बेदम विपक्ष और पस्त भारतीय लोकतंत्र
२५ मई २०१६किसी लोकतंत्र में जनता के लिए उन्हीं की चुनी सरकार चलाने के बड़े मायने हैं. कभी बहुमत तो तभी जोड़-तोड़ वाले गठबंधन से, जिसे भी जनादेश मिलता है, सच्चे लोकतंत्र में वही सत्ता का अधिकारी होता है. लेकिन इन सबमें भी एक सच्चे और तगड़े विपक्ष की भूमिका गौण नहीं हो जाती. जिस तरह हर इंसान को 'निंदक नियरे राखिये' की तर्ज पर अपनी कमियां बताने की हिम्मत रखने वाले को सुनने का धैर्य होना चाहिए. वैसे ही एक आदर्श लोकतांत्रिक व्यवस्था में सत्ताधारी पक्ष को भी विपक्ष को सुनने और उसके साथ संवाद का रास्ता खुला रखना चाहिए.
एक दशक के कांग्रेसी राज के बाद 26 मई 2014 को सत्ता में आई बीजेपी को अपना दर्शन और नीतियां लेकर जनता के बीच आने का जनादेश मिला था. सरकार को दो साल हो गए हैं. इस अवधि में कांग्रेस ने भी लोकसभा में विपक्ष की भूमिका निभाई है.
लेकिन सच तो यह है कि 2014 के लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने विपक्ष का नेता बनना तक स्वीकार नहीं किया था. भारतीय लोकतंत्र की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के लिए उस करारी हार को स्वीकारना बेहद मुश्किल दिख रहा था. ऐसा लगता है मानो ब्रितानी राज से मुक्ति के बाद से आजाद भारत में ज्यादातर समय केंद्र की सत्ता संभालने वाली कांग्रेस विपक्ष की भूमिका ही भूल चुकी है.
यूपीए 1 और यूपीए 2 कही जाने वाली सबसे हाल की पारियों में कांग्रेस ने बीजेपी समेत तमाम छोटी विपक्षी पार्टियों को नजरअंदाज कर ऐसे कई फैसले लिए, जिन पर बहस और खुलासों की जरूरत थी. हालांकि कई बार बीजेपी ने ही विपक्ष के विरोध के अधिकार के नाम पर सदन में इतना हंगामा किया कि कई जरूरी मुद्दों पर सार्थक बहस होने ही नहीं दी. इन दो सालों में कांग्रेस ने भी सत्ताधारी दल के विरोध के नाम पर बिल्कुल वही व्यवहार दिखाया है.
सत्ता में आने वाला दल कई तरह के राजनीतिक गुणा-भाग के अलावा जनता की अपेक्षाओं पर खरा उतरने के दबाव में काम करती है. वहीं विपक्ष के पास सरकार के विरोध के अलावा अपनी खुद की कमियों का मूल्यांकन करने और उन्हें सुधारने का मौका होता है. लेकिन मोदी के सत्ता में आने से पहले जहां देश के एक दर्जन राज्यों में कांग्रेस शासित या कांग्रेस समर्थित सरकारें थीं, वहीं इन दो सालों में वह घट कर आधी रह गई है.
अगले साल उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनावों को लेकर काफी पहले से एक्शन में आ गई दिखती कांग्रेस ने हाल ही में चुनावी गणित के पुरोधा बन कर उभरे प्रशांत किशोर की सेवाएं लेने का फैसला किया है. केंद्र में मोदी तो बिहार में नीतीश कुमार की जीत का श्रेय पाने वाले चुनावी अभियान रचने वाले किशोर शायद अधिक से अधिक यूपी में कांग्रेस को बहुत बुरी हार का मुंह देखने से बचा सकें. लेकिन जीत का लक्ष्य तो तब तक दूर की कौड़ी रहेगा जब तक सोनिया गांधी के नेतृत्व वाला दल सचमुच के नेता पैदा नहीं करेगा.
हाल में आए राज्य विधानसभा चुनावों के नतीजों में राष्ट्रीय परिदृश्य में कांग्रेस को और सिकोड़ दिया है. "जनता का भरोसा जीतने की हर संभव कोशिश" करने का वादा करने वाली कांग्रेस इतने बार ऐसा कह चुकी है लेकिन कभी भी इस दिशा में कोई ऐसा कदम नहीं उठाया है जिससे जनता को उनकी मंशा का सबूत मिले. कई पुराने कांग्रेसी गांधी-नेहरू वंश की परिवारवाद वाली पार्टी में किसी 'गांधी' के बिना पार्टी के बिखर जाने का खतरा देखते हैं. वहीं सोनिया-राहुल के नेतृत्व में भरोसा खो रहे कई कांग्रेसी पार्टी में आत्ममंथन नहीं कायाकल्प की जरूरत पर बयान दे रहे हैं. मजबूत होने के बजाए पार्टी को जोड़ कर रखने वाली 'गांधी' डोर भी गल रही है.
2004 से सक्रिय राजनीति में आए राहुल जहां आज भी एक अनिच्छुक नेता दिखते हैं, वहीं राष्ट्रीय परिदृश्य में उनके मुकाबले मोदी और अरविंद केजरीवाल जैसे सक्रिय, सशक्त जन छवि वाले मुखर नेता हैं. ध्यान देने वाली बात है कि बीजेपी या आम आदमी पार्टी के पास भी मोदी और केजरीवाल के बाद उतना सशक्त कोई दूसरा नेता नहीं है. लेकिन कांग्रेस के सामने तो नेतृत्व का संकट है. जनता के विकास में कांग्रेस का जो 'हाथ' कई दशक तक रहा है, आज वो ही अपना चेहरा खोती दिख रही है.
ब्लॉग: ऋतिका पाण्डेय