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डिटेल में जानिए क्रिमिनल आइडेंटिफिकेशन बिल 2022

ओंकार सिंह जनौटी
५ अप्रैल २०२२

40 महिलाओं ने एक शख्स पर बलात्कार का आरोप लगाया, लेकिन आरोपी हर बार बच निकला. क्या भारत में क्रिमिनल आइडेंटिफिकेशन नाम का नया कानूनी फंदा असरदार साबित होगा?

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हैदराबाद में रेप के बाद दिल्ली में प्रदर्शन
तस्वीर: Danish Siddiqui/REUTERS

उत्तर प्रदेश में एक परिवार की हत्या करने के बाद आरोपी तमिलनाडु में रहने लगा. दिल्ली एनसीआर से भागा एक हिस्ट्रीशीटर उत्तराखंड में रहने लगा. ऐसे अपराधों की जांच करने वाली पुलिस को देर सबेर अगर आरोपी का सुराग मिल भी जाए तो उसे पहले दूसरे राज्य की पुलिस को जानकारी देकर अपनी पुलिस पार्टी वहां भेजनी होगी. स्थानीय पुलिस ने अगर सहयोग नहीं किया या किसी एक पुलिसकर्मी ने आरोपी को बचाने की कोशिश की तो सारी मेहनत नाकाम हो जाएगी. 

इस डर की वजह से अक्सर एक राज्य की पुलिस दूसरे राज्य में किसी को जानकारी दिए बिना रातों रात छापा मारती है और आरोपी को तुरंत अपने राज्य की सीमा में लाकर कोर्ट के सामने पेश करने कोशिश करती है. फिर रिमांड की गुजारिश करती है. रिमांड के दौरान पूछताछ और दबिश के जरिए पुलिस केस को मजबूत करने वाले सबूत जुटाने की कोशिश करती है. इस दौरान ऐसी कई कमजोरियां सामने आती हैं जिसका फायदा अपराधी उठाते हैं.

102 साल पुराना कानून

महाराष्ट्र में कई बच्चियों समेत 40 महिलाओं से बलात्कार का आरोपी भरत कालीचरण, राजस्थान में जर्मन पर्यटक से बलात्कार कर सात साल तक उड़ीसा, केरल और कई अन्य राज्यों में छुपने वाला बिट्टी मोहंती और कई प्रांतों में किडनी गैंग चलाने वाले कुछ डॉक्टर इसी लचर व्यवस्था के सबूत हैं.

ये तस्वीर, राज्य के अधिकार क्षेत्र में आने वाली भारतीय पुलिस की सच्चाई है, जिसका स्थानीय थाने की फाइलों में सिमटा डाटा बेस 1920 के क्रिमिनल प्रोसीजर कानून से चलता है. 1920 में बने ब्रिटिश हूकूमत के कानून के तहत, दोषी का रिकॉर्ड बनाने के लिए उसकी तस्वीरें, फिंगरप्रिंट और फुटप्रिंट लिए जाते हैं. इस प्रक्रिया को अगर 1920 से 1960 के कालखंड में देखें तो उस समय के लिहाज से यह कारगर व मॉर्डन कही जा सकती है.

लेकिन 2022 में, जहां स्मार्टफोन से कॉल या मैसेज कर किसी को लाखों की चपत लगाई जा सकती हो, एक छुपे कैमरे से किसी को ब्लैकमेल किया जा सकता हो या फिर परिवहन के तेज साधनों की मदद से फौरन कहीं दूर भागकर छुपा जा सकता हो, तब 102 साल पुराना कानून कितना मददगार होगा, ये सोचनीय बिंदु है. झारखंड के जामताड़ा में बैठे बैठे लोगों का पैसा ठगने वाले गिरोह पर फिल्में और वेब सीरीजें भी बन चुकी हैं, लेकिन ज्यादातर मामलों में पीड़ितों को न्याय नहीं मिल सका. 

क्रिमिनल प्रोसीजर (आइडेंटिफिकेशन) बिल, 2022

अब भारत सरकार इस व्यवस्था को बदलना चाहती है. केंद्र सरकार ने लोक सभा में क्रिमिनल प्रोसीजर (आइडेंटिटीफिकेशन) बिल, 2022 पास करवाया है. यह बिल कुछ संदिग्धों और तकरीबन सभी अपराधियों के रिकॉर्ड को वैज्ञानिक तरीके से जमा करने और इलेक्ट्रॉनिक डाटा बेस के जरिए तमाम एजेंसियों से साझा करने की अनुमति देता है.

लोक सभा में इस बिल पर हुई बहस के दौरान गृहमंत्री अमित शाह ने कहा कि 2020 में हत्या के 44 फीसदी, बलात्कार के 39 फीसदी और हत्या की कोशिश के 24 फीसदी मामलों में ही दोषियों को सजा मिली. यानि हत्या के 56 प्रतिशत मामलों और बलात्कार के 61 फीसदी मामलों में दोषियों को सजा नहीं मिली.

सौ साल पुरानी पुलिस सुधारों की बहस

सरकार का दावा है कि नए विधेयक के जरिए अपराधियों और संदिग्धों से जुड़े डाटा बेस को आधुनिक और इलेक्ट्रॉनिकली शेयरेबल बनाकर न्याय प्रणाली को बेहतर किया जा सकता है. बिल के मुताबिक, अब फिंगरप्रिंट, फोटो और फुटप्रिंट के साथ ही हथेली का प्रिंट, आंखों के आइरिस और रेटीना का बायोमैट्रिक डाटा और खून, वीर्य, बाल और लार के बायोलॉजिकल नमूने भी लिए जाएंगे. यह नमूने को डिजिटाइज कर केंद्रीय अपराध ब्यूरो (एनसीबी) के डाटा बेस में स्टोर किया जाएगा. एनसीबी इस डाटा को राज्यों की प्रमुख एजेंसियों के साथ शेयर करेगा.

भारत की अदालतों में लंबित पड़े हैं लाखों मामले
भारत की अदालतों में लंबित पड़े हैं लाखों मामलेतस्वीर: Nasir Kachroo/NurPhoto/picture alliance

मौजूदा कानून से कितना अलग है क्रिमिनल प्रोसीजर (आइडेंटिटीफिकेशन) बिल, 2022

1920 के कानून से अलग क्रिमिनल प्रोसीजर (आइडेंटिटीफिकेशन) बिल, 2022 में कई नए प्रावधान हैं. मौजूदा कानून (1920 वाले एक्ट) के तहत सैंपल, गिरफ्तार किए गए उसी व्यक्ति के लिए जा सकते हैं, जिसे कम से कम एक साल की कड़ी सजा की हो सकती हो या हो चुकी हो. वहीं नया बिल किसी भी दंडात्मक अपराध के तहत गिरफ्तार किए गए आरोपी या अदालत द्वारा दोषी ठहराए जाने वाले मुजरिम का बायोलॉजिकल और फिजिकल डाटा जुटाने का अधिकार देता है.

नया बिल के तहत अगर किसी को एहतियात के लिए भी हिरासत में लिया जाए तो भी उसके सैंपल लेने की इजाजत होगी. इन सैंपलों में हस्ताक्षर और लिखावट भी शामिल है. यह रिकॉर्ड 75 वर्ष तक सुरक्षित रखे जाएंगे.

1920 के एक्ट में सैंपल जमा करने का आदेश देने का अधिकार मजिस्ट्रेट के पास है, वहीं मौजूदा बिल इसे सब इंस्पेक्टर रैंक के पुलिस अधिकारी के अधिकार क्षेत्र में लाता है.

मौलिक सुविधाओं को तरसते पुलिसवाले

बायोलॉजिकल सैंपलों को ठंडे तापमान में बेहद सावधानी से रखना पड़ता है, ऐसे में सवाल यह भी उठता है कि क्या देश के कई खस्ताहाल थाने पूरी गंभीरता से ऐसे सैंपल जुटा पाएंगे?

दुरुपयोग की आशंका

विपक्ष के कुछ दलों को मुख्य रूप से इस प्रावधान पर आपत्ति हैं. कांग्रेस, बीजू जनता दल और शिवसेना जैसी पार्टियों का कहना है कि यह बिल संविधान की धारा 14, 15 और 21 का उल्लंघन करता है. ये धाराएं आम नागरिकों को समानता का अधिकार, कानून के समक्ष समानता, नागरिक आजादी और सशर्त अभिव्यक्ति की आजादी जैसे संवैधानिक अधिकार देती हैं.

विपक्ष के नेताओं का आरोप है कि नए बिल का दुरुपयोग किया जा सकता है. जाने माने वकील और कांग्रेस के नेता मनीष तिवारी ने बिल को असंवैधानिक और निजता पर हमला करने वाला बताया है.  कुछ पुलिस अधिकारी अगर किसी को फंसाने के इरादे से इस डाटा का इस्तेमाल करने की सोचें तो इसे कैसे रोका जाएगा, ये कुछ अहम सवाल हैं, जिनका जबाव फिलहाल इस बिल में नहीं है.

अदालत में लंबित मामलों की बात करें तो भारतीय अदालतों में सबसे ज्यादा मामले लंबित पड़े हैं. भारत में न्यायपालिका और पुलिस रिफॉर्म्स की बात भी लंबे समय से की जाती रही है.