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नेपाल की अर्थव्यवस्था बदहाल और सामने चुनाव

८ नवम्बर २०२२

नेपाल में राष्ट्रीय सरकार और राज्यों के चुनाव इसी महीने होने हैं. चुनाव में मध्यमार्गी कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व वाला सत्ताधारी गठबंधन, वामपंथी विपक्ष और राजशाही समर्थकों से इस मुकाबले में जीत की उम्मीद कर रहा है.

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 नेपाल में चुनाव
काठमांडू में चुनाव प्रचार करते उम्मीदवार तस्वीर: Sunil Sharma/ZUMA Press Wire/picture alliance

नेपाल की 275 सदस्यों वाली संसद, सात राज्यों की 330 विधानसभा सीटों के लिए प्रतिनिधियों का चुनाव 1.8 करोड़ मतदाताओं के वोट से होना है. नेपाल में "फर्स्ट पास्ट द पोस्ट" और आनुपातिक प्रतिनिधित्व सिस्टम, दोनों के मेल से प्रतिनिधि चुने जाते हैं. नेपाल की जनता के सामने इस बार के चुनाव में कई मुद्दे हैं.

अर्थव्यवस्था और महंगाई

नेपाल की 3 करोड़ आबादी बीते छह सालों में सबसे ज्यादा महंगाई की समस्या से जूझ रही है. यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद से पैदा हुए वैश्विक ऊर्जा संकट और खाने-पीने की चीजों के बढ़े दाम से देश में महंगाई की दर आठ फीसदी के ऊपर चली गई है. यह सारा संकट दो साल तक चले कोरोना की महामारी के बाद आया है.

देश की 20 फीसदी आबादी हर दिन दो डॉलर से कम पर गुजारा करती है. ऐसे में उनके लिए इस समय वही राजनेता काम का है, जो भोजन और दूसरी जरूरी चीजों की कीमतों पर लगाम लगा सके.

विश्व बैंक के मुताबिक, मध्य जुलाई से शुरू हुए वित्तवर्ष में अर्थव्यवस्था के 5.1 फीसदी की दर से विकास करने के आसार हैं. पिछले साल यह विकास दर 5.84 फीसदी रही थी. नेपाल के वरिष्ठ पत्रकार चंद्रकिशोर का कहना है, "अर्थव्यवस्था बहुत अच्छी स्थिति में नहीं है, लेकिन यहां के हालात श्रीलंका जैसे नहीं है. आने वाले महीनों में इसमें सुधार की गुंजाइश दिख रही है."

 नेपाल में चुनाव
चुनाव प्रचार के दौरान महिला उम्मीदवार का स्वागत तस्वीर: Amit Machamasi/ZUMA Press Wire/picture alliance

राजनीतिक स्थिरता

यह गरीब देश बीते दशकों में राजनीतिक स्थिरता के लिए बहुत तरसा है. चीन और भारत के बीच फंसे नेपाल में निवेशक पैसा लगाने के लिए जल्दी साहस नहीं कर पाते. 2008 में 239 साल की राजशाही पूरी तरह खत्म होने के बाद से अब तक 10 अलग-अलग सरकारें बन चुकी हैं.

नेपाल की तीन प्रमुख पार्टियों- नेपाली कांग्रेस, कम्युनिस्ट एकीकृत मार्क्सवादी लेनिनवादी (यूएमएल) पार्टी और माओवादी केंद्र, इन सबने अलग-अलग गठबंधन सरकारों का नेतृत्व किया है. कोई भी सरकार पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी. आपसी खींचतान और सत्ता के संघर्ष ने हर सरकार को समय से पहले ही अपना शिकार बना लिया.

करीब एक दशक तक सरकार से लड़ने के बाद माओवादी विद्रोही 2006 में संघर्षविराम पर रजामंद हुए और मुख्यधारा में शामिल हो गए. मौजूदा सरकार में वित्त मंत्री जनार्दन शर्मा माओवादी गुरिल्ला कमांडर रह चुके हैं. उनका कहना है कि नेपाल में हाल की आर्थिक मुश्किलें और राजनीतिक स्थिरता चुनाव में मतदाताओं के लिए सबसे बड़े मुद्दे हैं.

स्थिरता के मामले में नेपाली कांग्रेस का रिकॉर्ड बाकी पार्टियों की तुलना में बेहतर है. इस बार भी जिस तरीके से वो अपनी सरकार चला पाने में सफल हुए हैं, वह उनकी वापसी के लिए उम्मीद जगाती है. चंद्रकिशोर कहते हैं, "भले ही उन्होंने कोई बड़ा काम नहीं किया हो, लेकिन सरकार चला पाए हैं और स्थितियों को और ज्यादा बिगड़ने से रोका है. बीते सालों को देखें, तो यह भी छोटी सफलता नहीं है."

मुख्य उम्मीदवार

मुकाबला मुख्य रूप से नेपाली कांग्रेस पार्टी और यूएमएल पार्टी के बीच है. नेपाली कांग्रेस फिलहाल चार पार्टियों के गठबंधन का नेतृत्व कर सरकार चला रही है. पिछले तीन दशकों में नेपाली कांग्रेस ही ज्यादातर समय सत्ता में रही है.

नेपाल में चुनाव
प्रधानमंत्री शेर बहादु देउबा चीन और भारत के बीच संतुलन बनाने की कोशिश में हैंतस्वीर: Indian Government Press Information Bureau via AP Photo/picture alliance

नेपाली कांग्रेस की कमान प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा के हाथ में है और उन्होंने माओइस्ट सेंटर पार्टी के साथ गठबंधन किया है. यह पार्टी मुख्य रूप से पूर्व विद्रोहियों का दल है. 76 साल के देउबा इस चुनाव से छठी बार सत्ता में लौटने की उम्मीद कर रहे हैं. नेपाली कांग्रेस पार्टी को भारत का करीबी माना जाता है.

यूएमएल की कमान 70 साल के केपी शर्मा ओली के हाथ में है, जिन्होंने शाही परिवार के समर्थक दल के साथ एक कमजोर गठबंधन किया है. ओली अपने पहले के कार्यकाल में चीन समर्थक रुख के लिए जाने जाते हैं. अगर उनका गठबंधन जीत जाता है, तो फिर प्रधानमंत्री पद के वही दावेदार होंगे. इससे पहले भी वह दो बार प्रधानमंत्री रह चुके हैं.

माओइस्ट सेंटर पार्टी की कमान प्रचंड के हाथ में है, जो किसी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने की स्थिति में किंगमेकर बन सकते हैं. कभी विद्रोही रह चुके प्रचंड आज भी अपने नाम जैसे रुख के लिए जाने जाते हैं और देश का प्रधान बनने की ख्वाहिश रखते हैं. चुनाव से पहले नेपाल में कोई सर्वेक्षण नहीं हुआ है, जिसके आधार पर कहा जा सके कि किसकी स्थिति मजबूत है.

चीन और भारत का असर

पड़ोसी देश चीन और भारत के नेपाल से रणनीतिक और आर्थिक हित जुड़े हुए हैं. जाहिर कि दोनों देशों में नेपाल के चुनाव पर बारीकी से नजर रखी जा रही है.

बीते सालों में नेपाल के आम लोगों का भारत से जुड़ाव थोड़ा कम हुआ है. चंद्र किशोर कहते हैं, "खासतौर से बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों से पहले जिस तरह का नेपाली लोगों का जुड़ाव था, उसमें कमी आई है. अब ये लोग इन इलाकों की बजाय दक्षिण भारत की ओर जाने लगे हैं. इसका एक कारण यह भी है कि नेपाल से सटे इलाकों में इन लोगों की जरूरतें पूरी नहीं हो रही हैं. जिस तरह यूपी, बिहार के लोग बेंगलुरू जा रहे हैं, वैसे ही नेपाल के लोग भी अगर भारत जाते हैं, तो इन्हीं जगहों की ओर."

नेपाल के लोगों ने अब खाड़ी के देशों और दूसरे देशों में जाने को ज्यादा बेहतर विकल्प मानना शुरू कर दिया है. हालांकि फिर भी भारत-नेपाल के बीच गहरे सांस्कृतिक संबंधों का तानाबाना है, जो इन्हें पास ले ही आता है. 

नेपाल में चुनाव
महामारी और राजनीतिक अस्थिरता ने नेपाल का बुरा हाल किया हैतस्वीर: Sunil Pradhan/NurPhoto/picture alliance

उधर चीन ने अपनी बेल्ट ऐंड रोड परियोजना के तहत नेपाल के साथ बुनियादी ढांचे के विकास की परियोजनाओं के लिए करार किया है. वह काठमांडू से लेकर ल्हासा तक हिमालय पार रेल नेटवर्क खड़ी करने की तैयारी में है.

मौजूदा सरकार वामपंथी सरकारों के मुकाबले भारत से ज्यादा संतुलन बना कर चलती है. मधेस लोगों के बीच भी नेपाली कांग्रेस की अच्छी पैठ रही है. हालांकि चुनाव करीब देख करइस बार वामपंथी नेता भी भारत और चीन के बीच संतुलनबनाने की बात कह रहे हैं.

इस साल की शुरुआत में नेपाल ने 50 करोड़ डॉलर की अमेरिकी सहायता को मंजूरी दी थी. इस पैसे से सड़कों को बेहतर बनाया जाएगा और बिजली की लाइन बिछाई जाएगी. नेपाल में इस फैसले को लेकर काफी विवाद हुआ क्योंकि चीन को आशंका है कि अमेरिका नेपाल में अपनी पहुंच बनाने की कोशिश कर सकता है.

रिपोर्ट: निखिल रंजन (एएफपी)