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जलवायु परिवर्तन से गहराता जा रहा है सूखे का संकट

१० नवम्बर २०२३

एक नए शोध में पता चला है कि पश्चिम एशिया में तीन साल लंबा सूखा जलवायु परिवर्तन की वजह से पड़ा था. यह शोध गंभीर सबक देता है.

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सीरिया में सूखा
तेल, गैस और कोयला जलाने से तापमान में हुई वृद्धि से सीरिया और इराक में सूखे की आशंका 25 गुना ज्यादा बढ़ गतस्वीर: Rami Alsayed/NurPhoto/picture alliance

सीरिया, इराक और ईरान जलवायु परिवर्तन के चलते गंभीर सूखे की चपेटमें आए. हाल ही में प्रकाशित एक स्टडी में वैज्ञानिकों ने यह नतीजा निकाला है. 2020 से, इस इलाके में बहुत ही कम बारिश हुई और गर्मी लगातार कायम रही. जिसकी वजह से सूखा पड़ा और लाखों लोग विस्थापित हुए, फसल बर्बाद हुई और खाद्य असुरक्षा बढ़ गई. मौसमी प्रचंडताओं में जलवायु परिवर्तन की भूमिका की छानबीन करने वाले अकादमिक सहयोग समूह, वर्ल्ड वेदर एट्रीब्यूशन (डब्लूडब्लूए) से जुड़े शोधकर्ताओं ने सीरिया और इराक के अलावा ईरान तक फैले दजला-फरात बेसिन में सबसे ज्यादा सूखाग्रस्त इलाकों का अध्ययन किया.

सीरिया में सूखा
शोधकर्ताओं ने पाया है कि पश्चिम एशियाई देशों में सूखे की वजह जलवायु परिवर्तन हैतस्वीर: Rami Alsayed/NurPhoto/picture alliance

अध्ययन में पाया गया कि जीवाश्म ईंधन- खासतौर पर तेल, गैस और कोयला जलाने से तापमान में हुई वृद्धि से सीरिया और इराक में सूखे की आशंका 25 गुना ज्यादा बढ़ गई. ईरान में ये आशंका 16 गुना ज्यादा पाई गई. सूखे को बदतर बनाने में भी इस वृद्धि का हाथ था. अमेरिका के सूखा निगरानी पैमाने पर प्रभावित इलाकों में पड़ने वाला सामान्य सूखा एक प्रचंड सूखे में तब्दील होता गया. ऊंचा तापमान मिट्टी और पौधों से पानी को ज्यादा वाष्पीकृत करता है. लेकिन इलाके में बारिश के बदलावों के पीछे जलवायु परिवर्तन जिम्मेदार नहीं दिखा.

अमेजन में सूखा
तस्वीर: Bruno Kelly/REUTERS

प्रभावित इलाकों के अध्ययन में कमी

इंपीरियल कॉलेज लंदन में ग्रंथम इंस्टीट्यूट ऑफ क्लाइमेट चेंज एंड एनवायरमेंट से जुड़े और इस रिपोर्ट के सह-लेखक बेन क्लार्क का कहना है कि उनका शोध, असहाय लेकिन कम पड़ताल कए गए इलाकों मे जलवायु परिवर्तन के प्रभावोंपर महत्वपूर्ण प्रकाश डालता है. उन्होंने डीडब्लू से कहा, "ये दरअसल हैरानी की बात थी, समूचे इलाके में गरम होते तापमान के रुझान में इतनी ताकत." उनका कहना है कि अध्ययन के निष्कर्षों का असर, दुबई में कॉप28 नाम से आगामी जलवायु सम्मेलन में, फायदे और नुकसान से जुड़ी बातचीत पर पड़ेगा. इन निष्कर्षों ने क्षेत्रीय स्तर पर अनुकूलन की अहमियत भी दिखाई है.

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वह कहते हैं, "उपलब्ध पानी के लिहाज से खुद को जल्द से जल्द ढालना होगा क्योंकि इन इलाकों पर जारी कब्जे में ये एक बुनियादी बात होगी." खासतौर पर सीरिया के लोगों ने गृह युद्ध की वजह से बड़े पैमाने पर हुए मानव विस्थापन में पानी से जुड़े बहुत से खतरे झेले हैं. जल आपूर्ति के खराब प्रबंधन, तहस-नहस हो चुके बुनियादी ढांचे और युद्ध के हथियार के रूप में पानी पर नियंत्रण के पीड़ित भी वही लोग रहे हैं. इस बीच तुर्की की बांध परियोजनाओं की वजह से फरात नदी के जलस्तर में कमी आई है जिससे सीरिया और इराक में हालात और बिगड़े.

डब्लूडब्लूए के अध्ययन में पाया गया कि भविष्य में, सूखे अक्सर पड़ेंगे. कम से कम दशक में एक बार सीरिया और इराक में दशक में दो बार ईरान में. धरती के और गरम होते जाने से हालात और खराब होंगे. रिपोर्ट के सह-लेखक फ्रीडेरिक ओटो ने एक बयान में कहा,"जब तक हम जीवाश्म ईंधनों को फूंकना बंद नहीं करते, ऐसा सूखा और गहरा होता जाएगा. अगर कॉप28 में दुनिया जीवाश्म ईंथन को फेज आउट करने पर सहमत नहीं होती तो सबका नुकसान होगा - और अधिक संख्या में लोग पानी की किल्लत से जूझेंगे, और ज्यादा किसान विस्थापित होंगे और ज्यादा लोग सुपरबाजारों में और महंगा खाना खरीदेंगे."

क्षेत्रीय सुरक्षा का सवाल

अमेरिका के एक पब्लिक पॉलिसी संगठन, ब्रुकिंग्स इन्स्टीट्यूट के मुताबिक, मध्यपूर्व और उत्तर अफ्रीका जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा खतरे में हैं, खासतौर पर इलाके के कुछ हिस्सों में नाजुक सुरक्षा हालात देखते हुए. ईरान में लू घातक स्तरों पर पहुंच चुकी है. वहां तापमान इस साल 51 डिग्री सेल्सियस तक जा पहुंचा. पानी की कमी से नागरिक असंतोष भड़क उठा, क्षेत्रीय तनाव पैदा हुए और बड़े पैमाने पर आंतरिक विस्थापन हुआ.

डब्लूडब्लूए के पूर्व अध्ययनों ने दिखाया है कि जलवायु परिवर्तन पूरी दुनिया में मौसमी प्रचंडताओं को हवा दे चुका है जैसे भूमध्यसागरीय लू, नाईजीरिया और पश्चिम अफ्रीका में बाढ़, उत्तरी गोलार्ध में सूखा और पाकिस्तान में सैलाब. जीवाश्म ईंधनों को जलाने से धरती पहले ही 1.2 डिग्री सेल्सियस तक गरम हो चुकी है जिससे और ज्यादा मौसमी भीषणताएं सामने आई हैं. आईपीसीसी से जुड़े प्रमुख विशेषज्ञों के मुताबिक तापमान में जरा सा इजाफा,धरती पर मौसमी प्रचंडताओं को और सघन बना देगी.

क्लाइमेट एक्शन ट्रैकर के मुताबिक, देशों ने वैश्विक तापमान को डेढ़ डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने का संकल्प लिया है लेकिन मौजूदा नीतियों के चलते तापमान 2.7 डिग्री सेल्सियत तक बढ़ेगा. विश्व मौसम संगठन का अनुमान है कि दुनिया, अगले पांच साल में कम से कम अस्थायी तौर पर ही सही, संभवतः डेढ़ डिग्री सेल्सियस की हद को पार कर जाएगी.

लेकिन जलवायु परिवर्तन को लेकर समाधान अपने पास है, पर्याप्त कार्रवाई से दुनिया डेढ़ डिग्री के लक्ष्य को अभी भी हासिल कर सकती है. पिछले महीने कॉप पूर्व एक बैठक के दौरान अपने भाषण में संयुक्त राष्ट्र महासचिव अंतोनियो गुटेरास ने ये स्पष्ट कर दिया था. उन्होंने बैठक में आए प्रतिनिधियों से कहा, "वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर ही रोके रखकर- बुरी स्थिति को टालने वाली खिड़की तेजी से बंद हो रही है. लेकिन अभी के लिए खुली जरूर है. यही अत्यधिक महत्वपूर्ण बात है. हमारे पास उपकरण और तकनीक हैं लिहाजा हम कुछ न कर पाने की आड़ नहीं ले सकते."

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