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मानवाधिकारउत्तरी अमेरिका

अमेरिकी यूनिवर्सिटी में जातिगत भेदभाव पर बैन

१९ नवम्बर २०२१

अमेरिका के डेविस में स्थित कैलिफॉर्निया यूनिवर्सिटी कैंपस ने जाति आधारित भेदभाव को भी अपनी भेदभाव-विरोधी नीतियों का हिस्सा बनाया है. बड़ी संख्या में भारतीय छात्र वहां पढ़ते हैं.

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प्रतीकात्मक तस्वीर
प्रतीकात्मक तस्वीरतस्वीर: APU GOMES/AFP/Getty Images

कैलिफॉर्निया यूनिवर्सिटी के डेविस कैंपस में जाति अब आधिकारिक रूप से भेदभाव विरोधी नीतियों का हिस्सा बन गई है. बड़ी संख्या में छात्रों ने शिकायत की थी कि उन्हें यूनिवर्सिटी में जाति के कारण भेदभाव झेलना पड़ा है. इसी के चलते यूनिवर्सिटी ने जाति को अपनी नीतियों में शामिल कर लिया है.

सितंबर में यूनिवर्सिटी के इस कैंपस की नीतियों में संशोधन किया गया. सैन फ्रांसिस्को क्रॉनिकल अखबार की खबर के मुताबिक नए नियमों के तहत अब वे छात्र या अध्यापक भी आधिकारिक रूप से शिकायत दर्ज करवा सकते हैं जिनके साथ उनकी जाति के कारण भेदभाव होता है.

यूनिवर्सिटी के डेविस कैंपस में हैरसमेंट ऐंड डिस्क्रिमिनेशन असिस्टेंस ऐंड प्रिवेंशन प्रोग्राम के निदेशक दानेश निकोलस ने कहा, "जाति को जोड़ना इसलिए अहम है क्योंकि यह सुनिश्चित करता है कि इस तरह के भेदभाव से सबसे ज्यादा प्रभावित रहे लोगों और समुदायों को पता हो कि यूनिवर्सिटी उनके साथ हुए अन्याय को समझती है.”

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सैन फ्रांसिस्को क्रॉनिकल ने लिखा है कि छात्रों ने इस बदलाव की मांग उठानी तब शुरू की जब उन्होंने देखा कि चैट ग्रुप में लोग जाति के आधार पर मजाक उड़ाने वाले मीम भेज रहे थे और कैंपस में दक्षिण एशियाई लोग एक दूसरे की जाति पूछ रहे थे.

कैसे हुई शुरुआत?

2015 में नेपाल से अमेरिका गए 37 वर्षीय प्रेम पेरियार कैलिफॉर्निया स्टेट यूनिवर्सिटी में पढ़ते हैं. वह कहते हैं कि उनके परिवार को कई बार नेपाल में मारपीट तक का सामना करना पड़ा क्योंकि वे कथित निचली जाति के थे, लेकिन उन्होंने सोचा भी नहीं था कि अमेरिका में उन्हें जातिगत भेदभाव सहना होगा.

पेरियार बताते हैं कि अन्य दक्षिण एशियाई लोगों के साथ संपर्क के दौरान रेस्तराओं से लेकर सामुदायिक कार्यक्रमों तक में उन्हें जाति की याद दिलाई जाती रही. वह बताते हैं, "कुछ लोग मुझे जानने के नाम पर मेरा उपनाम पूछते हैं जबकि असल में वे यह जानना चाहते हैं कि मेरी जाति क्या है. यह पता चलने के बाद कि मैं दलित हूं, कुछ लोग मुझे अलग बर्तनों में खाना देते हैं.”

पेरियार ने सीएसयू में छात्रों को संगठित करना शुरू किया और कैल स्टेट स्टूडेंट एसोसिएशन की स्थापना की जो सीएसयू के 23 परिसरों को प्रतिनिधित्व करती है. एसोसिएशन ने जाति को भेदभाव का आधार बनाने के लिए नीति में बदलाव की मांग की.

अभी यह बदलाव सिर्फ डेविस स्थित कैंपस ने किया है, बाकियों ने नहीं. पेरियार कहते हैं कि अमेरिका में जातिगत भेदभाव को पहचान दिलाने की दिशा में यह एक बड़ा कदम है क्योंकि यह एक मुद्दा है जो यहां मौजूद है इससे निपटने का वक्त आ चुका है.

अमेरिका में जाति प्रथा

भारत में जाति प्रथा हजारों साल से प्रचलित है. इसमें दलितों को सामाजिक पायदान में सबसे नीचे रखा जाता है. इस कारण वे सदियो से दमन और यातनाओं के शिकार हैं, जो अब तक चला आ रहा है जबकि भारतीय संविधान में 1950 में ही जाति आधारित भेदभाव को गैरकानूनी करार दिया जा चुका है.

भारत से होती हुई यह प्रथा भूटान, नेपाल, पाकिस्तान, श्रीलंका और म्यांमार तक भी पहुंच चुकी है और वहां रहने वाले हिंदू भी जाति को मानते हैं. यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर साउथ एशियन स्टडीज की सह-निदेशक अंजलि आरोंडेकर कहती हैं कि हिंदुओं के अलावा मुसलमान, सिख, जैन, ईसाई और बौद्धों में भी जाति प्रथा पाई जाती है. प्रोफेसर आरोंडेकर ने कहा, "जाति मुख्यतया कार्य-आधारित बंटवारा है और जो सदियों से चला आ रहा है.”

पिछले साल कैलिफॉर्निया में सिस्को सिस्टम्स नामक एक बहुराष्ट्रीय कंपनी पर तब मुकदमा किया गया था जब एक दलित भारतीय इंजीनियर को सिलीकॉन वैली स्थित इस कंपनी में जाति के कारण भेदभाव का सामना करना पड़ा.

यह इंजीनियर सिस्को के सैन होसे स्थित मुख्यालय में तैनात था. उसके कई भारतीय सहयोगी थे जो कथित ऊंची जातियों से थे. कैलिफॉर्निया के डिपार्टमेंट ऑफ फेयर इंपलॉयमेंट एंड हाउसिंग द्वारा दर्ज मुकदमे के मुताबिक, "उच्च जाति के सुपरवाइजर और सहयोगी जाति आधारित भेदभावपूर्ण व्यवहार को टीम और सिस्को के कामकाज के भीतर ले आए थे.” कंप्यूटर नेटवर्क क्षेत्र की जानीमानी कंपनियों में शुमार सिस्को ने कहा है कि वह इस मुकदमे के खिलाफ लड़ेगी.

वीके/एए (एपी)

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