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समाज

भारत पर मेरे दोस्त अब्दुल्ला का भरोसा बरकरार रहे

विवेक कुमार
२६ अगस्त २०२१

भारत के विदेश मंत्री ने कहा कि अफगानिस्तान के हिंदू और सिखों को मदद उनकी प्राथमिकता होगी. और जो हिंदू या सिख नहीं हैं, उनकी मदद?

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तस्वीर: IANS

अब्दुल्ला मेरा पूर्व सहकर्मी और दोस्त है. भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का बड़ा प्रशंसक है. बताता रहता था कि उसके देश अफगानिस्तान में मोदी के बहुत फैन हैं. कारण दिलचस्प था कि वहां के लोग मानते हैं कि नरेंद्र मोदी पाकिस्तान को खींचकर रखते हैं, इसलिए लोग उन्हें मानते हैं. नागरिकता कानून में संशोधन पर हुए आंदोलन और बीजेपी से जुड़े लोगों के मुस्लिम विरोधी बयानों पर आने वाली रिपोर्टों पर अब्दुल्ला को हैरत जरूर होती थी लेकिन पाकिस्तान के प्रति उसकी चिढ़ इस हैरत पर हावी रहती.

फिर तालिबान आ गया. काबुल पर उसका कब्जा हो गया. लाखों लोग वहां से भागना चाहते हैं. भारत के प्रति प्रेम के चलते उनकी उम्मीद भरी निगाहें दिल्ली पर थीं. पिछली बार जब तालिबान आया था, तब भी हजारों लोग भारत चले गए थे. लेकिन इस बार का भारत अलग है. हिंदुओं और सिखों को प्राथमिकता देने वाले भारत के विदेश मंत्री के ट्वीट पर छिड़ी बहस ने विदेशों में रहने वाले भारत समर्थकों को भी उलझन में डाला है. पिछले सालों में आर्थिक और राजनैतिक रूप से प्रभावशाली हुए भारत से उनकी उम्मीदें लगी हैं. अब्दुल्ला ने भी यह ट्वीट देखा तो परेशान हुआ क्योंकि उसके बहुत से रिश्तेदार उन लोगों में शामिल थे जो भारत की ओर देख रहे हैं.

बीजेपी के बयानों में हिंदू

बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने उत्तराखंड में कहा कि हर किसी ने देखा कि कैसे अफगानिस्तान के लोग वहां से निकालने की मांग कर रहे थे. उन्होंने कहा, ‘लेकिन हमने वही मुद्दा उठाया था. अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश के हमारे सिख और हिंदू भाई जिन्होंने भारत में शरण ली थी, लेकिन उन्हें संवैधानिक सुरक्षा नहीं मिली थी और कई वर्षों तक सुविधाओं से वंचित रहे. उनका शोषण किया जा रहा था. नरेंद्र मोदी सरकार उन्हें नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के जरिये मुख्यधारा में लेकर आयी.'

इससे पहले केंद्रीय पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने भी नागरिकता संशोधन कानून को बहुत जरूरी बताया. पुरी ने एक ट्वीट में लिखा, ”हमारे अस्थिर पड़ोस में (अफगानिस्तान) हाल के घटनाक्रम और हिंदू व सिख समुदाय के लोग जिस तरह के दुखदायी वक्त से गुजर रहे हैं, यह बताते हैं कि नागरिकता संशोधन कानून बनाना  क्यों जरूरी था.”

सरकार और पार्टी में फर्क

पार्टी के तौर पर बीजेपी अफगानिस्तान के मुद्दे पर पार्टी हित में बयान में दे सकती है लेकिन इलाके की शक्ति के रूप में भारत के मंत्रियों का बयान उसकी अंतरराष्ट्रीय हैसियत के अनुरूप होना चाहिए. फिर भी अफगानिस्तान की मौजूदा स्थिति को सीएए के साथ जोड़ना प्रधानमंत्री के अंतरराष्ट्रीय कद के अनुकूल नहीं है. भारत इस समय सुरक्षा परिषद का अध्यक्ष है और अफगान लोगों के साथ अंतरराष्ट्रीय समुदाय भारत से नेतृत्व की उम्मीद कर रहा है.

हिंदू और सिखों की तरह अफगानिस्तान के तरक्कीपसंद मुसलमान भी इस वक्त मौत के खौफ तले जी रहे हैं. मुसलमानों को तो सिर्फ बंदूक की नोक दिखाई गई है. ऐसे वक्त में क्या धर्म देखकर मदद करने की बात कहना भारत की ओर से सही संदेश देता है?

भारत एक विश्व शक्ति बनना चाहता है. लगातार बढ़ती आर्थिक क्षमता ने उसे इस जगह पहुंचा दिया है जहां उसकी मदद के बिना अंतरराष्ट्रीय मसलों का हल संभव नहीं. वह सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्यता का दावेदार है. नेतृत्व दिखाने के मौकों पर उसे विश्व शक्ति की उदारता का परिचय भी देना चाहिए. जब ब्रिटेन ने कहा कि वह ज्यादा अफगानों को मदद देगा, जब जर्मनी ने कहा कि वह अफगानों की मदद करेगा, तब दुनिया में भारत का ये संदेश गूंज रहा है कि वह हिंदू और सिखों की मदद करेगा.

धार्मिक कट्टरता पर नजर

विदेशों में लोग भारत में धर्म के नाम पर लिए जा रहे राजनीतिक फैसलों पर भी ध्यान देते हैं. पश्चिमी लोकतंत्र में धार्मिक कट्टरता, पॉपुलिज्म और निरंकुश रवैये के प्रति एक तरह का परहेज हमेशा रहता है, फिर चाहे वह तुर्की के एर्दोआन हों या रूस के पुतिन. जिन नेताओं पर अलोकतांत्रिक होने का ठप्पा लग जाता है, धार्मिक रूप से कट्टर होने का ठप्पा लग जाता है, उनकी स्वीकार्यता घटने लगती है.

भारत इस समय विदेशनीति के क्षेत्र में अभूतपूर्व चुनौतियों का सामना कर रहा है. अमेरिका से करीबी ने उसके लिए नई संभावनाएं खोली हैं तो परंपरागत समर्थक रहे रूस से दूर भी कर दिया है. अफगानिस्तान में तालिबान के आने से रूस-चीन-पाकिस्तान की नई धुरी बनती दिख रही है जो मिलकर अफगानिस्तान में फैसले लेने की स्थिति में है जबकि अरबों निवेश करने के बावजूद भारत भावी अफगानिस्तान का भविष्य तय करने के मामले में बाहर दिख रहा है. तालिबान के पिछले शासन के दौरान हुए अनुभवों ने भारत के नीति निर्माताओं को उलझन में डाल रखा है.

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अपने पहले कार्यकाल में नरेंद्र मोदी ने देश देश घूमकर भारत को जो दर्जा दिलाने की कोशिश की है उसका प्रभाव पश्चिमी देशों के फैसलों में भी दिखे, उसके लिए देश में सामाजिक स्थिरता जरूरी है. ऐसे में अगर राष्ट्रीय बहस में मानवाधिकारों का उल्लंघन, धार्मिक कट्टरता और एक धर्म के लोगों को तरजीह दिए जाने जैसी बातें हावी रहें तो जाहिर है कि भारत की एक लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष देश की छवि को धक्का पहुंचता है. अगर भारत दुनिया में ज्यादा बड़ी भूमिका निभाना चाहता है तो सिर्फ लाभ की फिक्र छोड़कर उसे जिम्मेदारियां भी उठानी होंगी. उसे ये भरोसा दिलाना होगा कि दुनिया को जब जरूरत होगी तब वो आगे बढ़कर लोगों की मदद करने के लिए तैयार होगा और यह मदद किसी धर्म, रंग या नस्ल आदि के आधार पर नहीं इंसानियत के आधार पर होगी.

उसे यह भी सुनिश्चित करना होगा कि अब्दुल्ला अगर अब तक भारत से प्यार करता रहा है तो वह प्यार बरकरार रहे.

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