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कश्मीर के किसानों से पूछिये ग्लेशियरों के पिघलने का दर्द

८ नवम्बर २०२२

कश्मीर में ग्लेशियरों के पिघलने के कारण एक ही साल में एक मौसम की फसल को बाढ़ बहा ले गई, तो दूसरी फसल सूखे की भेंट चढ़ गई. खेती और ग्लेशियरों के पानी पर निर्भर लोगों के पास पेट भरने के लिए ऐसे हाल में कुछ नहीं बचता.

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पिघलते ग्लेशियरों का दर्द
तेजी से खत्म हो रहे हैं हिमालय के ग्लेशियरतस्वीर: Channi Anand/AP Photo/picture alliance

वसंत के मौसम में जब कश्मीर के हिमालयी पहाड़ों से आयी बाढ़ ने गुलाम हसन की सरसों की फसल डुबो दी, तो वह जानते थे कि कम से कम गर्मियों में चावल की फसल से उनके परिवार को खाना और मवेशियों को चारा मिल जायेगा. हालांकि, जब गर्मी का मौसम आया, तो जिन ग्लेशियरों की धारा से उनके खेतों की प्यास बुझती थी, वह इतनी कमजोर निकली कि खेत प्यासे रह गये. ना तो धान बचा, ना ही मक्का और न बीन्स.

भारत प्रशासित कश्मीर के गोरीपोरा गांव में अपने खेत में उगी घास दिखाते हुए हसन कहते हैं, "यह जो सारी जमीन आप देख रहे हैं, यह गर्मियों में बहुत परेशान करने वाली दिख रही थी. खेती की जमीन का कोई मोल नहीं, अगर पानी ना हो."

किसानों के पास अपने मवेशियों और परिवार का पेट पालने के लिए कुछ नहीं बचा है. हसन कहते हैं, "देखिये मेरी किस्मत, मुझे अपनी गाय या दो बैलों को बेचना होगा. तभी जाड़े के लिए अनाज या चारा आ सकेगा."

पिघलते ग्लेशियरों का दर्द
बर्फबारी की जगह बारिश के कारण बहुत नुकसान हो रहा हैतस्वीर: Saqib Majeed/SOPA Images/ZUMA Press/picture alliance

वैज्ञानिक लंबे समय से चेतावनी देते रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ता तापमान ग्लेशियरों और दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में बिछी बर्फ की चादर को निगल रहा है. इसकी वजह से समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है, बाढ़ आ रही है और सूखा पड़ रहा है. कश्मीर की लगभग 70 फीसदी आबादी सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से खेती पर निर्भर है. पहाड़ी समुदाय अपने खेतों की सिंचाई के लिए बर्फ पिघलने पर निर्भर हैं. ऐसे में जब गर्म जलवायु बर्फबारी के बजाय बारिश लाती है, तो उन्हें बहुत नुकसान होता है. बारिश की वजह से ग्लेशियर या तो बहुत तेजी से या समय से बहुत पहले पिघल जाते हैं.

नेजर जियोसाइंस जर्नल में फरवरी में छपी एक स्टडी रिपोर्ट के मुताबिक 2000 से 2019 के बीच दुनियाभर के ग्लेशियरों ने करीब 5.4 हजार अरब टन बर्फ खो दी है.

शेर-ए-कश्मीर यूनिवर्सिटी की कृषि अर्थशास्त्री फरहत शाहीन बताती हैं कि पहाड़ों में बर्फ पिघलने के पैटर्न में मामूली बदलाव भी कश्मीर के किसानों के लिए बड़ा नुकसान होगा. शाहीन ने कहा, "यह अर्थव्यवस्था के सभी सेक्टरों को आमतौर से प्रभावित करेगा और खेती को तो खासतौर से."

शाहीन ने बताया कि उन्होंने दक्षिणी कश्मीर के किसानों से बात की है और उन्होंने एक मौसम में सूखे या बाढ़ के कारण अपनी करीब 70 फीसदी फसल गंवाई है. 

पिघलते ग्लेशियरों का दर्द
कश्मीर की बड़ी आबादी पूरी तरह खेती पर ही निर्भर हैतस्वीर: Dar Yasin/AP Photo/picture alliance

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गायब होते ग्लेशियर

ग्लेशियर विशेषज्ञ शकील अहमद रोमशू जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के इलाके में पिछले छह सालों से सात ग्लेशियरों पर नजर रख रहे हैं. उन्होंने बताया कि उनकी टीम ने दिखाया है कि इस साल ग्लेशियर 5 मीटर के औसत से सिमटे हैं. जब उन्होंने आंकड़े जमा करना शुरू किया, तब यह औसत हर साल 1 मीटर था.

जिन सालों में गर्मी बहुत ज्यादा नहीं बढ़ी, उनमें भी हिमालय वसंत के मौसम में पहले ही गर्म हो जा रहा है. इसकी वजह से अचानक और तेज बाढ़ आ रही है, जो बारिश के कारण और भीषण हो जा रही है. फिर जब गर्मी में किसान बर्फ पिघलने से आने वाले पानी का इंतजार करते हैं, ताकि खेतों की सिंचाई कर सकें, तो ग्लेशियरों में इतनी बर्फ बचती ही नहीं कि पिघलकर खेतों तक पानी पहुंचा सकें.

रोमशू ने चेतावनी दी है कि अगर तापमान बढ़ता रहा और "ग्लेशियरों का असाधारण रूप से पिघलना" जारी रहा, तो पूरे इलाके में भोजन, ऊर्जा और पानी की सुरक्षा खत्म हो जायेगी.

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कश्मीर के कृषि विभाग के निदेशक चौधरी मोहम्मद इकबाल और उनका विभाग किसानों को जलवायु में हो रहे बदलाव के बारे में नई जानकारियां देने के साथ-साथ उन्हें इसके लिए तैयारी करने मे मदद कर रहा है. इसके साथ ही बाढ़ और सूखे के कारण फसलों के तबाह होने की स्थिति में उनकी सहायता भी करता है.

इस साल दक्षिण कश्मीर के डूरु इलाके में करीब 125 एकड़ में फैली धान की फसल की सिंचाई के लिए पांच कुंए मुहैया कराये गये. इसी तरह दूसरे इलाके में किसानों को समय से पहले ही सूखे की चेतावनी दी गई, ताकि वे दाल जैसी कम पानी में उपजने वाली फसलें लगा सकें.

इकबाल बताते हैं कि क्षेत्रीय सरकार ने भी राष्ट्रीय फसल बीमा योजना जैसे उपायों के जरिये किसानों को कुछ मुआवजा दिलाने की व्यवस्था की है. शाहीन का कहना है कि सरकार को सबसे पहले इस बारे में आंकड़े जुटाने पर ध्यान देना चाहिए कि किसानों के किस तरह की मदद की जरूरत है. उसके बाद बदलाव की रणनीति बनानी चाहिए. जैसे बाढ़ से बचाव या पानी जमा करने की सहूलियत के साथ ही 'अर्ली वार्निंग सिस्टम' को मजबूत बनाना.

पिघलते ग्लेशियरों का दर्द
बदलते मौसमों ने चरवाहों और गड़रियों का जीवन भी मुश्किल में डाल दिया हैतस्वीर: Javed Dar/Xinhua/IMAGO

डूबी सड़कें और भूस्खलन

पीर पंजाल माउंटेन रेंज की तलहटी में बसे छोटे से गांव चेंदारगुंड में जब गांव के लोग हर दूसरे या तीसरे साल आने वाली बाढ़ के बारे में बात करते हैं, तो कहते हैं कि इसने उनकी "कमर तोड़ दी है."

55 साल की सलीमा बेगम बताती हैं कि कैसे पिछली बार की बाढ़ ने उनके घर के पास की सड़क काट दी थी. जब उनके पति बीमार पड़े, तो उनका बेटा उन्हें अपनी पीठ पर उठाकर उन्हें मुख्य सड़क तक ले गया, जहां से एक रिश्तेदार की कार में उन्हें अस्पताल पहुंचाया गया. शुक्र है कि वह पूरी तरह ठीक होकर घर लौटे हैं.

इसके कुछ महीने बाद वही धारा इतनी सूख गई कि इससे उन्हें प्यास बुझाने या खाना बनाने के लिए भी पानी नहीं मिल रहा था. घर के बरामदे में बैठीं सलीमा बेगम बताती हैं, "हम उसी गंदे पानी से अपने बर्तन धो रहे थे और कोई रास्ता नहीं था."

उनका घर उस धारा से काफी दूर है, जिसमें बाढ़ आई थी. इसीलिए घर को कोई नुकसान नहीं हुआ, लेकिन उनके परिवार को गर्म और गीले वसंत की चिंता सता रही है, जब कोई भूस्खलन उनका घर और फसलें तबाह कर देगा और उनके पास कुछ नहीं होगा. वह अपने घर की दीवारों में आई दरारें दिखकर बताती हैं कि यह सब घर के नीचे की जमीन खिसकने की वजह से हुआ है. हर बार जब तेज बारिश आती है, तो उनका परिवार इस चिंता में डूब जाता है कि कहीं उनका घर उनके ऊपर ही न आ गिरे.

एनआर/वीएस (रॉयटर्स)

समय से पहले बर्फबारी ने बिगाड़ी सेब की फसल