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इनर लाइन परमिट: अब मणिपुर में गर्माया मूल निवासी का मुद्दा

प्रभाकर मणि तिवारी
१ जुलाई २०२२

मणिपुर में एन. बीरेन सिंह के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार ने इनर लाइन परमिट (आईएलपी) प्रणाली लागू करने के लिए मूल निवासी तय करने की खातिर साल 1961 को आधार वर्ष मानने का फैसला किया है.

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मणिपुर के लोगों का कहना है कि यहां बाहरी लोग बड़ी आबादी में बस गए हैं.तस्वीर: Prabhakar Mani Tewari/DW

मणिपुर में एन. बीरेन सिंह के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार ने इनर लाइन परमिट (आईएलपी) प्रणाली लागू करने के लिए मूल निवासी तय करने की खातिर साल 1961 को आधार वर्ष मानने का फैसला किया है. वहीं राज्य के तमाम राजनीतिक और गैर-राजनीतिक संगठन इसका विरोध कर रहे हैं.

यह परमिट राज्य सरकार की ओर से बाहरी यानी दूसरे राज्यों के लोगों को राज्य में प्रवेश करने और निर्धारित समय तक रहने की अनुमति देता है. तमाम संगठन लंबे अरसे से 1951 को कटऑफ साल तय करने की मांग करते रहे हैं.

पूर्वोत्तर के तीन राज्यों- अरुणाचल, नगालैंड और मिजोरम में पहले से ही इनर लाइन परमिट प्रणाली लागू थी. केंद्र सरकार ने दिसंबर, 2019 में मणिपुर में भी इस प्रणाली को लागू कर दिया था. इसके बिना बाहर का कोई व्यक्ति इन राज्यों में नहीं पहुंच सकता. इसके अलावा लोग परमिट में लिखी अवधि तक ही वहां रुक सकते हैं.

मणिपुर के तमाम संगठनों का दावा है कि राज्य में बाहरी लोगों की आबादी लगातार बढ़ रही है. हालत यह है कि घाटी में रहने वाले मैतेई समुदाय की आबादी जहां 7.51 लाख है, वहीं बाहरी लोगों की तादाद 7.04 लाख तक पहुंच गई है. इससे मैतेई समुदाय का अपना वजूद खतरे में नजर आ रहा है.

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मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह कई पहलुओं पर ध्यान देने की बात कहकर फैसले का बचाव कर रहे हैं.तस्वीर: Prabhakar Mani Tewari/DW

क्या है पूरा मामला

असल में राज्य की एन. बीरेन सिंह सरकार ने इस सप्ताह मंत्रिमंडल की बैठक में इनर लाइन परमिट के लिए आधार वर्ष की समीक्षा करने के बाद इसे 1961 तय करने का फैसला किया.

लेकिन, जॉइंट कमिटी ऑन इनर लाइन परमिट सिस्टम (जेसीआईएलपीएस) ने कहा कि उसे सरकार का यह फैसला स्वीकार नहीं है. राज्य के नागरिक संगठनों ने मणिपुर में आईएलपी प्रणाली को प्रभावी तरीके से लागू करने के लिए साल 2012 में इस कमिटी का गठन किया था.

कमिटी के संयोजक फुलिंद्रो कोन्सम कहते हैं, "हम वर्ष 1951 को आधार वर्ष तय करने की मांग करते रहते हैं. ऐसे में सरकार का यह फैसला सही नहीं है."

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प्रदेश कांग्रेस ने भी सरकार के इस फैसले की खिंचाई की है. प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के. मेघा चंद्र कहते हैं, "इस फैसले से साफ है कि सरकार राज्य के लोगों की इच्छा का सम्मान नहीं करती. दरअसल बीजेपी सरकार इस फैसले के जरिए एक दशक के दौरान राज्य में बसने वाले बाहरी लोगों को बचाने का प्रयास कर रही है."

कांग्रेस और दूसरे संगठनों की दलील है कि मणिपुर पीपुल्स प्रोटेक्शन बिल को दो-दो बार सदन में पेश किया जा चुका है. तब आम राय बनी थी कि आधार वर्ष 1951 ही रहेगा. इस मुद्दे पर तमाम गैर-सरकारी संगठनों, संयुक्त समिति और राजनीतिक दलों में सहमति बन गई थी. इसके बावजूद सरकार ने इस आम राय को तवज्जो न देते हुए 1961 को आधार वर्ष बनाने का फैसला किया है.

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तस्वीर: Prabhakar Mani Tewari/DW

आईएलपी पर बनी संयुक्त समिति ने साल 2011 की जनगणना की रिपोर्ट के बाद बाहरी लोगों की आमद बढ़ने के खिलाफ अभियान शुरू किया था. उस रिपोर्ट में कहा गया कि जनगणना में वृद्धि का राष्ट्रीय औसत जहां 17.64 फीसदी है, वहीं मणिपुर में इसकी दर 18.65 फीसदी है.

समिति ने आरोप लगाया कि बाहरी लोगों के आने पर कोई रोक न होने के कारण ही जनसंख्या तेजी से बढ़ी है. साल 2015 में समिति के विरोध प्रदर्शन के दौरान हुई पुलिसिया कार्रवाई में 17 साल के एक छात्र की मौत हो गई थी. फिर जून 2016 में भी राज्य इस मुद्दे पर लंबे समय तक अशांत रहा था.

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इतिहास से आंदोलनों के इतिहास तक

मणिपुर वर्ष 1949 में भारत का हिस्सा बना और 1972 में इसे पूर्ण राज्य का दर्जा मिला. यहां राजाओं के शासनकाल के दौरान आईएलपी जैसी एक प्रणाली लागू थी, जिसके तहत कोई बाहरी व्यक्ति राज्य में न तो स्थायी नागरिक बन सकता था और न यहां जमीन या कोई दूसरी संपत्ति खरीद सकता था. लेकिन, देश में विलय के बाद केंद्र ने वह प्रणाली खत्म कर दी थी.

उसके बाद अस्सी के दशक से ही समय-समय पर वही प्रणाली लागू करने की मांग उठती रही है. आईएलपी की मांग में पहला बड़ा आंदोलन वर्ष 1980 में छात्रों ने शुरू किया था. उस साल अप्रैल में पुलिस फायरिंग में दो छात्रों की मौत हो गई थी. तब से हर साल अप्रैल में विरोध-प्रदर्शन होते रहते थे.

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तस्वीर: Prabhakar Mani Tewari/DW

फिर मसौदे की पेचीदगियां

संयुक्त समिति के लगातार विरोध-प्रदर्शन के बाद एन. बीरेन सिंह सरकार ने 23 जुलाई 2018 को विधानसभा में मणिपुर पीपुल्स प्रोटेक्शन बिल पेश किया. इसमें गैर-मणिपुरी लोगों की राज्य में आवाजाही के विनियमन का प्रावधान है. शुरुआत में इस विधेयक के मसौदे में आधार वर्ष 1971 था, लेकिन सदन में बहस के बाद इसे बदल कर 1951 कर दिया गया था.

इस विधेयक में कहा गया कि जिन लोगों के नाम वर्ष 1951 में गांव की डायरेक्टरी में दर्ज थे, उन्हें मणिपुरी माना जाएगा और बाकी लोगों को राज्य में रहने के लिए इनर लाइन परमिट लेना होगा. केंद्र सरकार ने दिसंबर, 2019 में मणिपुर में भी इनर लाइन परमिट प्रणाली लागू कर दी. इसके बाद वर्ष 2020 की पहली जनवरी से इसे लागू कर दिया गया.

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इस प्रणाली के मुताबिक मणिपुर के स्थानीय निवासियों के अलावा दूसरे तमाम लोगों को राज्य में प्रवेश करने और रहने के लिए आईएलपी लेना होगा. इसमें कई श्रेणियां हैं और इसे रेलवे स्टेशन और एअरपोर्ट के अलावा ऑनलाइन भी हासिल किया जा सकता है. इसके लिए सौ रुपए का शुल्क लगता है.

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तस्वीर: Prabhakar Mani Tewari/DW

विरोध करने वालों का पक्ष

संयुक्त समिति के संयोजक कोन्साम कहते हैं, "राज्य में पुरानी आईएलपी प्रणाली वर्ष 1950 में खत्म हो गई थी. वर्ष 1950 से 1961 के बीच करीब दस लाख अवैध प्रवासी राज्य में आकर बस गए."

वह कहते हैं कि जब तक मूल निवासियों की स्पष्ट व्याख्या तय नहीं की जाती, गैर-मणिपुरी लोगों की शिनाख्त संभव नहीं है. समिति अब इस मुद्दे पर आंदोलन तेज करने की योजना बना रही है. सरकार के इस फैसले के लिए जल्द ही एक नागरिक सभा आयोजित की जाएगी और सरकार पर आधार वर्ष बदलने का दबाव बनाया जाएगा.

दूसरी ओर मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह ने सरकार के फैसले का बचाव किया है. वह कहते हैं, "राज्य में रहने वाले तमाम समुदाय के हितों को ध्यान में रखते हुए ही मूल निवासी के लिए आधार वर्ष 1961 रखने का फैसला किया गया है. हमें तमाम पहलुओं को ध्यान में रखना होगा. राज्य में 34 मान्यता प्राप्त जनजातियां हैं."