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विज्ञानविश्व

सागर की गहराई में वैज्ञानिकों को मिलीं अद्भुत धातुई गांठें

२३ जुलाई २०२४

प्रशांत महासागर की गहराई के घुप अंधेरे में वैज्ञानिकों ने एक विचित्र खोज की है. यहां आलू जैसे आकार की धातुई गांठों की भरमार है. अब पता चला है कि ये बिजली पैदा करके ऑक्सीजन भी छोड़ती हैं.

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दक्षिण-पश्चिमी प्रशांत महासागर में बन रहे एक द्वीप का सीफ्लोर रिज, जहां समुद्र के नीचे ज्वालामुखियों की सघनता सबसे ज्यादा है.
प्रशांत महासागर पृथ्वी का सबसे बड़ा और गहरा सागर है. यह पृथ्वी के 30 फीसदी से ज्यादा हिस्से में फैला है. इसकी औसत गहराई करीब 13,000 फीट है. तस्वीर: Cover-Images/IMAGO

स्कॉटिश एसोसिएशन फॉर मरीन साइंस (एसएएमएस) के वैज्ञानिकों की एक नई रिसर्च में यह जानकारी सामने आई है. शोध का ब्योरा 'नेचर जियोसाइंस' नाम की विज्ञान पत्रिका में प्रकाशित किया गया है. इसके नतीजे डीप-सी माइनिंग की बढ़ती महत्वाकांक्षाओं के बीच महासागरों और वहां मौजूद जैव विविधता के प्रति ज्यादा सावधानी बरतने की जरूरत पर जोर देते हैं. 

महासागरों के लिए घातक है डीप-सी माइनिंग

यह खोज समंदर के जिस हिस्से में हुई, उसे 'क्लैरियन-क्लिपपेरटन जोन' (सीसीजेड) कहा जाता है और यह हवाई और मेक्सिको के बीच है. यहां सबसे गहरा हिस्सा करीब 18,000 फीट नीचे है. इस इलाके में समुद्र के तल पर 'पोलिमैटेलिक नॉड्यूल्स' की भरमार है. इन गांठनुमा नॉड्यूल्स को 'चट्टान की बैटरी' या 'मैग्नीज नॉड्यूल्स' भी कहा जाता है.

स्पेन में जैतून का एक पेड़ और जमीन पर जंगली फूल.
प्रकाश संश्लेषण वह प्रक्रिया है, जिसमें पेड़-पौधे और शैवाल सूर्य की रोशनी, पानी और कार्बन डाई ऑक्साइड का इस्तेमाल कर ऑक्सीजन बनाते हैं. पौधों की कोशिकाओं में क्लोरोप्लास्ट होता है, जो सूर्य की रोशनी से मिली ऊर्जा को जमा करता है. इसमें मौजूद क्लोरोफिल नाम का पिगमेंट रोशनी सोखता है और इसी से पत्तियों को उनका हरा रंग मिलता है. पृथ्वी पर मौजूद जीवन का ज्यादातर स्वरूप अपने अस्तित्व के लिए इस प्रक्रिया पर निर्भर है. तस्वीर: Michael Busselle/robertharding/IMAGO

डीप-सी माइनिंग की योजना

खनिज तत्वों से बने इन छोटे-छोटे ढेरों में कोबाल्ट, निकेल, तांबा और मैग्नीज जैसे तत्व पाए जाते हैं. कीमती धातुओं से भरपूर होने के कारण खनन उद्योग की इनमें काफी दिलचस्पी है. इन धातुओं का इस्तेमाल बैटरी, स्मार्टफोन, पवनचक्की की पंखियां और सोलर पैनल बनाने में होता है.

कुछ कंपनियां यहां डीप-सी माइनिंग की योजना बना रही हैं. इनमें कनाडा की खनन से जुड़ी 'दी मेटल्स कंपनी' भी है, जो अगले साल सीसीजेड में नॉड्यूल्स का खनन शुरू करना चाहती है. मौजूदा रिसर्च को इस कंपनी ने भी फंड किया है.

समुद्र की गहराई में खोजी गई टीफजी टिंटेनफिश नाम की एक नई प्रजाति.
अनुमान है कि समुद्र में लगभग 20 लाख प्रजातियां हैं. इनमें से एक बड़े हिस्से के बारे में हमें अब तक जानकारी नहीं है. बीते कुछ सालों में लगातार नई-नई समुद्री प्रजातियां खोजी जा रही हैं. पिछले साल ही वैज्ञानिकों ने प्रशांत महासागर के एक अनछुए हिस्से में 5,000 से ज्यादा नई प्रजातियों की खोज की. तस्वीर: Courtesy Everett Collection/picture alliance

वैज्ञानिक जानना चाहते थे कि खनन के कारण यहां रहने वाले जीवों पर कैसा और कितना असर पड़ेगा. इसकी पड़ताल के लिए वैज्ञानिकों ने एक छोटे जहाज को सीसीजेड इलाके में भेजा. यहां वैज्ञानिकों को प्रशांत महासागर में सतह से करीब चार किलोमीटर की गहराई पर ऑक्सीजन छोड़ने वाले मेटालिक लंप्स मिले.

समुद्र की नई गहराइयों में पहली बार मिली मछलियां

जीवन की शुरुआत पर स्थापित मान्यताओं को चुनौती

इतनी गहराई में सूरज की जरा सी भी रोशनी नहीं पहुंचती. अब तक माना जाता रहा है कि सिर्फ पेड़-पौधे और शैवाल जैसे जीवित पादप ही ऑक्सीजन पैदा कर सकते हैं. इसमें सूरज की रोशनी बेहद जरूरी है क्योंकि इसी की मदद से प्रकाश संश्लेषण हो पाता है.

प्रशांत महासागर में समुद्र की सतह से छनते हुए नीचे पहुंच रही सूर्य की रोशनी.
'क्लैरियन-क्लिपपेरटन जोन' (सीसीजेड) डीप-सी माइनिंग का बड़ा संभावित केंद्र है. यहां कोबाल्ट, मैग्नीज और निकेल जैसे खनिजों का विशाल भंडार है. 2023 तक करीब 17 कंपनियों को 7,45,000 वर्ग मील के इलाके में खनन का अधिकार मिल चुका है. कई वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों की आशंका है कि इससे गहरे समुद्र में पाए जाने वाले नाजुक ईकोसिस्टम और जैव विविधता को बहुत नुकसान पहुंच सकता है. तस्वीर: Dave Fleetham/Design Pics/picture alliance

नए शोध में मिली जानकारियां इन तथ्यों को चुनौती देती हैं. एसएएमएस के शोधकर्ताओं ने उम्मीद जताई कि इस हैरतअंगेज खोज के कई संभावित फायदे हो सकते हैं. यहां तक कि पृथ्वी पर जीवन की शुरुआत से जुड़ी वैज्ञानिक मान्यताओं को भी चुनौती मिल सकती है.

डीप-सी माइनिंग के असर को जानना चाहते थे रिसर्चर

संबंधित रिसर्च के प्रमुख लेखक एंड्रयू स्वीटमैन ने शोध के शुरुआत लक्ष्य की जानकारी देते हुए समाचार एजेंसी एएफपी को बताया, "हम यह मापना चाहते थे कि समुद्र के तल पर ऑक्सीजन के इस्तेमाल की दर कितनी है." प्रयोग के क्रम में वैज्ञानिकों ने तल पर मौजूद गाद जमा करने के लिए एक 'बेंथेक चैंबर' का इस्तेमाल किया.

माक्स प्लांक इंस्टिट्यूट फॉर मरीन बायोलॉजी के मुताबिक, समुद्र का तल दो बेहद अहम इलाकों के बीच सीमा का काम करता है. ये दो हिस्से हैं, पानी और नीचे जमी गाद (सेडेमेंट). समुद्र के ईकोसिस्टम को समझने के लिए इन दोनों की अहम भूमिका है. डीप-सी माइनिंग के कारण प्रकृति और पर्यावरण पर होने वाले संभावित असर और जोखिमों को मापने के लिए वैज्ञानिक अक्सर बेंथेक चैंबर का इस्तेमाल करते हैं. मौजूदा शोध में भी वैज्ञानिकों के इस मशीन का इस्तेमाल किया गया.

पश्चिमी प्रशांत महासागर के उत्तरी मरिआना द्वीपसमूह का सबसे बड़ा द्वीप साइपैन.
खनिज तत्वों से बने पोलिमैटेलिक नॉड्यूल्स में कोबाल्ट, निकेल, तांबा और मैग्नीज जैसे तत्व पाए जाते हैं. इनका इस्तेमाल बैटरी, स्मार्टफोन, पवनचक्की की ब्लेडों और सोलर पैनल बनाने में होता है. कीमती धातुओं से भरपूर होने के कारण खनन उद्योग की इनमें काफी दिलचस्पी है. तस्वीर: Ou Jingwei/SIPA ASIA/Pacific Press/picture alliance

धातु का पिंड कैसे बनाता है ऑक्सीजन?

स्वीटमैन बताते हैं कि आमतौर पर ऐसे प्रयोगों में देखा जाता है कि चैंबर के भीतर जमा हुई ऑक्सीजन की मात्रा घटती है क्योंकि वहां रहने वाले जीव सांस लेने में इसका इस्तेमाल करते हैं. लेकिन इस प्रयोग में बिल्कुल अलग हुआ. चैंबर में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ गई.

चूंकि समुद्र का यह हिस्सा पूरी तरह अंधेरा होता है और प्रकाश संश्लेषण की क्रिया यहां नहीं होती, ऐसे में वैज्ञानिकों ने इस नतीजे की उम्मीद नहीं की थी. यह इतना हैरान करने वाला था कि शुरुआत में शोधकर्ताओं को लगा कि शायद मशीन में लगे सेंसर खराब हो गए हैं. वे दोबारा जांच करने के लिए कुछ नॉड्यूल्स शिप पर लाए.

नॉड्यूल्स की मौजूदगी में एक बार फिर चैंबर में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ गई. इसके बाद वैज्ञानिकों ने नॉड्यूल्स में हो रहे हैरतअंगेज इलेक्ट्रिक बदलाव पर गौर किया. इसकी सतह पर उन्होंने उतना ही वोल्टेज पैदा होते देखा, जितना एक सामान्य सिंगल सेल एए बैटरी से मिलता है. इसी बिजली में ऑक्सीजन पैदा होने का रहस्य छिपा है.

शोधकर्ताओं के मुताबिक, यह वोल्टेज समुद्र के पानी को हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के रूप में बांट सकता है. इस प्रक्रिया को 'सीवॉटर इलेक्ट्रोलिसिस' कहा गया है. यह रासायनिक प्रक्रिया करीब डेढ़ वोल्ट के चार्ज के आसपास होती है. टीवी के रिमोट में हम जिस एए बैटरी का इस्तेमाल करते हैं, वह भी इतना ही चार्ज देती है.

दी मेटल्स कंपनी का हिडन जेम्स नाम का ड्रिलिंग जहाज. यह डी-सी माइनिंग के लिए खास उपकरणों से लैस पहला जहाज है, जो समुद्र तल से पोलिमैटेलिक नॉड्यूल्स निकालेगा.
'क्लैरियन-क्लिपपेरटन जोन' (सीसीजेड) इलाके में समुद्र के तल पर 'पोलिमैटेलिक नॉड्यूल्स' की भरमार है. इन गांठनुमा संरचनाओं को 'चट्टान की बैटरी' या 'मैग्नीज नॉड्यूल्स' भी कहा जाता है. कनाडा की 'दी मेटल्स कंपनी' इलेक्ट्रिक गाड़ियों के लिए बैटरी बनाने में इन्हें इस्तेमाल करना चाहती है. तस्वीर: Jochen Tack/IMAGO

डीप-सी ईकोसिस्टम पर ज्यादा शोध की जरूरत

एसएएमएस के निदेशक निकोलस ओवेन्स ने इसे "हालिया समय में समुद्र के विज्ञान से जुड़ी सबसे रोमांचक खोज" बताया. उन्होंने एक बयान में कहा, बिना प्रकाश संश्लेषण के ऑक्सीजन बनने की यह खोज रेखांकित करती है कि "हमें इस बात पर दोबारा विचार करना चाहिए कि इस ग्रह पर जीवन की शुरुआत कैसे हुई होगी."

नासा को मिले पृथ्वी पर जीवन की शुरुआत से जुड़े सबूत

उन्होंने आगे कहा, "अब तक यही माना जाता रहा है कि करीब 300 करोड़ साल पहले पहली बार ऑक्सीजन बना. इसे सायनोबैक्टीरिया नाम के प्राचीन माइक्रोब्स ने बनाया और फिर धीरे-धीरे जीवन का विकास हुआ." स्वीटमैन कहते हैं कि मौजूदा खोज से पता चलता है कि "मुमकिन है, जीवन की शुरुआत जमीन पर ना होकर कहीं और हुई हो."

स्वीटमैन सवाल पूछते हैं, "और, अगर यह प्रक्रिया हमारे ग्रह पर हो रही है, तो क्या यह एनसेलेडस (शनि ग्रह का चंद्रमा) और यूरोपा (बृहस्पति ग्रह का एक चंद्रमा) के समुद्रों में भी ऑक्सीकृत आवासों को पैदा करने में मदद दे रही है और जीवन के अस्तित्व के लिए अवसर पैदा कर रही है?"

समुद्र से धातुएं तो मिल जाएंगी लेकिन ईकोसिस्टम का क्या होगा?

प्रशांत महासागर पृथ्वी का सबसे बड़ा और गहरा सागर है. यह पृथ्वी के 30 फीसदी से ज्यादा हिस्से में फैला है. इसकी औसत गहराई करीब 13,000 फीट है. 36,000 फीट नीचे पृथ्वी का सबसे गहरा हिस्सा 'चैलेंजर डीप' भी प्रशांत महासागर में ही है. अनुमान है कि समुद्र में लगभग 20 लाख प्रजातियां हैं, लेकिन इनमें से एक बड़े हिस्से को इंसान अब तक नहीं जान पाए हैं. डीप सी माइनिंग के कारण समुद्र की गहराइयों में अछूती रही जगहों पर अब मशीनें पहुंचेंगी. इसके अलावा जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण गर्म हो रहे समुद्र के कारण भी यहां मौजूद जैव विविधता को नुकसान पहुंचने की आशंका है. 

एसएम/आरपी (एएफपी)