1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

सोने से महंगी फफूंद खत्म हो रही है

२३ अक्टूबर २०१८

"हिमालयन वियाग्रा" के नाम से विख्यात एक बहुमूल्य कैटरपिलर फफूंद जो बड़ी आसानी से मिल जाती थी अब जलवायु परिवर्तन के कारण दुर्लभ होती जा रही है. नपुंसकता से लेकर कैंसर तक के इलाज के लिए इसे बेचा जाता है.

https://p.dw.com/p/370FE
Himalaya Viagra
तस्वीर: Getty Images/AFP/D. M. Singh

इसकी कीमत सोने से तीन गुना ज्यादा है. चीन और नेपाल के लोग फफूंद के लिए होने वाली लड़ाइयों में जान भी गंवाते रहे हैं. वहां इसे "यारचागुंबा" कहा जाता है, हालांकि आधिकारिक रूप से इसका नाम ओफियोकॉर्डेसेप्स सिनेन्सिस है.

वैज्ञानिक रूप से इसके फायदों की पुष्टि अभी नहीं हुई है लेकिन लोग इसे पानी में उबाल कर चाय बनाते हैं या फिर सूप और स्ट्यू में मिलाते हैं. इस्तेमाल करने वालों का मानना है कि इससे नपुंसकता से लेकर कैंसर तक का इलाज हो सकता है. एक अमेरिकी जर्नल में छपी रिपोर्ट प्रोसिडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस में कहा गया है, "यह दुनिया के सबसे कीमती जैविक उत्पादों में से एक है. यह इसे जमा करने वाले सैकड़ों हजारों लोगों के लिए कमाई का एक बड़ा जरिया मुहैया कराती है." 

Himalaya Viagra
तस्वीर: Getty Images/AFP/K. Knight

रिसर्चरों के मुताबिक हाल के दशकों में इसकी लोकप्रियता बड़ी तेजी से बढ़ी है और इसके साथ ही इसकी कीमतें भी आसमान पर पहुंच गई हैं. फिलहाल इसकी कीमत सोने के मुकाबले तीन गुना ज्यादा है.

बहुत से लोग यह भी संदेह जताते हैं कि कहीं बहुत ज्यादा उगाने के चक्कर में तो इसकी कमी नहीं हो गई है. रिसर्चरों ने इस बारे में जानकारी जुटाने के लिए बहुत से किसानों, संग्राहकों और व्यापारियों से इस बारे में बातचीत की. उन्होंने पुराने साइंस जर्नलों को भी खंगाला और नेपाल, भूटान, भारत और चीन के 800 से ज्यादा लोगों से बात की ताकि समझ सकें कि आखिर इसकी कमी की क्या वजह है.

मौसमी बदलाव, भौगोलिक कारक और पर्यावरण की परिस्थितियों का भी विश्लेषण किया गया. रिपोर्ट में कहा गया है, "चार देशों से पिछले दो दशकों के आंकड़ों को देखने से पता चलता है कि पूरे इलाके में इस फफूंद में कमी आई है."

शंकु के आकार वाली यह फफूंद केवल 11,500 फीट या उससे ऊपर के इलाकों में मिलती है.परजीवी फफूंद कैटरपिलर पर खुद को स्थापित करने के बाद इसे धीरे धीरे मार देती है और खुद फैल जाती है. विकसित होने के लिए इसे एक खास जलवायु की जरूरत होती है जो बेहद ठंडा होना चाहिए यानी तापमान शून्य डिग्री से नीचे. इसके साथ ही मिट्टी स्थायी रूप से जमी नहीं होनी चाहिए.

रिसर्चरों ने यह भी देखा कि तिब्बती पठारों में मौसम गर्म होने की स्थिति में इस फफूंद का फैलाव ऊपर के ठंडे इलाकों की तरफ नहीं हुआ. रिसर्चरों का कहना है कि इसका मतलब साफ है कि अगर हिमालयी क्षेत्र में मौसम गर्म होता रहा तो यह ऊपर के इलाकों की तरफ नहीं जाएगी. ऐसे में उन लोगों की रोजी रोटी पर बुरा असर पड़ेगा जो इसी फफूंद से होने वाली कमाई पर निर्भर हैं. 

एनआर/आईबी (एएफपी)

इस विषय पर और जानकारी को स्किप करें

इस विषय पर और जानकारी