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अपराधभारत

क्यों ना लगे डर दिल्ली से

चारु कार्तिकेय
४ जनवरी २०२३

क्या कहा जा सकता है ऐसे शहर के बारे में जहां जश्न की एक रात में अपने नीचे एक इंसान को फंसाए एक गाड़ी घंटों घूमती रहती है और 18,000 पुलिसकर्मियों की नजर से बच जाती है? आपको इस शहर का नाम ना बताया जाए तो आप क्या सोचेंगे?

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दिल्ली
दिल्ली में पुलिस पर सवालतस्वीर: Sajjad Hussain/AFP/Getty Images

हाल ही में चेन्नई में काम करने वाली मेरी एक सहयोगी दो दिनों के लिए दिल्ली आई थीं. पहले दिन जब हम दफ्तर में साथ थे तो शाम होते होते मैंने उनमें अपने होटल लौट जाने की बेचैनी देखी. दिल्ली टीम के साथी काम के बाद बाहर घूमने जाना चाहते थे, लेकिन हमारी चेन्नई वाली सहयोगी वापस होटल जाना चाहती थीं.

उन्होंने हमें बताया कि चेन्नई में रहने वाले उनके माता-पिता उनकी दिल्ली यात्रा को लेकर बहुत चिंतित हैं. उन्होंने अपनी बेटी को सख्त हिदायत दी है कि वो अंधेरा होने से पहले होटल वापस लौट जाएं. इतना ही नहीं, वो जहां भी जाएं अपनी लोकेशन की जानकारी लगातार उन्हें देती रहें. यहां तक कि जब भी वो टैक्सी में बैठें तो टैक्सी का नंबर और उसकी लाइव लोकेशन भी उन्हें भेज दें.

मुझे अचानक जैसे एक झटका सा लगा. दिल्लीवालों ने तोदिल्ली के हालात से एक तरह से समझौता कर लिया है. शहर में प्रदूषण जानलेवा हो गया है तो भी कोई बात नहीं. हमने दूषित हवा में जीना और मरना सीख लिया. यहां महिलाओं के खिलाफ अपराध बढ़ते जा रहे हैं तो क्या ही किया जा सकता है. बेटियों को पेप्पर स्प्रे पकड़ा कर हम हकीकत के प्रति आंख मूंद लेते हैं.

इन आंखों से नहीं बच पाते अपराधी

हम रिपोर्टर तो आम लोगों से भी ज्यादा सुन्न हो जाते हैं. हुई होगी किसी के साथ कोई वीभत्स घटना, हमारे लिए तो वो गर्म खबर है. हमें तो इंतजार रहता है ऐसी घटनाओं के होने का. हम दौड़ दौड़ कर उस घटना से जुड़ी एक एक खबर निकाल कर लाएंगे. उसे परत दर परत उधेड़ेंगे.

बदल चुका है शहर

और निरंतर यही करते करते हमें कहां इस बात का पता चल पाता है कि हमारा शहर अब क्या हो गया है. चेन्नई वाली अपनी सहयोगी की बातें सुन कर मुझे अचानक एहसास हुआ कि दिल्ली से बाहर रहने वाले लोगों के मन में दिल्ली की कैसी छवि बन गई है.

दिल्ली अब महिलाओं के लिए असुरक्षित नहीं, बल्कि खतरनाक हो चुकी है. दिल्ली के कंझावला इलाके में नए साल के पहले दिन कई किलोमीटर तक गाड़ी में फंसी और सड़कों पर घिसटती हुई उस महिला की लाश ने इसी बात को एक बार फिर साबित कर दिया है.

उस रात इस घटना से ठीक पहले दिल्ली पुलिस के कमिश्नर ने लोगों को आने वाले नए साल के लिए शुभकामनाएं देते हुए एक वादा किया था. ट्विटर के माध्यम से उन्होंने "'सुरक्षित दिल्ली' के ध्येय के प्रति दिल्ली पुलिस की प्रतिबद्धता को" फिर से दोहराया था और आश्वासन दिया था कि "नए साल की पूर्वसंध्या पर आपकी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए दिल्ली पुलिस ने पर्याप्त बंदोबस्त किए हैं."

कमिश्नर ने विशेष रूप से भरोसा दिलाया था कि "महिला सुरक्षा सर्वोच्च प्राथमिकता के साथ पर्याप्त पुलिसकर्मी हर जगह मुस्तैद रहेंगे." कंझावला की घटना ने इन वादों को ना सिर्फ खोखला साबित किया है बल्कि उनकी धज्जियां उड़ा दी हैं.

क्या असहाय है पुलिस?

दिल्ली पुलिस में 76,000 पुलिसकर्मी काम करते हैं. मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक उस रात उनमें से कम से कम 18,000 पुलिसकर्मी शहर की सड़कों पर तैनात थे. 1,600 नाके बनाए गए थे. पुलिस की 1,200 गाड़ियां और कम से कम 2,000 मोटरसाइकिलें गश्त लगा रही थीं.

इसके बावजूद एक गाड़ी में सवार पांच लोग गाड़ी के एक्सल में फंसी एक महिला को कम से कम 10 किलोमीटर की दूरी तक करीब डेढ़ घंटे तक घसीटते रहे. पुलिस की माने तो 1,600 नाकों पर तैनात, 1,200 गाड़ियों और 2,000 मोटरसाइकिलों में गश्त लगा रहे उसके 18,000 कर्मियों में से एक ने भी इस वीभत्स घटना को नहीं देखा.

क्या कहा जा सकता है ऐसे शहर के बारे में जहां जश्न की एक रात में अपने नीचे एक इंसान को फंसाए एक गाड़ी घंटों घूमती रहती है और 18,000 पुलिसकर्मियों की नजर से बच जाती है? अगर आपको इस शहर का नाम ना बताया जाए तो आप क्या सोचेंगे?

"कोई वीरान शहर होगा. हम तो कभी नहीं जाएंगे ऐसे शहर." हो सकता है चेन्नई में रहने वाली मेरी सहयोगी के परिवार ने भी शायद कभी ऐसी ही कोई खबर देखी हो और दिल्ली को लेकर उनके मन में डर बैठ गया हो. पर क्या ये डर गलत है? कोई क्यों ना डरे दिल्ली से?