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यूपी की नगीना सीट से चंद्रशेखर की जीत के क्या मायने हैं

समीरात्मज मिश्र
७ जून २०२४

नगीना सीट से आजाद समाज पार्टी (कांशीराम) के प्रत्याशी चंद्रशेखर की जीत ने प्रदेश की राजनीति में बड़ा संदेश दिया है. बीएसपी का चुनाव में खराब प्रदर्शन और चंद्रशेखर का उभार क्या दलित राजनीति में बड़ा बदलाव लाने वाला है?

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2024 लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की नगीना सीट से जीतकर चंद्रशेखर आजाद पहली बार सांसद बने हैं.
चंद्रशेखर का राजनीतिक उभार एक दिन का हासिल नहीं है. इसके लिए वह पिछले करीब एक दशक से संघर्ष कर रहे हैं. दलितों के खिलाफ अत्याचार के मामलों में उनके साथ खड़े रहने के चलते उनके खिलाफ दर्जनों मुकदमे दर्ज हैं और वह जेल में भी रहे.तस्वीर: Wasim Sarva/IANS

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले की जिस सुरक्षित सीट नगीना से चंद्रशेखर ने आजाद समाज पार्टी (कांशीराम) के उम्मीदवार के तौर पर डेढ़ लाख से भी ज्यादा वोटों से जीत हासिल की है, वहां समाजवादी पार्टी-कांग्रेस गठबंधन ने भी अपना उम्मीदवार खड़ा किया था और बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) ने भी. भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) तो मुकाबले में थी ही.

लेकिन नगीना की जनता ने चंद्रशेखर पर सबसे ज्यादा भरोसा किया और जीत दिलाई. दूसरे नंबर पर बीजेपी रही और तीसरे नंबर पर एसपी. कभी इस सीट पर मजबूत पकड़ रखने वाली बीएसपी का  जनाधार खिसका और उसके उम्मीदवार को महज 13 हजार वोट मिले.

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यही नहीं, पूर्वांचल की एक सीट डुमरियागंज में भी चंद्रशेखर की पार्टी के उम्मीदवार ने बीएसपी उम्मीदवार से ज्यादा वोट पाए और अपनी मौजूदगी दर्ज की. डुमरियागंज सीट पर आजाद समाज पार्टी के उम्मीदवार अमर सिंह चौधरी को 81 हजार वोट मिले, जबकि बीएसपी उम्मीदवार मोहम्मद नदीम को महज 35,936 वोट ही हासिल हुए. यही नहीं, कई सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार उतारने का भी बीएसपी को कोई लाभ नहीं हुआ और बड़ी संख्या में मुस्लिम वोट भी इंडिया गठबंधन की ओर जाता दिखा.

बीएसपी से दूर जाता दिख रहा है दलित वोटर?

बीएसपी के अकेले चुनावी समर में उतरने के फैसले ने पार्टी को एक बार फिर तगड़ा झटका दिया है. बीएसपी का वोट प्रतिशत 10 से नीचे पहुंच गया है. यहां तक कि वह दलित मतदाता भी उससे दूर जाता दिख रहा है, जो कभी उसका समर्पित वोट बैंक माना जाता था.

चुनावी नतीजों से पता चलता है कि बीएसपी प्रमुख मायावती अपनी जाति के जिस जन समर्थन पर इतना भरोसा करती थीं, वह वोट बैंक अब चंद्रशेखर की ओर जाता दिख रहा है. नगीना लोकसभा सीट की बात की जाए, तो चंद्रशेखर को पांच लाख से ज्यादा वोट मिले जबकि बीएसपी उम्मीदवार सुरेंद्र पाल सिंह को महज 13 हजार वोटों से ही संतोष करना पड़ा.

बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख और उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती
मायावती का गृह जनपद गौतमबुद्धनगर (नोएडा) है, लेकिन नगीना और बिजनौर वो जगहें हैं जहां से उन्होंने भी अपनी राजनीति की शुरुआत की. तस्वीर: AFP

एक दशक से जारी थी चंद्रशेखर की कोशिश

चंद्रशेखर का यह राजनीतिक उभार कोई एक दिन का नहीं है, बल्कि इसके लिए वह पिछले करीब एक दशक से संघर्ष कर रहे हैं. भीम आर्मी जैसे संगठन के जरिए दलितों के खिलाफ किसी भी अत्याचार के मामले में उनके साथ खड़े रहने के चलते उनके खिलाफ दर्जनों मुकदमे दर्ज हैं और वह जेल में भी रहे.

भीम आर्मी नाम का संगठन उन्होंने 2015 में बनाया था और उसके जरिए दलित समुदाय के युवाओं को उससे जोड़ा था. दलित युवाओं का यह संगठन दलित बस्तियों में बच्चों को पढ़ाने, उन्हें जागरूक करने और अपने अधिकारों के प्रति सचेत करने का काम करता रहा. उनके खिलाफ मुकदमे भले ही दर्ज हुए, वह जेल भले ही गए, लेकिन अपने इन्हीं तेवरों के चलते चंद्रशेखर दलित युवाओं को आकर्षित करते रहे.

लगातार घट रहा है बीएसपी का जनाधार

नगीना और बिजनौर वो ही जगहें हैं, जहां से मायावती ने भी अपनी राजनीति की शुरुआत की. मायावती का गृह जनपद भले ही दिल्ली से सटा गौतमबुद्धनगर (नोएडा) हो, लेकिन चुनावी राजनीति की शुरुआत उन्होंने यहीं से की थी. 90 के दशक से ही बीएसपी उत्तर प्रदेश समेत कई दूसरे राज्यों में भी अपनी मौजूदगी दर्ज कराती रही और कई अन्य राज्यों में भी उसके जन प्रतिनिधि चुनाव जीतते रहे.

लेकिन 2014 के बाद से इस पार्टी का ग्राफ लगातार गिरता रहा और जिस उत्तर प्रदेश में वह अपने दम पर पूर्ण बहुमत की सरकार तक बना चुकी है, वहीं इस समय पार्टी का सिर्फ एक विधायक है. 2014 के लोकसभा चुनाव में बीएसपी को एक भी सीट नहीं मिली थी, लेकिन 2019 में उसने समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन करके 10 सीटें जीतीं और पार्टी के लिए कुछ उम्मीदें जगाईं.

2022 के विधानसभा चुनाव में गठबंधन टूट गया, बीएसपी ने अकेले चुनाव लड़ा और पार्टी पूरी तरह से धराशायी हो गई. बलिया से एकमात्र विधायक उमाशंकर सिंह जीते. 2022 के चुनाव में पहली बार बीएसपी का कोर वोटर बैंक भी उससे दूर जाता दिखा और पार्टी का मत प्रतिशत घटकर 12.88 तक पहुंच गया. जबकि 2019 के लोकसभा चुनाव में उसने करीब 20 फीसदी वोट हासिल किए थे.

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2024 के लोकसभा चुनाव में उसका चुनावी प्रदर्शन इतना खराब है कि उसे सीट एक भी नहीं मिली, वोट प्रतिशत घटकर करीब नौ फीसदी पर आ गया और प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से एक पर भी वह सीधे मुकाबले में नहीं दिखी. किसी भी सीट पर बीएसपी के उम्मीदवार दूसरे नंबर पर नहीं रहे, जबकि 2004 के लोकसभा चुनाव में उसके 19 और 2009 में 20 सांसद थे.

2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान गाजियाबाद की एक चुनावी रैली में मायावती का भाषण सुनते बहुजन समाज पार्टी के समर्थक
2022 के चुनाव में पहली बार बीएसपी का कोर वोटर बैंक उससे दूर जाता दिखा और पार्टी का मत प्रतिशत घटकर 12.88 तक पहुंच गया. तस्वीर: AFP

क्या है बीएसपी के घटते जनसमर्थन का कारण

जो बीएसपी के समर्पित वोटर माने जाते थे, उनके बीच पार्टी अपना विश्वास खोती दिखी. एक ओर तो पार्टी के तमाम नेता लगभग एक जैसे आरोप लगाते हुए पार्टी छोड़ गए और दूसरी तरफ मायावती पर ऐसे आरोप भी लगने लगे कि वह पूरी तरह से बीजेपी को फायदा पहुंचाने के लिए राजनीति कर रही हैं.

2022 के विधानसभा चुनाव और ताजा लोकसभा चुनाव में यह साफतौर पर दिखा, जब उन्होंने जौनपुर और बस्ती से अपने उम्मीदवार बदले और तेजतर्रार तरीके से चुनावी अभियान में जुटे अपने भतीजे और उत्तराधिकारी आकाश आनंद को सभी पदों से बर्खास्त कर दिया. आकाश आनंद बीजेपी पर काफी हमलावर थे और इसका असर दलित मतदाताओं पर हो रहा था. फिर अचानक इस रफ्तार को मायावती के एक फैसले ने ध्वस्त कर दिया.

यही नहीं, पिछले कई सालों से दलित उत्पीड़न, सांप्रदायिक उन्माद और आरक्षण जैसे सवालों पर वह चुप रहीं, जबकि ऐसे मामलों में चंद्रशेखर और उनके साथी काफी मुखर रहे. न सिर्फ बिजनौर और नगीना या पश्चिमी उत्तर प्रदेश में, बल्कि पूरे राज्य में और दूसरे प्रदेशों में भी.

दलितों की अपनी आवाज, अपना मीडिया

आकाश आनंद राजनीति में अपरिपक्व भले ही थे, लेकिन उनके तेवर दलित युवाओं को काफी लुभा रहे थे और ऐसा लग रहा था कि बीएसपी को लेकर जो भविष्यवाणियां की जा रही थीं कि वो अब खत्म होने वाली है, गलत साबित होंगी. ऐसे मौके पर उनको पार्टी के अहम पदों से हटाए जाने के फैसले ने नुकसान पहुंचाया और दलितों को चंद्रशेखर में एक नया विकल्प और मजबूती से नजर आने लगा.

यही नहीं, चंद्रशेखर और उनकी पार्टी की पहुंच दलित समुदाय के साथ-साथ अल्पसंख्यक समुदाय में भी अच्छी-खासी है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इन दोनों समुदायों की मौजूदगी 50 फीसदी से ज्यादा है. ऐसे में इस इलाके में एक नए राजनीतिक समीकरण की संभावना प्रबल है.