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वैश्विक औसत तापमान में 2.8 डिग्री की हो सकती है बढ़ोतरी

स्टुअर्ट ब्राउन
४ नवम्बर २०२२

यूएन की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु को नुकसान पहुंचाने वाले उत्सर्जन को रोकने और वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने की कोशिश सफल होती नजर नहीं आ रही है.

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USA | Kohlekraftwerk
तस्वीर: Branden Camp/AP Photo/picture alliance

तेजी से हो रहे जलवायु परिवर्तन की वजह से पिछले एक साल में दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में भीषण बाढ़, तूफान और जंगल की आग की कई घटनाएं देखने को मिली हैं. इनकी वजह से कई समुदाय तबाह हो गए. हजारों लोगों की जान गई, संपत्ति का काफी नुकसान हुआ और भारी संख्या में लोगों को पलायन करना पड़ा. इन सब आपदाओं को कम करने के लिए दुनिया के अलग-अलग देशों ने उत्सर्जन में कमी करने का वादा किया है. हालांकि, संयुक्त राष्ट्र की नई रिपोर्ट में पाया गया है कि मौजूदा वादों का कोई ज्यादा सकारात्मक असर होता नहीं दिख रहा है.

सबसे ज्यादा तप रहा है यूरोप

अगर दुनिया के देश पेरिस समझौते के तहत सिर्फ अपने राष्ट्रीय जलवायु लक्ष्यों पर टिके रहते हैं, तो साफ है कि ग्लोबल वार्मिंग खतरनाक स्तर तक बढ़ जाएगी. दुनिया के देशों को उत्सर्जन रोकने के लिए तत्काल कड़े कदम उठाने की जरूरत है.

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) की कार्यकारी निदेशक इंगर एंडरसन ने कहा, "हम जलवायु आपातकाल के दौर में हैं. और अभी भी... देश कठोर कदम उठाने में देर कर रहे हैं.”

पिछले साल स्कॉटलैंड के ग्लासगो में 31 अक्टूबर से 12 नवंबर तक संयुक्त राष्ट्र की जलवायु परिवर्तन शाखा (यूएनएफसीसीसी) के तत्वाधान में 26वां जलवायु सम्मेलन ‘कॉप 26' का आयोजन किया गया था. इस सम्मेलन में अलग-अलग देशों ने 2030 तक उत्सर्जन में भारी कटौती करने का वादा किया था. हालांकि, उनके वादे और धरातल पर होने वाले काम में काफी अंतर दिख रहा है.

तापमान में वृद्धि रोकने के लिए कार्रवाई की जरूरत
तापमान में वृद्धि रोकने के लिए कार्रवाई की जरूरततस्वीर: J. David Ake/AP/picture alliance

वैश्विक स्तर पर उत्सर्जन में कटौती को लेकर 2015 में पेरिस जलवायु समझौता हुआ था. इसमें राष्ट्रीय स्तर पर योगदान निर्धारित किए गए थे. राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) पेरिस जलवायु समझौते के मूल में हैं. इस समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले सभी देशों को राष्ट्रीय जलवायु लक्ष्य निर्धारित करने और उनके कार्यान्वयन और नए लक्ष्यों पर नियमित रूप से रिपोर्ट करने की बाध्यता होती है.

कॉप 26 के बाद एनडीसी की हालिया समीक्षा में संयुक्त राष्ट्र ने पाया कि 2030 तक सिर्फ 0.5 गीगाटन कार्बन डाईऑक्साइड के बराबर ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन में कटौती हो पाएगी. यह 2030 तक के कुल अनुमानित उत्सर्जन के एक फीसदी से भी कम है.

2022 की एमिशन गैप रिपोर्ट के मुताबिक, पेरिस में निर्धारित 1.5 डिग्री सेल्सियस वार्मिंग के लक्ष्य को हासिल करने के लिए मौजूदा नीतियों के तहत अनुमानित उत्सर्जन में 2030 तक 45 फीसदी की कटौती होनी चाहिए.

तापमान में वृद्धि रोकने के लिए कार्रवाई की जरूरत

रिपोर्ट में कहा गया है कि मौजूदा लागू नीतियों के आधार पर वैश्विक औसत तापमान में 2.8 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि होने की संभावना है, जो कि 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा से लगभग दोगुना है. हालांकि, मौजूदा एनडीसी योजनाएं लागू करने पर, तापमान में वृद्धि ज्यादा से ज्यादा 2.4 डिग्री सेल्सियस तक हो सकती है.

एंडरसन ने कहा, "यह रिपोर्ट बताती है कि प्रकृति हमें भीषण बाढ़, तूफान और आग के माध्यम से क्या संदेश देना चाहती है. हमें अपने वातावरण को ग्रीनहाउस गैसों से भरना बंद करना होगा और यह तेजी से करना होगा.”

धनी देशों पर सौ अरब डॉलर का वादा निभाने का दबाव बढ़ाएगा भारत

26 अक्टूबर को ‘स्टेट ऑफ क्लाइमेट' की रिपोर्ट प्रकाशित हुई है. यह रिपोर्ट भी यूएनईपी की बातों का समर्थन करती है. इस रिपोर्ट में बताया गया है कि परिवहन और ऊर्जा सहित कई अन्य क्षेत्रों के 40 क्लाइमेट प्रोग्रेस इंडिकेटर में से कोई भी बेहतर स्थिति में नहीं है, ताकि 2030 तक निर्धारित 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को हासिल किया जा सके.

यूएनईपी ने पाया कि ऑस्ट्रेलिया, अर्जेंटीना, ब्राजील और कनाडा मौजूदा नीतियों के तहत 2030 के लक्ष्य को हासिल न करने वाले देशों में शामिल हैं.

1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य के करीब बने रहना

डेनमार्क स्थित ग्रीन थिंक टैंक कॉन्सिटो के अंतरराष्ट्रीय वरिष्ठ सलाहकार और यूएनईपी रिपोर्ट के मुख्य लेखक जॉन क्राइस्टेंसन के मुताबिक, कॉप 26 में 2030 के एनडीसी योजनाओं को मजबूती से लागू करने की बात कही गई थी, लेकिन उस दिशा में महत्वपूर्ण कदम नहीं उठाए गए हैं. साथ ही, कई देशों ने 2050 तक शून्य उत्सर्जन तक पहुंचने की जो योजना बनाई है वे भी ‘विश्वसनीय नहीं' हैं.

इस बीच, यूक्रेन में हो रहे युद्ध और इस वजह से पैदा हुई ऊर्जा संकट भी आंशिक तौर पर इसके लिए जिम्मेदार है. यूएनईपी की रिपोर्ट में इसे ‘बर्बाद वर्ष' कहा गया है.

क्राइस्टेंसन ने कहा कि यूरोपीय संघ के देशों ने ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करने और रूसी गैस पर अपनी निर्भरता कम करने के लिए कोयला और आयातित तरल प्राकृतिक गैस के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया है, जिनसे काफी ज्यादा प्रदूषण फैलता है. हालांकि, यह फैसला थोड़े समय के लिए किया गया है,

लेकिन इससे जलवायु को काफी ज्यादा नुकसान होगा. इस नुकसान से बचने के लिए यूरोपीय संघ को जल्द से जल्द नवीकरणीय ऊर्जा के स्रोतों पर स्विच करना होगा.

उन्होंने आगे बताया कि तापमान में वृद्धि की वजह से कोरल रीफ और ध्रुवीय बर्फ की चादरों के नुकसान की भरपाई जल्द नहीं हो पाएगी, भले ही तापमान फिर से कम हो जाए. जलवायु परिवर्तन की वजह से पाकिस्तान जैसे कमजोर देशों पर काफी ज्यादा असर हो रहा है. हाल में पाकिस्तान में आई भीषण बाढ़ ने लाखों लोगों को प्रभावित किया. वहीं, यूरोप भी जलवायु परिवर्तन के असर से अछूता नहीं रहा. पिछले एक साल में इस महाद्वीप ने भीषण बाढ़ और सूखा दोनों झेला है.

क्राइस्टेंसन कहते हैं, "हमें जितना संभव हो, 1.5 डिग्री सेल्सियस के करीब बने रहने की जरूरत है. हालांकि, यह एक बड़ी चुनौती है. यह रिपोर्ट उस खतरे के निशान को दिखाती है कि हम अपने लक्ष्य हासिल करने के रास्ते पर कहीं भी नहीं हैं.”

सामाजिक स्तर पर बदलाव की जरूरत

यूएनईपी की रिपोर्ट के लेखकों ने बताया कि जलवायु लक्ष्यों को हासिल करने की नीतियों को लागू करने में सरकारें लगभग असफल रही हैं. साथ ही, लेखकों ने उन समाधानों की भी चर्चा की है जिन्हें एंडरसन ‘सामाजिक स्तर के बदलाव' के तौर पर बताती हैं.

इनमें बिजली आपूर्ति, उद्योग, परिवहन, इमारतों और खाद्य प्रणालियों का डीकार्बोनाइजेशन शामिल है. एंडरसन ने कहा, "वित्तीय प्रणालियों में भी सुधार करना होगा, ताकि इन बदलावों को लागू करने के लिए धन की कमी न हो.”

वहीं, क्राइस्टेंसन ने कहा, "ये बदलाव सभी देशों में सभी क्षेत्रों में करने होंगे. हालांकि, इनमें राष्ट्रीय योगदान और परिस्थितियां भी दिखनी चाहिए.”

वैश्विक स्तर के इस बदलाव में अमीर देशों को मदद करने की जरूरत है, ताकि कोयला का उत्पादन और इस्तेमाल करने वाले इंडोनेशिया या दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों को अत्यधिक प्रदूषण फैलाने वाले जीवाश्म ईंधनों से छुटकारा मिल सके. साथ ही, वहां के लोगों के जीवन और आजीविका की रक्षा की जा सके.

1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य के करीब बने रहना
1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य के करीब बने रहनातस्वीर: picture alliance/dpa/AP Photo/M. Meissner

क्राइस्टेंसन के मुताबिक, इस बदलाव की सफलता के लिए नवीकरणीय ऊर्जा के स्रोत के इस्तेमाल को तेजी से बढ़ाना होगा और उसी अनुपात में जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल को कम करना होगा.

उन्होंने कहा, "ऊर्जा के अन्य स्रोतों की तुलना में नवीकरणीय ऊर्जा के स्रोतों में निवेश काफी ज्यादा बढ़ रहा है. कोयला पर निर्भर भारत और चीन जैसे देश कोयला से चलने वाले नए बिजली संयंत्रों को स्थापित करने की योजना रद्द कर रहे हैं.”

उन्होंने आगे कहा, "यूक्रेन युद्ध और जीवाश्म ईंधन की बढ़ती कीमतों की वजह से नवीकरणीय ऊर्जा के स्रोतों के इस्तेमाल के लिए किए जा रहे बदलाव और तेज हो सकते हैं, क्योंकि सभी देश ऊर्जा को लेकर दूसरे देशों पर अपनी निर्भरता कम करने का प्रयास कर रहे हैं.” अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी ने भी

रिपोर्ट में अनुमान जताया कि यूक्रेन युद्ध की वजह से ग्रीन एनर्जी ट्रांजिशन तेज हो सकता है.

यूएनईपी की रिपोर्ट में कहा गया है कि स्वच्छ ऊर्जा के विस्तार से उद्योग, परिवहन, और घरों को वातानुकूलित रखने के लिए बिजली का इस्तेमाल किया जा सकेगा. इससे एक बड़े क्षेत्र में बदलाव होगा. फिलहाल, इन क्षेत्रों में जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल होता है.

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इसी तरह खाद्य प्रणाली में बड़े स्तर पर बदलाव की जरूरत है, क्योंकि यह वैश्विक स्तर पर होने वाले एक तिहाई उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है. यूएनईपी के शोधकर्ताओं के मुताबिक, भोजन में भी बदलाव करने की जरूरत है, ताकि ग्रीनहाउस गैसों का ज्यादा उत्सर्जन करने वाले मांस और अन्य डेयरी प्रोडक्ट के इस्तेमाल को कम किया जा सके. साथ ही, खाने की बर्बादी को रोकना होगा और खाद्य-आपूर्ति श्रृंखलाओं का डीकार्बोनाइजेशन करना होगा.

इस तरह के बदलावों से 2050 तक खाद्य प्रणाली से होने वाले उत्सर्जन मौजूदा स्तर की तुलना में एक-तिहाई तक कम हो सकते हैं. अगर ऐसा नहीं किया जाता, तो यह उत्सर्जन मौजूदा स्तर की तुलना में दोगुना हो जाएगा.

मेडिकल जर्नल द लांसेट में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक, यह बदलाव जीवाश्म ईंधन की वजह से होने वाले जलवायु परिवर्तन के कारण स्वास्थ्य पर पड़ रहे असर से सीधे तौर पर जुड़ा हुआ है.

यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन में लांसेट काउंटडाउन की कार्यकारी निदेशक मरीना रोमानेलो ने कहा, "परिवार अस्थिर जीवाश्म ईंधन बाजार, ऊर्जा संकट और वायु प्रदूषण के खतरनाक स्तर की चपेट में हैं. जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता जारी रहने से ‘स्वास्थ्य पर और ज्यादा बुरा असर होगा.'

क्या कॉप 27 उत्सर्जन की खाई को पाटने में मददगार साबित होगा?

कॉप 26 की सिफारिशों के बाद, मिस्र में इस महीने होने वाले जलवायु सम्मेलन में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती के लिए ठोस कदम उठाए जाने पर सहमति बनने की उम्मीद है. सम्मेलन में इस बात पर विचार किया जाएगा कि जलवायु संवेदनशील देशों में चरम मौसम के कारण हुए नुकसान और क्षति के लिए भुगतान कैसे किया जाए. उदाहरण के लिए, उप-सहारा अफ्रीका जैसे क्षेत्र कम उत्सर्जन के बावजूद जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा असर झेलते हैं.

हालांकि, उत्सर्जन की खाई को पाटने और 2030 के जलवायु लक्ष्यों को पूरा करना भी जरूरी है. एंडरसन का कहना है, "2030 तक ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन को आधा करना और वैश्विक अर्थव्यवस्था में सुधार करना बड़ा लक्ष्य है और कुछ लोग इसे असंभव भी कहेंगे. हालांकि, हमें अपनी कोशिशें जारी रखनी चाहिए. तापमान में थोड़ा बदलाव भी कमजोर समुदायों, जीव-जन्तुओं, पारिस्थितिक तंत्र और हम में से हर एक के लिए मायने रखता है.”

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