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तकनीकउत्तरी कोरिया

क्या है सॉलिड फ्यूल मिसाइल, जिसे उत्तर कोरिया ने टेस्ट किया

१५ जनवरी २०२४

उत्तर कोरिया ने ह्वासोंग-18 मिसाइल का परीक्षण किया है जो ठोस ईंधन से चलती है. क्या है ठोस ईंधन, जिसे लेकर इतना उत्साहित है उत्तर कोरिया?

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उत्तर कोरिया ने सॉलिड फ्यूल मिसाइल का परीक्षण किया
उत्तर कोरिया की सॉलिड फ्यूल मिसाइलतस्वीर: KCNA/REUTERS

उत्तर कोरिया ने एक नई मिसाइल का परीक्षण किया है जिसे इंटरमीडिएट-रेंज बैलिस्टिक मिसाइल (IRBM) बताया गया है. रविवार को हुआ यह परीक्षण ठोस ईंधन वाली पहली मिसाइल है और कहा जा रहा है कि इसे बहुत कम तैयारी के साथ दागा जा सकता है.

उत्तर कोरिया के सरकारी मीडिया ने कहा है कि यह मिसाइल हाइपरसोनिक वॉरहेड से लैस है जिसे नियंत्रित किया जा सकता है. नवंबर में ही उत्तर कोरिया ने कहा था कि उसने नई तरह की आईआरबी मिसाइलों के लिए ठोस ईंधन वाले इंजन का परीक्षण किया है.

इससे पहले, पिछले साल उसने ठोस ईंधन वाली अंतरमहाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल (ICBM) ह्वासोंग-18 के तीन परीक्षण किए थे. ठोस ईंधन तकनीक एक आधुनिक तकनीक है, जो उत्तर कोरिया के मिसाइल सिस्टम को पहले से कहीं ज्यादा बेहतर बना सकती है.

क्या हैं ठोस ईंधन के फायदे?

ठोस ईंधन से चलने वाली मिसाइलों में दागे जाने से ठीक पहले ईंधन भरने की जरूरत नहीं होती है. इससे उन्हें दागना आसान और ज्यादा सुरक्षित हो जाता है. उनके लिए कम तैयारी की जरूरत हो जाती है. उन्हें पकड़ पाना मुश्किल होता है और उनके हवा में ही नष्ट हो जाने की संभावना द्रवित-ईंधन वाले हथियारों की तुलना में कम होती है.

अमेरिका के कारनेज एंडॉमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस में सीनियर फेलो अंकित पांडा कहते हैं, "संकट के समय ऐसे गुणों वाली मिसाइलों को बहुत जल्दी तैयार किया जा सकता है.”

ठोस ईंधन दरअसल, ईंधन (प्रोपैलेंट) और ऑक्सीडाइजर का मिश्रण होता है. इसके लिए आमतौर पर एल्युमिनियम जैसी धातुओं के बुरादे को ईंधन के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. ऑक्सीडाइजर के लिए परक्लोरिक एसिड और अमोनिया के मिश्रण वाले अमोनियम परक्लोरेट को प्रयोग किया जाता है.

ईंधन और ऑक्सीडाइजर को रबड़ जैसे खोल में एक साथ बांधा जाता है और उस पर धातु की परत होती है. जब ईंधन जलता है तो अमोनियम परक्लोरेट और एल्यमिनियम एक साथ जलते हुए बड़ी मात्रा में ऊर्जा पैदा करते हैं. इससे तापमान 2,760 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है और मिसाइल को उड़ने के लिए भारी ऊर्जा मिलती है.

किस-किसके पास है यह तकनीक?

ठोस ईंधन को चीन में सदियों पहले विकसित किया गया था और इससे पटाखे बनाए गए थे. 20वीं सदी के मध्य में इस तकनीक ने तेजी से विकास किया जब अमेरिका ने कहीं ज्यादा शक्तिशाली प्रोपैलेंट तैयार करने में कामयाबी पाई.

1970 के दशक में तत्कालीन सोवियत संघ ने पहली बार ठोस ईंधन से चलने वाली आईसीबीएम यानी अंतरमहाद्वीपीय मिसाइलें आरटी-2 तैनात कीं. उसके बाद फ्रांस ने मध्यम दूरी तक मार करने वाली ठोस ईंधन मिसाइल एस-3 या एसएसबीएस विकसित कीं.

चीन ने 1990 के दशक में ठोस ईंधन वाली अंतरमहाद्वीपीय मिसाइलों का परीक्षण किया. दक्षिण कोरिया ने भी इस तकनीक के होने का दावा किया है लेकिन उसने फिलहाल इससे छोटे रॉकेट ही बनाए हैं.

ठोस और द्रव ईंधन का फर्क

ठोस ईंधन के मुकाबले लीक्विड ईंधन मिसाइल को दागने के लिए कहीं ज्यादा शक्ति और धक्का दे सकता है लेकिन उसके कई नुकसान हैं. एक तो यह जटिल तकनीक है और उसका इस्तेमाल काफी समय लेता है. उससे वजन भी बढ़ जाता है.

कैसे होती है परमाणु हथियारों की निगरानी

ठोस ईंधन बहुत घना होता है और बहुत तेजी से जलता है. इसलिए मिसाइल को उड़ने के लिए जरूरी शक्ति बहुत कम समय में मिल सकती है. लीक्विड ईंधन को बहुत ज्यादा समय तक स्टोरेज में रखने से वह खराब होने लगता है जबकि ठोस ईंधन की उम्र ज्यादा होती है.

उत्तर कोरिया कहना है कि इस नई तकनीक वाली ह्वासोंग-18 मिसाइल से उसे परमाणु हथियार के जवाबी हमले की क्षमता में बहुत अधिक वृद्धि होगी. हालांकि दक्षिण कोरिया ने इस घटनाक्रम को ज्यादा तूल नहीं दिया है. उसका कहना है कि नई तकनीक पर पूरा अधिकार हासिल करने के लिए उत्तर कोरिया को बहुत अधिक कोशिश और समय की जरूरत होगी.

वीके/एए (रॉयटर्स)

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