बियाबान में ये जादुई घेरे कौन बनाता है
लगभग 50 साल से वैज्ञानिक यह पता लगान में जुटे हैं कि नामीबिया के इस बियाबान में ये जादुई घेरे कैसे बन जाते हैं. जर्मनी की गॉयटिंगन यूनिवर्सिटी के रिसर्चरों ने हाल ही में इसकी गुत्थी सुलझा ली है.
त्वचा पर चकत्ते जैसे घेरे
पश्चिमी नामीबिया से गुजरने वाले नामीब डेजर्ट में हजारों लाल घेरे हरी घासों के ऊपर बिखरे पड़े हैं. स्थानीय लोगों ने ड्रैगन की जहरीली सांसों से लेकर भगवान के पांव के निशान, परीकथाओं और ऐसे ना जाने कितने जादुई विश्लेषणों से इन्हें समझने की कोशिश की है. बीती आधी सदी से यह रहस्य बना हुआ है कि आखिर ये घेरे क्यों उभरते हैं?
बड़े घेरे एक निश्चित पैटर्न बनाते हैं
इन जादुई घेरों का व्यास कुछ मीटर हो सकता है और ये ऐसे दिखते हैं, जैसे बराबर दूरी पर रखा गया हो और इससे लैंडस्केप में एक पैटर्न बन जाता है. इस तरह सुव्यवस्थित तरीके से इनका बनना रहस्य और बढ़ा देता है.
सारी धारणायें गलत
वैज्ञानिक कसौटी पर इनमें से ज्यादातर धारणाएं गलत साबित हुईं. इन घेरों के आसपास जमीन में ना तो रेडियोधर्मिता है, ना ही कोई जहरीला पदार्थ. हालांकि दीमकों के बारे में आप क्या कहेंगे? इसमें कुछ संभावनाएं नजर आ रही हैं.
क्या ये दीमक हो सकते हैं?
क्या इन घेरों के भीतर के पौधों को दीमकों ने खाया है? यह पता लगाने के लिए वैज्ञानकों ने जिन पौधों को नुकसान पहुंचा है, उनकी छानबीन की. पौधे निश्चित रूप से सूखे हैं, लेकिन उनकी जड़ों को कोई नुकसान नहीं पहुंचा है. घेरे के अंदर और बाहर के पौधों के जड़ों की लंबाई समान है. इसका मतलब है कि इन्हें किसी दीमक या जानवरों ने नुकसान नहीं पहुंचाया है.
आखिरी परीक्षण
जब वैज्ञानिकों ने घेरे के अंदर और बाहर पानी की मात्रा मापी, तो देखा कि घेरे की भीतरी सतह पर नमी बारिश के तुरंत बाद तेजी से कम हो गई. जबकि सतह के अंदर गहराई में ढेर सारा पानी बचा हुआ था. घेरा बनाने वाले पौधे नमी सोखने वाली वैक्यूम मशीनों की तरह काम करते हैं. वे पानी सोख कर पौधों के बीच में उगने वाली घास को सुखा देते हैं.
इकोसिस्टम इंजीनियर
रिसर्चरों ने यह नतीजा निकाला कि बराबर दूरी पर बने ये जादुई घेरे दरअसल अनुकूलन तकनीक की वजह से हैं, जिन्हें घेरे बनाने वाले पौधे इस्तेमाल करते हैं और जो इकोसिस्टम इंजीनियर की तरह काम करते हैं. इनकी वजह से इस बियाबान में इन्हें बिना पौधों वाली खाली जगह मिल जाती है और वो गहराई में मौजूद पानी का इस्तेमाल कर पाते हैं. इस तरह के पैटर्न पर ऑस्ट्रेलिया में भी रिसर्च हो रही है.