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राजनीतिऑस्ट्रेलिया

ऑस्ट्रेलिया चुनावों में भारतीयों को लुभाना चाहते हैं सारे दल

विवेक कुमार
१० मई २०२२

ऑस्ट्रेलिया में चुनाव हो रहे हैं और सारे दलों के नेता भारतीय मंदिरों में मत्थे टेक रहे हैं. इन चुनावों में हर दल भारतीयों को लुभाने में लगा है.

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ऑस्ट्रेलिया चुनाव और भारतीय समुदाय
ऑस्ट्रेलिया चुनाव और भारतीय समुदायतस्वीर: Vivek Kumar/DW

ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन को अपनी एक सोशल मीडिया पोस्ट पर बहुत फख्र है. देश के आप्रवासन मंत्री ऐलेक्स हॉक के मुताबिक मॉरिसन अपनी ‘स्कोमोसा' वाली सोशल मीडिया पोस्ट को लेकर बहुत खुश रहते हैं.

दरअसल, स्कॉट मॉरीसन को अक्सर स्कोमो कहा जाता है. भारतीय खाने के शौकीन स्कोमो ने एक बार समोसे बनाए और उन्हें स्कोमोसा नाम दिया. यह नाम इतना चर्चित हुआ कि ट्विटर पर कई दिन तक लोग इसके बारे में चर्चा करते रहे. यहां तक कि भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इस ट्वीट का जवाब दिया. उसके बाद से तो स्कोमो यानी स्कॉट मॉरीसन लगभग हर महीने अपनी रसोई में कोई ना कोई भारतीय व्यंजन पकाते हैं और उसकी तस्वीरें सोशल मीडिया पर डालते हैं. 

लेकिन बहुत से लोग सोशल मीडिया पर भारतीय खाने की चर्चा को स्कोमो की राजनीति का हिस्सा मानते हैं.ऑस्ट्रेलिया में रहने वाले लोग अक्सर सोशल मीडिया पर टिप्पणियां करते हैं कि यूं भारतीय खाने और चीजों के प्रति प्यार दिखाकर स्कॉट मॉरीसन भारतीय मूल के वोटरों को लुभाने की कोशिश कर रहे हैं. पर ऐसा करने वाले वह अकेले राजनेता नहीं हैं. 

ऑस्ट्रेलिया में 21 मई को आम चुनाव हैं. अर्ली-वोटिंग यानी मतदान-पूर्व-मतदान पहले ही शुरू हो चुका है और लोगों ने वोट डालना शुरू भी कर दिया है. इस दौरान चुनाव प्रचार भी जोरों पर है और भारतीय मूल के वोटरों को लुभाने के लिए राजनेताओं में एक तरह की होड़ मची हुई है.  

भारतीयों का आकार 

द ह्यूमनिजम प्रोजेक्ट नाम से एक मानवाधिकार संस्था के संस्थापक और भारतीय मूल के डॉक्टर हारून कासिम करीब दो दशक से ऑस्ट्रेलिया में रह रहे हैं और दर्जनों राज्य और संघीय चुनाव देख चुके हैं. वह कहते हैं कि भारतीय समुदाय ऑस्ट्रेलिया का दूसरा सबसे बड़ा आप्रवासी समुदाय बन गया है, जिसने इसकी अहमियत को बढ़ा दिया है. 

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ऑस्ट्रेलिया में आप्रवासियों यानी किसी और देश से आकर बसे लोगों की संख्या पिछले कुछ सालों में तेजी से बढ़ी है. 2016 में हुई पिछली जनगणना के मुताबिक एक चौथाई से ज्यादा ऑस्ट्रेलियाई नागरिकों का जन्म विदेश में हुआ. लगभग 70 प्रतिशत लोग ऐसे हैं जिनके माता या पिता में से कोई एक विदेश में जन्मा है. इन विदेश में जन्मे और ऑस्ट्रेलिया के नागरिक बन गए लोगों में भारतीयों की दूसरे सबसे अधिक है. 

भारतीय मूल के लोगों को संबोधित करते ग्रीन्स नेता डेविड शूब्रिज
भारतीय मूल के लोगों को संबोधित करते ग्रीन्स नेता डेविड शूब्रिजतस्वीर: Vivek Kumar/DW

देश के सांख्यिकीय ब्यूरो के ताजा आंकड़े कहते हैं कि 2021 में भारतीय मूल के ऑस्ट्रेलियाई लोगों की संख्या 7,10,000 पर पहुंच गई थी. दस साल पहले यानी 2011 में यह संख्या इसकी लगभग आधी यानी 3,73,000 हुआ करती थी. इस तरह भारतीयों ने आप्रवासी समुदायों के मामले में इंग्लैंड को छोड़कर बाकी सभी देशों को पीछे छोड़ दिया है. 

नेताओं में होड़ 

पिछले एक हफ्ते में सिडनी के पश्चिमी उपनगर पैरामाटा में दोनों मुख्य दलों लेबर और लिबरल पार्टी के उम्मीदवार भारतीय मूल के उद्योगपतियों के साथ बैठकें कर चुके हैं. बीते शुक्रवार लेबर पार्टी के उम्मीदवार ऐंड्रू शार्ल्टन ने पैरामाटा में लंदन, कुआलालम्पुर या सिंगापुर की तर्ज पर ‘लिटल इंडिया' बनाने के लिए धन देने का वादा किया तो सोमवार को लिबरल पार्टी की उम्मीदवार मरिया कोवाचिच ने भारतीय उद्योगपतियों की संघ के साथ बैठक की और उनका समर्थन मांगा. 

दरअसल, पैरामाटा में भारतीय मूल के आप्रवासियों की घनी आबादी है. यहां तक कि 2018 में भारत के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ऑस्ट्रेलिया की यात्रा पर आए थे तो पैरामाटा गए थे और वहां अपने भाषण में उन्होंने पैरामाटा को ‘ऑस्ट्रेलिया में भारत माता' बताया था. लिहाजा, सभी पार्टियों के बीच भारतीय मूल के वोटरों को लेकर उत्साह होना लाजमी है. यही स्थिति मेलबर्न शहर की ला ट्रोब सीट पर है, जहां बड़ी संख्या में भारतीय मूल के लोग रहते हैं. 

लेकिन बात सिर्फ यहीं नहीं रुकती. भारतीय वोटरों को लुभाने के लिए उम्मीदवार मंदिर-गुरुद्वारों के चक्कर भी लगा रहे हैं. प्रधानमंत्री और लिबरल पार्टी के नेता स्कॉट मॉरिसन ने बीते दिनों में कई मंदिरों और गुरुद्वारों में माथा टेका है. वह बिना नागा हर भारतीय त्योहार पर वीडियो संदेश जारी कर भारतीय समुदाय को बधाई देते हैं और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ अपनी दोस्ती का जिक्र करते रहते हैं. 

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इसी तरह विपक्ष के नेता और लेबर पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद के दावेदार एंथनी अल्बानीजी भी कई मंदिरों और गुरुद्वारों में जा चुके हैं. उन्होंने हाल ही में हिंदू संगठनों के नेताओं से भी मुलाकात की और भारत व भारतीय मूल के लोगों की जमकर तारीफ की. 

अन्य उम्मीदवारों ने भी भारतीय मेलों, समारोहों और उत्सवों में खूब बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया है. सिडनी में हुए वैशाखी मेले में बड़ी संख्या में मंत्री और बड़े नेता पहुंचे थे. सिडनी की ग्रीनवे सीट पर लिबरल उम्मीदवार प्रदीप पाठी ने वैशाखी मेले में हिस्सा लेने के बाद लिखा कि यह "पंजाबी संगीत सेंटर द्वाराबहुत अच्छी तरह प्रबंधित वैशाखी मेला था और इस मेले का आमंत्रण पाकर मैं सम्मान महसूस कर रहा हूं.” 

बढ़ती दिलचस्पी की वजह? 

कई विशेषज्ञ मानते हैं कि भारतीयों का बढ़ता आकार उनके प्रति दिलचस्पी की बड़ी वजह है. लेकिन कुछ लोग भारत के साथ बेहतर होते ऑस्ट्रेलिया के संबंधों को भी इसकी वजह मानते हैं. पैरामाटा में आयोजित कार्यक्रम में आप्रवासन मंत्री ऐलेक्स हॉक ने कहा कि भारत के साथ हुआ व्यापार समझौता ‘मुक्त व्यापार समझौतों का होली ग्रेल' है. 

उन्होंने कहा, "भारत दुनिया की अगली सबसे बड़ी ताकत है. इस बात को दुनिया जानती है और हर देश भारत के साथ मुक्त व्यापार समझौता करना चाह रहा है. हमने यह समझौता कर लिया है. हम उम्मीद करते हैं कि इससे भारत के साथ हमारा व्यापार और तेजी से बढ़ेगा.” 

मार्च महीने में ही भारत और ऑस्ट्रेलिया ने ‘एकता समझौते' पर हस्ताक्षर किए हैं जिससे पांच साल में दोनों देशा के बीच व्यापार 27.5 अरब डॉलर यानी लगभग 20 खरब रुपये के मौजूदा स्तर से बढ़कर 45-50 अरब डॉलर होने की उम्मीद जताई जा रही है. सत्ता पक्ष यानी लिबरल गठबंधन जमकर इस समझौते का प्रचार कर रहा है और भारतीय समुदाय इस प्रचार के विशेष निशाने पर है. 

लेकिन डॉ. हारून कासिम भारतीय समुदाय में राजनेताओं की बढ़ती दिलचस्पी की एक और वजह देखते हैं. वह कहते हैं कि भारत का आकार तो बढ़ा ही है, साथ ही धन भी बढ़ा है. वह बताते हैं, "भारत के आप्रवास आर्थिक पायदान पर ऊपर की ओर बढ़ते प्रोफेशनल हैं, जिनके पास पैसा भी है. इन लोगों में सूचित करने के अलावा राजनीतिक दलों को धन देने की क्षमता भी है. इसलिए वे लोग सभी राजनीतिक दलों की दिलचस्पी हैं.” 

नीति-निर्माण में हिस्सेदारी का वक्त

सिडनी टेक्नोलॉजी यूनिवर्सिटी (यूटीएस) में के स्कूल ऑफ कम्यूनिकेशन में ऑनरेरी प्रोफेसर देवलीना घोष भी इस बात से इत्तेफाक रखती हैं. वह कहती हैं कि भारतीय आप्रवासी पढ़े लिखे और धनी हैं.

प्रोफेसर घोष कहती हैं, भारत से आप्रवासन बढ़ा है और यहां समुदाय का आकार तेजी से बढ़ रहा है. साथ ही यह भी एक समझ है कि भारतीय आप्रवासी समुदाय शिक्षित और धनी है. अक्सर भारतीय समुदाय को रूढ़िवादी मान लिया जाता है लेकिन ऐसा होना जरूरी नहीं है. दूसरी पीढ़ी के आप्रवासी खासे प्रगतिशील हो सकते हैं.

इस चुनाव में भारती मूल के 25 से ज्यादा उम्मीदवार मैदान में हैं. सत्तारूढ़ गठबंधन ने भारतीय मूल के छह उम्मीदवारों को टिकट दिया है जबकि विपक्षी लेबर ने चार उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं. 14 उम्मीदवार निर्दलीय ही मैदान में हैं जबकि अन्य छोटे दलों से हैं. आप्रवासी विरोधी माने जाने वाली दक्षिणपंथी वन नेशन से भी भारतीय मूल के उम्मीदवार मैदान में हैं.

सिडनी की चीफली सीट पर चुनाव लड़ रहे अमित बातिश कहते हैं कि भारतीय समुदाय में राजनीतिक सक्रियता बढ़ी है, जिसका नतीजा है कि पार्टियां ज्यादा दिलचस्पी ले रही हैं. वन नेशन के न्यू साउथ वेल्स राज्य के नेता स्थानीय विधायक मार्क लैथम आजकल बातिश का प्रचार कर रहे हैं. वह कहते हैं कि अब तक भारतीय समुदाय नीतियां बनाने में सलाह देने वालों में सामिल रहा है लेकिन अब वक्त आ गया है कि उसे नीति-निर्माण में हिस्सेदारी मिले.

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