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कानून और न्यायभारत

भारत: क्या नयी न्याय संहिता औपनिवेशिक छाप से परे है

चारु कार्तिकेय
१४ अगस्त २०२३

भारतीय न्याय संहिता अधिनियम के जरिये न्याय व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन लाने की कोशिश की जा रही है. जानकार अभी इसका मूल्यांकन कर रहे हैं लेकिन सवाल उठ रहे हैं कि क्या इससे न्याय व्यवस्था की औपनिवेशिक विरासत का अंत होगा.

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भारत
भारत की पुरानी संसदतस्वीर: Hindustan Times/imago images

नयी न्याय संहिता के जरिये भारतीय न्याय व्यवस्था के तीन प्रमुख स्तंभों को हटा कर नयी व्यवस्था लाई जा रही है. यह तीन स्तंभ हैं भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम.

आईपीसी को 1862 में लागू किया गया था, सीआरपीसी को सबसे पहले 1882 में लाया गया था लेकिन उसे आजादी के बाद एक नए प्रारूप में 1974 में लागू किया गया था और साक्ष्य अधिनियम को 1872 में लागू किया गया था.

नयी व्यवस्था के उद्देश्य

भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम को लोकसभा में प्रस्तुत करने के बाद संसद की स्थायी समिति के पास भेज दिया गया है. मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक सरकार संसद के शीतकालीन सत्र में इसे दोनों सदनों से पारित करा कर लागू करना चाह रही है.

चुंबन पर चेतावनी, सेक्स पर कोड़े

नए अधिनियमों के लागू होने से तीनों पुरानी संहिताएं निरस्त हो जाएंगी. लोकसभा में तीनों अधिनियमों को लाते समय केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा, "2019 में, प्रधानमंत्री मोदी ने हमें कहा कि अंग्रेजी शासन के समय बनाए गए सारे कानूनों पर चर्चा की जानी चाहिए और आज के समय और भारतीय समाज के हित को देखते हुए उनकी समीक्षा की जानी चाहिए."

लेकिन क्या वाकई नयी व्यवस्था पुरानी व्यवस्था में मौजूद अंग्रेजी शासन के समय की मानसिकता की छाप से पीछा छुड़ा पा रही है? तीनों नए अधिनियमों पर अभी चर्चा चल ही रही है, लेकिन कुछ जानकारों ने अपनी राय पेश की है.

पटना स्थित चाणक्य नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के उप-कुलपति प्रोफेसर फैजान मुस्तफा का मानना है कि नए पीनल कोड के उद्देश्य तो तारीफ के काबिल थे लेकिन कोड इन उद्देश्यों को पूरा करता हुआ नजर नहीं आ रहा है.

पुराने प्रावधान भी बरकरार

इंडियन एक्सप्रेस अखबार में छपे एक लेख में मुस्तफा ने लिखा है कि नया पीनल कोड अधिकांश रूप से पुराने कोड में मौजूद परिभाषाओं में सुधार नहीं ला पाया है. मिसाल के तौर पर 'सबवर्सिव' या 'विनाशक गतिविधियों' के लिए सजा का प्रावधान दिया गया है लेकिन किस तरह की गतिविधियां 'सबवर्सिव' मानी जाएंगी यह परिभाषा नहीं दी गई है.

मुस्तफा के मुताबिक इसके अलावा मौत की सजा के प्रावधान को बरकरार रख "बदले" और "निवारण" जैसे 'पुराने' सिद्धांतों को अभी भी संभाल कर रखा गया है. इसके अलावा "मैरिटल रेप" को अभी भी अपराध नहीं घोषित किया गयाहै और नफरती भाषणों को रोकने के लिए भी सुधार नहीं लाये गए हैं.

मुस्तफा लिखते हैं कि साथ ही, ईश-निंदा और मानहानि की सजा देने वाले प्रावधानों को भी बरकरार रखा गया है, जबकि उन्हें हटा दिया जाना चाहिए था. नए अधिनियमों में राजद्रोह को लेकर भी काफी चर्चा है, क्योंकि शाह ने संसद में कहा था कि इसे पूरी तरह से न्याय व्यवस्था से हटा दिया गया है.

लेकिन जानकारों का मानना है कि राजद्रोह की सजा देने वाले पुराने कानून की जगह एक नए कानून ने ले ली है जो पुराने कानून से भी ज्यादा खतरनाक है. आर्टिकल 14 डॉट कॉम की डेटाबेस एडिटर और अधिवक्ता लुभ्यथी रंगराजन मानती हैं कि यह उदाहरण बड़े स्पष्ट रूप से दिखाता है कि सरकार अंग्रेजी कानून के मुकाबले कुछ भी नया लेकर नहीं आई है.

कुछ नए प्रावधान ज्यादा खतरनाक

रंगराजन ने एक लेख में दावा किया है राजद्रोह की जगह जो कानून लाया गया है उसकी "अस्पष्टता, विधायी इरादा और सजा पुराने कानून के मुकाबलेऔर ज्यादा कठोर हैं." उनके मुताबिक सबसे बड़ा बदलाव यह है कि "सरकार" के खिलाफ असंतोष फैलाने की जगह "देश" के खिलाफ असंतोष लिख दिया गया है, यानी सरकार की जगह देश ने ले ली है.

रंगराजन लिखती हैं कि सुप्रीम कोर्ट दो टूक कह चुका है कि राजद्रोह अस्पष्ट कानून है लेकिन नए कानून से भी अस्पष्टता को हटाया नहीं गया है. इसके अलावा अधिवक्ता, सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री कपिल सिबल का कहना है कि सरकार तीनों नए अधिनियमों के जरिये "तानाशाही लाना" चाहती है.

सिबल ने एक प्रेस वार्ता में कहा कि एनडीए सरकार "ऐसे कानून बनाना चाहती है जिनके तहत सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों, मजिस्ट्रेट, सीएजी और अन्य सरकारी अधिकारियों के खिलाफ भी कार्रवाई की जा सके."