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नहीं थम रहा राजद्रोह कानून का इस्तेमाल

प्रभाकर मणि तिवारी
७ दिसम्बर २०२१

असम में एक न्यूज वेबसाइट पर प्रकाशित लेख के कारण एक पत्रकार पर देशद्रोह का मामला दर्ज हुआ है. भारत की सर्वोच्च अदालत बार बार देशद्रोह का मामला बनाने पर सवाल खड़े कर चुकी है, लेकिन सरकारें ऐसा करने से बाज नहीं आ रही हैं.

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Indien verhaftete Journalisten | Samriddhi K Sakunia  und Swarna Jha
इसी नवंबर में असम की दो महिला पत्रकारों को भड़काऊ ट्वीट करने के आरोप में पुलिस ने हिरासत में ले लिया था. तस्वीर: North East Live/AP/picture alliance

इस साल जुलाई में सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह कानून के दुरुपयोग पर गहरी चिंता जताते हुए केंद्र सरकार से इसे जारी रखने के औचित्य पर सवाल पूछा था. उससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ दर्ज राजद्रोह का मामला रद्द करने का आदेश दिया था. लेकिन बावजूद इसके केंद्र और राज्य सरकारें लगातार इस कानून को अपने हित में इस्तेमाल करती रही हैं. ताजा मामले में असम की बराक घाटी में एक स्थानीय समाचार पोर्टल पर छपे एक संपादकीय के लिए संपादक के खिलाफ देशद्रोह का मामला दर्ज किया गया है. हालांकि गिरफ्तारी के बाद उनको निजी मुचलके पर रिहा कर दिया गया है. लेकिन इस मामले ने पूर्वोत्तर में पत्रकारों के उत्पीड़न के बढ़ते मामलों पर नई बहस छेड़ दी है.

ताजा मामला

असम के सिलचर स्थित एक पत्रकार के खिलाफ कथित आपत्तिजनक लेख के चलते बीते शनिवार को भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए (राजद्रोह) सहित कई धाराओं के तहत मामला दर्ज किया गया था. राज्य के कछार जिले में ‘बराक बुलेटिन' नामक न्यूज पोर्टल चलाने वाले पत्रकार अनिर्बाण रॉय चौधरी को कछार पुलिस ने समन भेजा था. सिलचर निवासी शांतनु सूत्रधर नामक व्यक्ति की शिकायत के आधार पर उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई है.

बीते एक दिसंबर को दायर सूत्रधर की शिकायत में आरोप लगाया गया था कि चौधरी के लेख के कारण असम के बंगाली और असमिया के लोगों का आपसी भाईचारा बिगड़ सकता है. अनिर्बाण को सोमवार को थाने में बुलाया गया था. इस मामले में गिरफ्तारी के बाद उनको निजी मुचलके पर रिहा कर दिया गया है.

पूर्वोत्तर में पत्रकारों के उत्पीड़न का यह पहला या आखिरी मामला नहीं है. इससे पहले मिजोरम में एक नेशनल चैनल की पत्रकार एम्मी सी. लाबेई की भी पुलिस ने पिटाई की थी. वे असम-मिजोरम सीमा विवाद के दौरान हुई हिंसक झड़प की कवरेज के लिए मौके पर  गई थीं. वर्ष 2012 में अरुणाचल टाइम्स की संपादन टोंगम रीना के पेट में गोली मार दी गई थी. लेकिन संयोग से वे बच गई थीं.

इससे पहले इसी साल अगस्त में असम के सूचना व जनसंपर्क निदेशालय ने 'द क्रॉस करंट' नामक एक असमिया न्यूज़ पोर्टल के ख़िलाफ़ निर्दोष व्यक्तियों की छवि ख़राब करने के इरादे से झूठी और मनगढ़ंत जानकारी प्रकाशित करने के आरोप में मामला दर्ज कराया था.

दूसरे राज्यों में भी मामले

पूर्वोत्तर के दूसरे राज्यों में भी ऐसी कई घटनाएं सामने आई हैं. वहां सरकार की आलोचना करने वाले पत्रकारों पर हमले तक हुए हैं. मणिपुर जैसे छोटे राज्य में बीते दो वर्षों में पत्रकारों पर राजद्रोह लगाने के कई मामले सामने आ चुके हैं. वर्ष 2018 में स्थानीय पत्रकार किशोरचंद्र वांगखेम पर मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह पर कथित अपमानजनक टिप्पणी करने के आरोप में राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लगा दिया गया था जिसके बाद उन्हें साढ़े चार महीने जेल में रहना पड़ा. उसके बाद बीती मई में मणिपुर सरकार ने किशोरचंद्र वांगखेम और राजनीतिक कार्यकर्ता एरेन्ड्रो लेचोम्बाम को उनकी एक फेसबुक पोस्ट के लिए गिरफ्तार किया और दोनों पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लगाया गया था.

जनवरी, 2021 में एक अन्य मामले में न्यूज़ पोर्टल 'द फ्रंटियर मणिपुर' के दो संपादकों को चौबीस घंटे से ज्यादा समय तक पुलिस हिरासत में रखा गया था. उनकी रिहाई तब हो पाई जब दोनों ने लिखित ऐसी गलती दोबारा नहीं करने का लिखित भरोसा दिया.

इसी साल मई में एक समूह ने त्रिपुरा के वरिष्ठ पत्रकार समीर धर के आवास को देर रात निशाना बनाया. असेंबली ऑफ़ जर्नलिस्ट नामक संगठन के उपाध्यक्ष समीर धर के घर पर वर्ष 2018 के बाद तीन बार ऐसे हमले हो चुके हैं. उन्हें बार-बार धमकियां भी मिली हैं. वर्ष 2017 में त्रिपुरा में टीवी पत्रकार शांतनु भौमिक की हत्या ने तो पूरे देश में सुर्खियां बटोरी थीं.  उसके बाद राज्य में सुदीप दत्त भौमिक नामक एक अन्य पत्रकार की भी हत्या कर दी गई.

मीडिया अधिकारों के संरक्षण के लिए काम करनेवाली असेंबली ऑफ़ जर्नलिस्ट्स का आरोप है कि बीते छह महीनों में राज्य में कम से कम 28 पत्रकारों पर हमले हो चुके हैं.

त्रिपुरा में बीजेपी के प्रवक्ता नबेंदु भट्टाचार्य ने हाल ही में पत्रकारों से कहा था कि वाम मोर्चा शासन के दौरान पत्रकारों पर अपेक्षाकृत बहुत ज्यादा हमले हुए थे.

चौंकाने वाले आंकड़े

ऐसे मामलों में गिरफ्तारी और उनमें होने वाली सजा के आंकड़े चौंकाने वाले हैं. वर्ष 2014 से 2019 के बीच 326 मामले दर्ज किए गए, जिनमें से महज छह लोगों को सजा दी गई. केंद्रीय गृह मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2014 और 2019 के बीच राजद्रोह कानून के तहत कुल 326 मामले दर्ज किए गए. इनमें से सबसे ज्यादा 54 मामले असम में दर्ज हुए. इन मामलों में से 141 में आरोपपत्र दायर किए गए जबकि छह साल की अवधि के दौरान इस अपराध के लिए महज छह लोगों को दोषी ठहराया गया.

उत्तर प्रदेश में वर्ष 2014 और 2019 के बीच राजद्रोह के 17 और पश्चिम बंगाल में आठ मामले दर्ज किए गए. उत्तर प्रदेश में आठ और पश्चिम बंगाल में पांच मामलों में आरोपपत्र तो दाखिल किए गए. लेकिन दोनों राज्यों में किसी को भी दोषी नहीं ठहराया गया.

इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने बीती जुलाई में राजद्रोह कानून के दुरुपयोग पर गहरी चिंता जताई थी. शीर्ष अदालत ने केंद्र से सवाल किया था कि स्वतंत्रता संग्राम को दबाने के वास्ते महात्मा गांधी जैसे लोगों को ‘‘चुप'' कराने के लिए ब्रिटिश शासनकाल में इस्तेमाल किए गए प्रावधान को समाप्त क्यों नहीं किया जा रहा? उसने यह टिप्पणी धारा 124 ए (राजद्रोह) की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली एक पूर्व मेजर जनरल और एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया की याचिकाओं की सुनवाई के दौरान की थी.

वरिष्ठ पत्रकार तापस मुखर्जी कहते हैं, "खासकर पूर्वोत्तर में पत्रकारों को फूंक-फूंक कर कदम रखना पड़ता है. पता नहीं किस खबर के कारण सरकार की निगाहें टेढ़ी हो जाएं और संबंधित पत्रकार और संपादक को जेल जाना पड़े.”