हैं, जिनमें डॉक्टर भी शामिल हैं.

यह 1.4 अरब की आबादी वाले भारत के लिए काफी कम है, जो हाल ही में चीन को पछाड़कर दुनिया का सबसे ज्यादा आबादी वाला देश बन गया है. इंडियन जर्नल ऑफ पब्लिक हेल्थ के मुताबिक, भारत को 2030 तक कम से कम 20 लाख डॉक्टरों की जरूरत होगी.

महंगे निजी अस्पतालों पर मरीजों का दबाव

यह अंतर अन्य कई वजहों से बढ़ गया है. जैसे, भारत के ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में स्वास्थ्य क्षेत्र के पेशेवरों का विषम अनुपात. सरकारी और निजी स्वास्थ्य देखभाल संस्थानों के बीच भी असंतुलन है, जहां मरीजों को इलाज के लिए अपनी जेब से भुगतान करना पड़ता है.

होली फैमिली अस्पताल के मेडिकल सुपरिटेंडेंट और क्रिटिकल केयर स्पेशलिस्ट सुमित रे ने डीडब्ल्यू को बताया, "हिंसा के कई कारण हैं. सबसे महत्वपूर्ण है स्वास्थ्य देखभाल से जुड़ी व्यवस्था के प्रति विश्वास में कमी.”

उन्होंने कहा, "स्वास्थ्य देखभाल से जुड़े लाभकारी संस्थानों में बीमारी से जुड़े विशेषज्ञों द्वारा किए जाने वाले इलाज की लागत में वृद्धि हुई है. स्वास्थ्य के क्षेत्र में बढ़ते निजीकरण की वजह से इलाज को लेकर लोगों का खर्च काफी बढ़ गया है.”

भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का केवल 1.2 फीसदी हिस्सा ही सार्वजनिक स्वास्थ्य पर खर्च करता है और सार्वजनिक स्वास्थ्य खर्च की वैश्विक रैंकिंग में 152वें स्थान पर है.

इलाज के लिए अपनी जेब से खर्च करने की वजह से कई लोग कर्ज में डूब जाते हैं. हर साल लाखों भारतीय नागरिक गरीबी रेखा के नीचे पहुंच जाते हैं. वे इलाज के लिए कर्ज लेने और संपत्ति बेचने को मजबूर होते हैं.

सुमित ने कहा, "इस वजह से लोग काफी ज्यादा कर्ज के बोझ में दब जाते हैं और जब इलाज के नतीजे परिजनों के उम्मीद के मुताबिक नहीं होते, तो हिंसा होने की संभावना बढ़ जाती है. एक सच यह भी है कि लोगों को लगता है कि उन्हें इस मामले में कानूनी तौर पर मदद नहीं मिल पाएगी. इस वजह से परिस्थितियां ज्यादा खराब होने की संभावना बढ़ जाती हैं.”

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डॉक्टरों को बातचीत का कौशल बेहतर बनाने की जरूरत है

कई गरीब परिवार अपनी जमीन गिरवी रखकर निजी अस्पतालों में इलाज कराने आते हैं. इलाज एक ‘व्यावसायिक सौदा' बन जाता है. लोग भी यह उम्मीद करते हैं कि जिस तरह से वे पैसे खर्च करते हैं उससे उन्हें बेहतर नतीजे भी मिलेंगे.

सुमित कहते हैं, "हमारी चिकित्सा शिक्षा में बेहतर तरीके से बातचीत को लेकर दिए जाने वाले प्रशिक्षण की कमी है. इस कारण डॉक्टरों, विशेष रूप से अग्रिम पंक्ति के युवा रेजिडेंट डॉक्टरों में भयावह और तनावपूर्ण स्थितियों से निपटने की क्षमता की कमी है. साथ ही, स्थानीय नेता और गुंडे भी काफी हस्तक्षेप करते हैं. वे अपनी ताकत साबित करने के लिए, स्वास्थ्य क्षेत्र से जुड़े पेशेवरों को डराते हैं. यह भी हिंसा की एक बड़ी वजह है.”

अगर मरीज और उनके परिजन पैसों को लेकर पहले से ही चिंतित हैं, तो मौखिक दुर्व्यवहार की घटनाएं हो सकती हैं.

सरकारी डॉक्टर विकास वाजपेयी ने डीडब्ल्यू को बताया, "ऐसे मुद्दों से निपटने के लिए आपको कानून की जरूरत नहीं है. आपको एक ऐसी स्वास्थ्य व्यवस्था की जरूरत है जो लोगों की गरिमा बनाए रखते हुए उनकी स्वास्थ्य जरूरतों के प्रति उत्तरदायी हो. जूनियर डॉक्टरों को सबसे अधिक खामियाजा भुगतना पड़ता है. इसकी वजह यह है कि जहां ऐसी घटनाओं की सबसे अधिक रिपोर्ट की जाती है वहां यही लोग मुख्य तौर पर अग्रिम पंक्ति में काम कर रहे होते हैं और आपात स्थितियों का प्रबंधन करते हैं.”