सिनेमा ने खो दिए वो फनकार!
१५ अप्रैल २०१३बदलते दौर के साथ तकनीक ने जोर पकड़ा. समय, पैसे और मेहनत की बचत ने फिल्म निर्माताओं को अपनी ओर खींच लिया. अब कोई पोस्टर बनवाने में समय नहीं खर्च करना चाहता. जब यही काम मशीनें करने लगीं तो हाथ से रंगे बैनरों और पोस्टरों की जगह छपाई मशीनों से निकले पोस्टरों ने ले ली.
रंगों से फिल्म का मूड
आज कल फिल्म के पोस्टर कंप्यूटर से बनते हैं. लेकिन क्या आपको याद नहीं आते वे बैनर जो रास्ता चलते आपको सामने लगे होर्डिंग पर 40x20 या कई बार 60x40 फीट में भी दिखाई दे जाते थे. जिसमें हीरो की एक आंख ही 10 फीट की हुआ करती थी.
गुरुजी के नाम से मशहूर हरीभाऊ गुरुजी ने 1943 में अपनी रंगों की दुनिया को नाम दिया 'समर्थ स्टूडियो'. गुरुजी के बेटे विनोद गुरुजी ने भी शुरुआत में अपने भाइयों के साथ पिता के स्टूडियो में हाथ बंटाया. विनोद गुरुजी ने बताया कि फिल्म के पोस्टर और बैनरों पर इस बात की जिम्मेदारी होती थी कि उन्हें देख कर लोग पहले दिन मैटिनी शो देखने जरूर आएं.
कलाकार अपनी जिम्मेदारी बखूबी दिल लगाकर निभाते थे. अगर फिल्म की कहानी दर्द भरी है तो सीपिया या सिलेटी रंगों में पोस्टर रंगा जाता. संजीदा कहानी की फिल्म के लिए काले और सफेद रंग, एंग्री यंग मैन के गुस्से को दिखाने के लिए अमिताभ बच्चन के चेहरे पर लाल रंग का इस्तेमाल होता था. गुरुदत्त की फिल्म प्यासा के गहरे स्याह रंग हों या मुगले आजम में एक तलवार, बादशाह अकबर का ताज और लंबी सेना की झलक, रंग सब कुछ कह देते थे.
विनोद गुरुजी ने बताया, "बैनर बनाने से पहले पेंटर को पूरी फिल्म दिखाई जाती थी. फिर उसमें इस्तेमाल होने वाले रंग ही लोगों तक यह बात पहुंचाते थे कि फिल्म में रोमांस है या कॉमेडी, एक्शन या दर्द."
हुसैन के बेमिसाल बैनर
दुनिया भर में मशहूर भारतीय पेंटर मकबूल फिदा हुसैन ने भी पेंटिग की शुरुआत फिल्मों के बैनर बनाने से की. उनके बेटे शमशाद हुसैन ने डॉयचे वेले को बताया कि उनके पिता को शुरुआती पहचान इन्ही बैनरों से मिली, "पचास के दशक में मेरे पिताजी बैनर पेंट करते थे. मैं भी उनके साथ जाया करता था. लकड़ी के लट्ठों पर नंगे पांव चढ़ कर बड़ी मेहनत से वह पोस्टर रंगते थे. हालांकि उस समय उन्हें इस काम के बहुत पैसे नहीं मिलते थे लेकिन वह इसे बहुत दिल लगाकर करते थे. उस समय वह एक होटल में भी काम करते थे. उस होटल के मालिक ने उनके काम को देखा और उनके घर के कुछ सदस्यों ने भी अपनी तस्वीरें बनवाईं. धीरे धीरे ये बात और लोगों तक भी पहुंची और लोग उन्हें पहचानने लगे." बाद में प्रायोगिक कला बाजार ने जोर पकड़ा और वह मशहूर हुए.
शमशाद मानते हैं यह उनके पिता के लिए बढ़िया मंच था जहां लोग बिना किसी टिकट के उनके काम को देख सके और उन्हें पहचान मिली.
अस्सी के दशक के बाद समर्थ स्टूडियो जैसी जगह सिर्फ नाम के लिए रह गई. गुरुजी और उनके साथ काम करने वाले सी विश्वनाथ, सखाराम, पद्मराज, गणेश राव जैसे दूसरे कलाकारों के नाम समय के साथ धुंधले पड़ गए. बाद में समय की मांग के अनुसार विनोद ने समर्थ स्टूडियो के दरवाजे सेट डिजाइनिंग के लिए खोल दिए. काम चल रहा है, कई बड़ी फिल्मों के लिए वे सेट डिजाइन कर रहे हैं. लेकिन आज भी वह तीन से चार इंच लंबे ब्रश के स्ट्रोक याद करते हैं.
कहां गए कलाकार
विनोद गुरुजी ने बताया कि अस्सी के दशक तक पोस्टर और बैनर बनाने वाले कलाकार बाद में काम की किल्लत के चलते अपने गांव चले गए. कुछ बड़े जमींदार परिवार के सदस्यों की उन्होंने आदमकद तस्वीरें बनाईं, तो कुछ ने साईं बाबा के पोस्टर बनाने शुरू कर दिए. इन पोस्टरों को बेच कर ही उनकी रोजी रोटी चलती थी. कई अब बहुत बूढ़े हैं और ज्यादातर की गरीबी में मौत हुई.
सौ साल में भारतीय सिनेमा में तकनीकी परिवर्तनों के साथ कहानी कहने के तरीके भी बदले हैं. विनोद गुरुजी भावुक होकर कहते हैं कि कला का मंदिर आज कारखाना बन गया है, "जहां पुराने दौर में फिल्म निर्माता वी शांताराम के स्टूडियो का नाम 'राजकमल मंदिर' था वहीं आज के फिल्म निर्माताओं के स्टूडियो के नाम में मंदिर की जगह वर्कशॉप या फैक्ट्री ने ले ली है."
दुनिया भर में ये फिल्में जगह बना रही हैं, लेकिन अफसोस की बात यह है कि इनके ढांचे को खड़ा करने वाले असली पोस्टर किसी ने संजो कर नहीं रखे हैं. कुछ समय बाद शायद आने वाली नस्लों को इस बारे में पता भी न हो कि फिल्मी दुनिया की नींव में किन हाथों का हुनर और किन लोगों का पसीना गया है. कला के शौकीन लोगों को आज वे ढूंढने पर भी कहीं नहीं मिलते.
रिपोर्टः समरा फातिमा
संपादनः अनवर जे अशरफ