श्रीलंका की खस्ता हालत का जिम्मेदार कौन?
श्रीलंका की सरकार और वहां के लोगों के लिए यह संकट कितना बड़ा है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सरकार ने आधिकारिक तौर पर स्वीकार किया है कि देश की कमाई के हर 100 अमेरिकी डॉलर पर उन्हें 119 डॉलर का कर्ज अदा करना है.
1948 में अंग्रेजी शासन से आजादी के बाद से अब तक श्रीलंका के ऐसे बुरे दिन कभी नहीं आए. श्रीलंका में राजनीतिक और आर्थिक संकट अंतरराष्ट्रीय संबंधों के जानकारों, अर्थशास्त्रियों और श्रीलंका पर्यवेक्षकों के लिए शायद ही कोई आश्चर्य की बात हो.
वर्षों के वित्तीय और आर्थिक कुप्रबंधन, 2019 की कर कटौती जैसी लोकलुभावन नीति, रासायनिक उर्वरकों पर पूर्ण प्रतिबंध जैसी गलत नीतियों ने पिछले कई बरसों से श्रीलंका को खोखला कर डाला था. अपनी लोकलुभावन नीतियों और विदेशी निवेश बढ़ाने के लिए श्रीलंका ने चीन से बेल्ट और रोड परियोजना के तहत भी बड़ा कर्जा लिया.
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चीन से दोस्ती पड़ रही है भारी
मिसाल के तौर पर दक्षिणी श्रीलंका में एक बंदरगाह निर्माण के लिए श्रीलंका को 1.4 अरब अमेरिकी डॉलर का कर्जा चुकाना था. ऐसा न कर पाने की स्थिति में श्रीलंका को हंबनटोटा बंदरगाह को 99 वर्षों के लिए एक चीनी कंपनी को सुविधा पट्टे पर देने के लिए मजबूर होना पड़ा था. भारत, जापान, और अमेरिका की तमाम सलाहों के बावजूद श्रीलंका ने साफ इंकार कर दिया कि उसके बंदरगाहों का इस्तेमाल किसी भी सैन्य उद्देश्य के लिए किया जा सकता है.
दोहरे घाटे वाली अर्थव्यवस्था
पिछले कुछ सालों में श्रीलंका ने आर्थिक और राजनीतिक मोर्चों पर कई गलतियां की हैं, जिन्होंने देश को दोहरे घाटे वाली अर्थव्यवस्था बना दिया. इस समस्या के दो पहलू रहे हैं.
पहला तो यह कि पिछले कुछ वर्षों में श्रीलंका ने दूसरे देशों से- खास तौर पर चीन से काफी ज्यादा मात्रा में कर्ज लिया है. इस कर्ज की शर्तें और कर्जा उतारने की किश्तें कुछ इस तरह हैं कि श्रीलंका पर काफी बड़ा लोन लद गया है.
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दूसरा पहलू यह है कि पिछले कुछ सालों में श्रीलंका में निर्यात योग्य वस्तुओं के उत्पादन में भारी कमी आयी है. राजपक्षे के तुगलकी नीतियों का इसमें बड़ा योगदान है.
मिसाल के तौर पर चाय और चावल के उत्पादन को ही लीजिए- राजपक्षे ने 2021 में रासायनिक फर्टिलाइजर के उपयोग पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया. नतीजा यह हुआ कि चीनी कर्जे की मार झेल रहे देश का निर्यात स्तर काफी घट गया और श्रीलंका को दोहरे घाटे वाली अर्थव्यवस्था बनने में देर नहीं लगी.
कोविड महामारी के चलते पर्यटन पर निर्भर श्रीलंकाई अर्थव्यवथा की हालत और लचर हो गई. फरवरी के अंत तक इसका भंडार घटकर 2.31 अरब डॉलर रह गया, जो दो साल पहले की तुलना में करीब 70 फीसदी कम है.
पड़ोसियों का सहारा
भारत, बांग्लादेश और अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों ने श्रीलंका की मदद करने की कोशिश तो की लेकिन कर्जा बहुत है और इससे निपटने के लिए सुधार की क्षमता और इच्छा कम है.
भारत ने 50 करोड़ अमेरिकी डॉलर के लाइन ऑफ क्रेडिट के माध्यम से श्रीलंका और उसके लोगों की मदद करने की कोशिश की है. भारत ने बड़े पैमाने पर बिजली कटौती का सामना कर रहे देश को 2,70,000 मीट्रिक टन ईंधन की आपूर्ति भी की है. यह सराहनीय कदम हैं और मोदी की नेबरहुड फर्स्ट की नीति की गम्भीरता की पुष्टि करते हैं.
जून 2021 में, बांग्लादेश के केंद्रीय बैंक ने 20 करोड़ अमेरिकी डॉलर की अदला-बदली के लिए सहमति व्यक्त की थी, जो श्रीलंका की मदद करने के लिए दोनों देशों के बीच पहली स्वैप व्यवस्था थी.
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हालांकि बांग्लादेश के पास अन्य देशों को वित्तीय सहायता प्रदान करने का कोई रिकॉर्ड नहीं है, लेकिन हाल के वर्षों में आर्थिक विकास ने इसे दक्षिणी एशियाई क्षेत्र में उभरती हुई आर्थिक शक्तियों में से एक बना दिया है. भारत और बांग्लादेश दोनों श्रीलंका की मदद कर रहे हैं. यह बड़ी बात है. क्योंकि इससे कहीं न कहीं बिम्सटेक को मजबूत बनाने में और भारत बांग्लादेश और श्रीलंका के बीच तालमेल बनाने में मदद कर सकता है.
लोकलुभावन नीतियों ने किया बदहाल
इन तमाम गलतियों के साथ साथ एक बड़ी समस्या यह रही कि राजपक्षे भाइयों ने सत्ता में बने रहने के लिए एक के बाद एक बड़ी लोकलुभावन नीतियों की भी घोषणा की. 2019 में चुनाव प्रचार के दौरान राजपक्षे ने टैक्स में भारी छूट का वादा किया और यह उनके सत्ता में आने के बाद राजकोषीय घाटे को बढ़ाने की एक बहुत बड़ी वजह बना. ऐसे तमाम छोटे बड़े लोकलुभावन निर्णयों ने श्रीलंका की आर्थिक हालत चौपट कर दी.
लिहाजा श्रीलंका को चीन से कर्जे लेने पड़े और साथ ही अपने बंदरगाहों को भी चीन को चालाने के लिए देना पड़ा. जो पैसे श्री लंका ने इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए और बेल्ट और रोड के जरिये विकास के लिए लिए थे, वो खर्च हो गए बोगस निवेश के प्रोजेक्टों में और जनता को बेतहाशा सब्सिडी देने में. अब श्री लंका के पास विदेशी मुद्रा रिसर्व नाम मात्र को बचा है.
आशंका यह भी है कि अब अगर श्रीलंका चीन से लिए कर्जे नहीं लौटता तो उसे अपने बंदरगाहों पर चीन को अधिकार देना पड़ेगा. आर्थिक कुप्रबंधन इस कदर बिगड़ चुका है कि अब श्रीलंका आईएमएफ जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्थानों की मदद नहीं लेना चाहता. ऐसा इसलिए क्योंकि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा आयोग (आईएमएफ) कर्जा देने के बाद देशों से अपनी आर्थिक नीतियों में सुधार करवाता है. जाहिर है सत्ता से चिपके रहने की उम्मीद में राजपक्षे चाह रहे हैं कि चीन और भारत उनकी मदद को सामने आएंगे. दोनों एशियाई महाशक्तियां कितनी दूर तक श्रीलंका का साथ देती हैं यह कहना मुश्किल है. खास तौर पर तब जब श्रीलंका के कर्णधार घर फूंक तमाशा देखने पर तुले हुए हैं.
(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं.)