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मैला ढोने वालों की जान की कीमत कम क्यों हैं?

स्वाति मिश्रा
४ अप्रैल २०२२

सफाई कर्मचारी एक उपेक्षित समाज से आते हैं. फिर ज्यादातर नगरीय निकायों में इन्हें पक्की नौकरी पर नहीं रखा जाता. ऐसे में इनके पास अपना हक मांगने के लिए न समाज की ताकत होती है और न ही नौकरी का आसरा.

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Müllfrauen in Indien
भारत में प्रचलित वर्ण व्यवस्था में साफ-सफाई की जिम्मेदारी शताब्दियों से "अछूत" माने गए दलितों के पास रही. स्वतंत्र भारत के संविधान में छूआछूत की कुप्रथा पर रोक लगा दी गई. लेकिन "गंदगी" दलितों के हिस्से में बनी रही. वे सड़कें साफ करते रहे, नालियों से कचरा निकालते रहे और मरे जानवरों के शवों से चमड़ा उतारते रहे. आज भी भारत के नगरीय निकायों में तकरीबन शत-प्रतिशत सफाई कर्मचारी दलित होते हैं.तस्वीर: Prakash Singh/AFP/Getty Images

29 मार्च 2022 को दिल्ली के रोहिणी इलाके से खबर आई कि तीन लोग सेप्टिक टैंक में गिरकर मरे. उन्हें बचाने के लिए कूदे चौथे शख्स की भी जान चली गई. किसी और दिन भारत में इस खबर ने लोगों में कोई दिलचस्पी पैदा नहीं की होती. भारत में ऐसा हो जाना बड़ी आम बात है. हेडलाइन पढ़कर लोग आगे बढ़ जाते हैं. लोग इन हादसों की एक-सी कहानी इतनी बार पढ़ चुके होते हैं कि अब उन्हें पूरी खबर पढ़ने की जरूरत नहीं लगती. वे जानते हैं कि घटनाक्रम कुछ यूं रहा होगा-

- सेप्टिक टैंक या सीवर लाइन को सफाई की जरूरत पड़ी.

- बिना जरूरी प्रशिक्षण और सुरक्षा उपकरण के कुछ मजदूर सफाई करने गटर में उतरे.

- पहले मजदूर का दम घुटा और वह बेहोश हुआ.

- उसे बचाने दूसरा मजदूर गया, वह भी बेहोश. 

- इन दोनों को बचाने तीसरा मजदूर गया, वह भी अंदर से कोई जवाब नहीं दे रहा.

- तब जाकर समझ आता है कि अंदर जहरीली गैस है. स्थानीय पुलिस या फायर ब्रिगेड को सूचना दी जाती है. फिर लाशें निकालने का बेहद जोखिम भरा काम शुरू होता है.

- मरने वाले लगभग सभी दलित होते हैं.

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29 मार्च की कहानी बस थोड़ी अलग थी...

इस बार सेप्टिक टैंक में गिरने वाले दरअसल महानगर टेलिकॉम निगम लिमिटेड के कर्मचारी थे. खुले गटर पर झूल रही टेलिफोन लाइन पर काम करते हुए तीन कर्मचारी सीवेज में गिर गए. इन तीनों को बचाने एक जाबांज ऑटो रिक्शा चालक ने गटर में छलांग लगाई. चारों के चारों मारे गए.

इस हादसे में कोई सफाई कर्मी नहीं मारा गया था. लेकिन अगली सुबह तक चले बचाव अभियान के दौरान ठीक वही तस्वीर तैयार हुई, जो पहले कई बार देखी जा चुकी है. किसी भी सर्च इंजन पर ''सीवर'' या ''गटर'' के साथ ''डेथ'' लिखकर सर्च कीजिए. पहले क्लिक पर भारत के सेप्टिक टैंक्स में जहरीली गैस से हुई मौतों की खबरें नजर आने लगती हैं. सर्च इंजन के जितने पन्ने पलटेंगे, क्रमशः तारीखें पीछे जाती रहेंगी. और हर महीने भारत के अलग अलग हिस्सों के गटर में मरने वाले मजदूरों का जिक्र नजर आता जाएगा.

>27 मार्च, 2022 को राजस्थान के बीकानेर में सेप्टिक टैंक की सफाई करने के दौरान चार मजदूरों की मौत हुई - लाल चंद, चोरू लाल, कालू राम और किशन. ये चारों एक फैक्ट्री के 15 फीट गहरे सेप्टिक टैंक को साफ करने उतरे थे. एक मजदूर की मौत अस्पताल में हुई. बाकी तीन अस्पताल पहुंचने से पहले ही दम तोड़ चुके थे.

>10 मार्च, 2022 को महाराष्ट्र के मुंबई में एक सार्वजनिक शौचायल के सेप्टिक टैंक से दुर्गंध उठने लगी. चार मजदूरों को लीकेज का पता लगाने और टैंक की सफाई का काम दिया गया. इनमें से तीन की टैंक में गिरकर मौत हो गई.

>2 मार्च, 2022 को महाराष्ट्र के पुणे में तीन मजदूर एक रिहाइशी इमारत के सेप्टिक टैंक की सफाई करने उतरे. मजदूर बाहर नहीं आए, तो बिल्डिंग में रहने वाले एक शख्स ने इन्हें बचाने की कोशिश की. लेकिन वह टैंक में गिर गया और उसका दम घुटने लगा. बेहोशी की हालत में उसे बाहर निकाला गया, तत्काल अस्पताल रवाना किया गया, जहां पहुंचने से पहले उसकी जान जा चुकी थी. और जब तक बाकी तीन मजदूर बाहर खींचे जा सके, वे भी दम तोड़ चुके थे.

महज तीन घटनाओं के जिक्र से आप समझ सकते हैं कि सिर्फ एक महीने के भीतर एक वीभत्स कहानी कितनी बार खुद को दोहरा लेती है. जाहिर है कि ये सूची बिल्कुल अधूरी है. ऐसे कुल हादसों और मृतकों की संख्या तो कहीं ज्यादा है.

शहरी इलाके पहले से साफ हैं, लेकिन... 

भारत में स्वच्छता को लेकर एक नया आग्रह पैदा हुआ है, जो पहले नहीं था. मोदी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल के पहले ही साल में स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत की. इस योजना के पहले चरण में महात्मा गांधी के 150वें जन्मदिन से पहले देश को खुले में शौच से मुक्त कराना था. फिलहाल दूसरा चरण चल रहा है, जिसके तहत भारत तरल और ठोस कचरे के प्रबंधन के लिए बड़ी संख्या में परियोजनाएं चला रहा है.

भारत के कई बड़े शहरों में अब सफाई अत्याधुनिक मशीनों से होती है. नगरीय निकायों के बीच "स्वच्छता रैंकिंग" में स्थान को लेकर प्रतिस्पर्धा है. यह बात बहस से परे है कि भारत के शहरी इलाके आज की तारीख में पहले की अपेक्षाकृत कहीं ज्यादा साफ हैं. लेकिन क्या शहरों में सफाई बढ़ने के साथ सफाई कर्मचारियों का जीवन स्तर भी सुधर गया? जवाब है- नहीं.

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जातीय पृष्ठभूमि

भारत में प्रचलित वर्ण व्यवस्था में साफ-सफाई की जिम्मेदारी शताब्दियों से "अछूत" माने गए दलितों के पास रही.स्वतंत्र भारत के संविधान में छूआछूत की कुप्रथा पर रोक लगा दी गई. लेकिन "गंदगी" दलितों के हिस्से में बनी रही. वे सड़कें साफ करते रहे, नालियों से कचरा निकालते रहे और मरे जानवरों के शवों से चमड़ा उतारते रहे. आज भी भारत के नगरीय निकायों में तकरीबन शत-प्रतिशत सफाई कर्मचारी दलित होते हैं. और ये सफाई कर्मचारी कैसे हालात में काम करते हैं, यह किसी से छिपा नहीं है.

भारत में एक वक्त ड्राय लैट्रिन का चलन था. इसमें पानी वाला फ्लश नहीं था. शौच के बाद मल एक जगह इकट्ठा रहता था. दलित मजदूर इन ड्राय लैट्रिन्स से मल को इकट्ठा करते और अपने सिर पर ढोकर दूर फेंक आते. इस कुप्रथा के खिलाफ भारत की संसद ने 1993 में ''द एम्पलॉयमेंट ऑफ मैन्युअल स्कैवेंजर्स एंड कंस्ट्रक्शन ऑफ ड्राय लैट्रिन्स (प्रोहिबिशन) एक्ट'' पास किया. इसके तहत ड्राय लैट्रिन बनाने और सिर पर मल की ढुलाई पर रोक लगाई गई.

यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि समस्या सिर्फ ड्राय लैट्रिन्स से ही नहीं थी. फ्लश वाले टॉयलेट का मल सीवेज की शक्ल में सेप्टिक टैंक और सीवेज लाइन में पहुंचता है. और इन संरचनाओं को नियमित सफाई की जरूरत भी पड़ती है.

विकसित देशों की स्थिति

दुनिया के विकसित देशों में यह एक बेहद जोखिम वाला काम माना जाता है. इसीलिए मशीनों से काम लिया जाता है. अगर किसी व्यक्ति को अंदर भेजने की जरूरत पड़ ही जाती है, तो उसे तमाम सुरक्षा उपकरण दिए जाते हैं जैसे दस्ताने, पोशाक, जूते, जहरीली गैस से बचने के लिए मास्क और ताजी हवा की सप्लाई भी. सेप्टिक टैंक में सुरक्षित रूप से दाखिल होने और निकलने का प्रशिक्षण दिया जाता है.इन सब के बावजूद अगर टैंक में घुसना असुरक्षित लगता है, तो जिंदा शख्स को उसमें कभी नहीं उतारा जाता.

लेकिन भारत में यह काम उतना जोखिम भरा नहीं माना जाता, जितना "घिनौना" और इस घिनौने काम को करने के लिए सबसे कमजोर नागरिक को चुना जाता है. सफाई कर्मचारी एक उपेक्षित समाज से आते हैं. फिर ज्यादातर नगरीय निकायों में इन्हें पक्की नौकरी पर नहीं रखा जाता. ऐसे में इनके पास अपना हक मांगने के लिए न समाज की ताकत होती है और न ही नौकरी का आसरा. प्रायः किसी निजी ठेकेदार के मातहत काम करने वाले ऐसे मजदूर अपने लिए सुरक्षा उपकरण और प्रशिक्षण मांगने और उसके अभाव में गटर में ना उतरने को लेकर कभी मुखर नहीं हो पाते. नतीजा हम उन खबरों में देखते हैं, जिनका जिक्र हमने शुरुआत में किया.

कितनी मौतें?

चूंकि मैला ढोने पर भारत में पहले से प्रतिबंध लगा हुआ है, तो सरकार यही दावा करती है कि "मैनुअल स्कैवेन्जिंग" से किसी की मौत नहीं हुई. 4 अगस्त, 2021 को भारत की संसद के उच्च सदन- राज्य सभा में केंद्र सरकार ने बताया कि 1993 के बाद से सीवर साफ करते हुए 941 लोगों मौत हुई हैं -

तमिलनाडु - 213

गुजरात - 153

उत्तर प्रदेश - 104

दिल्ली - 98

कर्नाटक - 84

हरियाणा - 73

सरकार ने मौतों के वर्षवार आंकड़े भी दिए: 

2017 - 93

2018 - 70

2019 - 117

2020 - 19

2021 - 22 (अगस्त तक के आंकड़े)

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जमीन पर असर दिखने में वक्त लगेगा

2020 से स्वच्छ भारत अभियान का दूसरा चरण शुरू हो गया है. इसके लक्ष्यों में एक सेप्टिक टैंक और सीवर सिस्टम की सफाई के दौरान होने वाले हादसों को टालना भी है. इसी के साथ भारत सरकार ने मशीनों के माध्यम से सीवर सिस्टम की सफाई के लिए 'नेशनल पॉलिसी ऑन मैकेनाइज्ड सैनिटेशन ईको सिस्टम' बनाई है. इसके तहत देश के हर जिले में सीवर सिस्टम के रख-रखाव के लिए एक पेशेवर एजेंसी बनाई जानी है.

इस एजेंसी के पास प्रशिक्षित कर्मचारी और मशीनें होंगी. इन सारे कामों के लिए अनुमोदन और मंजूरी का दौर दिसंबर 2021 तक चलता रहा. इसीलिए भारत जैसे विशाल देश में इसका असर नजर आने में अभी काफी वक्त लगेगा. दिल्ली का उदाहरण हम सबने देखा है. दिल्ली ने 2017 में ही अपने यहां सीवर सिस्टम की मैन्युअल सफाई पर रोक लगा दी थी. सख्त सजा का प्रावधान तक रखा था. लेकिन यहां सफाई कर्मचारियों की मौतें अभी तक नहीं रुकी हैं.

भारत में तेजी से शहरीकरण बढ़ रहा है. जहां नालियां नहीं थीं, वहां बन रही हैं. जहां थीं, उन्हें ढका जा रहा है. और जहां ढकी हुई नालियां थीं, वहां सीवर लाइनें डाली जा रही हैं. इसके साथ ही बढ़ रही है इन्हें साफ करने वालों की मांग. और इस मांग को पूरा करने के लिए वंचित तबके के बेरोजगार हाथ में फावड़ा और रस्सी लिए तैयार खड़े हैं. इसीलिए ऐसा हो नहीं पाता कि लोग जान का डर देखकर गटर में उतरने से मना कर दें. जब तक इन सफाई कर्मचारियों की जान की कीमत उतनी नहीं हो जाती जितनी सीमा पर खड़े जवानों की है, तब तक इन हादसों का पूरी थम जाना लगभग असंभव है.