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समाज

साहस और धैर्य से ही टूटेंगी जाति और धर्म की दीवारें

शिवप्रसाद जोशी
१८ अप्रैल २०१८

टीना डाबी और अतहर आमिर-उल-शफी की शादी में उपराष्ट्रपति और लोकसभा अध्यक्ष ने वैवाहिक समारोह में शिरकत भी की. लेकिन इस प्रेरणादायक और साहसी उदाहरण से जाति और धर्म के ठेकेदार कोई सबक लेंगे, कहना कठिन है.

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Indien - Konvertierung von Muslimen zum Hinduismus in Kolkata
तस्वीर: Sudipto Bhowmik

टीना डाबी ने जब अतहर से अपने रिश्तों को सार्वजनिक किया था तो सोशल मीडिया पर उन्हें काफी बुरा भला कहा गया था. लेकिन दोनों युवा अपने प्रेम में अडिग थे और तमाम हमलों को हंसते खेलते सह गये. हिंदूवादी और सवर्णवादी गिरोह अलग अलग भेष बनाकर लव जेहाद का डर जगाते रहे हैं. इन कट्टरपंथियों पर सख्त कार्रवाई करने वाली शक्तियां भी कमोबेश शिथिल और मौन ही रही हैं. यही कारण है कि केरल की हदिया को अपना धर्म बदलने की अपनी इच्छा और अपना नव-दाम्पत्य साबित करने के लिए सुप्रीम कोर्ट की शरण में जाना पड़ा जहां से उसे लंबी और तकलीफ भरी लड़ाई के बाद कट्टरपंथियों से कुछ निजात मिल सकी. हदिया और शफी जहां के मामले को केरल में लव जेहाद का मामला कहकर खूब उछाला गया. बीजेपी नेताओं ने भी इसे शह दी. दोनों युवा एक कठिन लड़ाई के बाद अब साथ रह तो पा रहे हैं लेकिन शफी पर आतंकवाद के एक मामले की तलवार लटक रही है. 

टीना और अतहर एक पढ़े लिखे, सुसंस्कृत, प्रतिष्ठिति और कुलीन परिवारों से आते हैं. बीमार मानसिकता वाले लोगों से लड़ने की उनमें क्षमता भी रही है और संसाधन भी. उनको निशाना बनाना कट्टरपंथियों के लिए इतना सहज नहीं था फिर भी वैसी कोशिशें तो हुई हीं जिनका बखूबी जवाब भी दोनों ने दिया. लेकिन हदिया और शफी जहां इतने खुशनसीब नहीं थे. उन्हें बहुत यातना और कष्ट सहने पड़े. जाति और धर्म की इन वर्जनाओं को तोड़ने का यही समय था लेकिन हम क्या देख रहे हैं- कट्टरपंथियों को खुली छूट और उनका उत्पात, अदालत और पुलिस का भी उन्हें कोई डर नहीं रह गया है. टीना और अतहर की शादी में खिलखिलाते बीजेपी नेताओं से कोई पूछे कि ये लव जेहाद क्या होता है और इससे किसका भला होता है.

अंतरधार्मिक विवाहों को लेकर देश में 1954 का स्पेशल मैरिज एक्ट बना हुआ है. शादी का अधिकार, संविधान में प्रदत जीवन जीने के अधिकार का हिस्सा है. अपना साथी चुनना एक मौलिक अधिकार है. संविधान में धर्म की आजादी का भी उल्लेख है जिसके तहत धर्म परिवर्तन का अधिकार भी आता है. 2013 में केंद्र ने अंतरजातीय विवाहों को प्रोत्साहन देने के लिए डॉ अंबेडकर के नाम पर एक योजना शुरू की थी. इसके तहत अंतरजातीय दंपत्तियों को ढाई लाख रुपये की मदद दिए जाने का प्रावधान है. पहले ये पांच लाख रुपये सालाना आय से नीचे वालों के लिए ही थी लेकिन अब इस सीलिंग को भी हटा दिया गया है. दलित दूल्हे या दलित दुल्हन के लिए शर्त ये है कि वो उनकी पहली शादी होनी चाहिए और हिंदू मेरिज एक्ट के तहत रजिस्टर्ड होनी चाहिए. और शादी का प्रस्ताव एक साल के भीतर जमा करना चाहिए. इस तरह की योजनाएं कई राज्यों में भी हैं. लेकिन ये लुभावनी योजना भी गर्दिश में है और इसके कारण स्पष्ट है. हर साल 500 वैवाहिक जोड़ों का लक्ष्य रखा गया था लेकिन 2014-15 में सिर्फ पांच को ही ये मदद मिल पाई. 2015-16 में मानदेय के लिए एप्लाई करने वाले 522 जोड़ो में से 72 को ही मदद मिल सकी और 2016-17 में 736 आवेदनों में से 45 को मंजूरी मिली. अधिकारियों का कहना है कि मंजूरी की दर में कमी की वजह ये है कि आवेदक जरूरी शर्तें पूरी किए बिना आ जाते हैं. हिंदू मैरिज एक्ट के बजाय स्पेशल मेरिज एक्ट के तहत अपनी शादी रजिस्टर करने वालों को इस योजना का लाभ नहीं मिलता है. क्षेत्र के सांसद, विधायक या डीएम की चिट्ठी भी चाहिए. योजना को लेकर जागरूकता का अभाव भी बताया जा रहा है. लेकिन अगर ये सारी बातें हैं तो इनका निदान तो प्रशासनिक स्तर पर ही ढूंढना चाहिए न कि जाति बंधन तोड़ने का जोखिम उठा रहे नवदंपत्तियों पर ही सारी शर्तें लाद दी जाएं. एक तरफ जाति उन्मूलन का प्रयास बताया जाता है और दूसरी तरफ नियम कायदे उन्हें सख्त घेरों से निकलने नहीं देते.

यूं तो अंतरधार्मिक या अंतरजातीय विवाहों का कोई सुनिश्चित आंकड़ा नहीं बना है लेकिन कुछ अध्ययन इस सामाजिक परिघटना का कुछ हद तक हाल तो बता ही देते हैं. तीसरे नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के आधार पर शोधकर्ता के दास और अन्य का एक अध्ययन चर्चित हुआ था जिसमें बताया गया था कि देश में करीब 11 फीसदी विवाह अंतरजातीय होते हैं और अंतरधार्मिक विवाहों का प्रतिशत तो बहुत कम है. दो फीसदी. जम्मू कश्मीर, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, मेघालय और तमिलनाडु में 95 फीसदी शादियां जातियों में ही होती हैं. पंजाब, सिक्किम, गोवा और केरल में अपनी ही जाति में शादी का ये प्रतिशत 80 का है. त्रिपुरा, हरियाणा, मणिपुर, महाराष्ट्र और कर्नाटक में अंतरजातीय विवाहों का प्रतिशत अन्य राज्यों की अपेक्षा बेहतर है. भारतीय सांख्यिकी संस्थान के शोधकर्ताओं ने 2017 में भारतीय मानव विकास सर्वे और राष्ट्रीय सैंपल सर्वे 2011-12 के आंकड़ों के आधार पर पाया कि लोगों के शैक्षिक स्तर का अपनी जाति से बाहर रिश्ता करने के उनके फैसले के बीच कोई सीधा संबंध नहीं है. 2016 में दिल्ली और उत्तर प्रदेश के एक सर्वे में पाया गया कि समाज में जाति और बंधन के तोड़ने की हिम्मत अभी बहुत कम है. इन पंक्तियों का लेखक उत्तराखंड से है जहां जातीय चेतना अभी भी संघर्षरत है, आज भी दलितों को नीचे बैठाया जाता है, उनका घर के भीतर प्रवेश मना है और रिश्ते की बात तो सोची ही नहीं जा सकती है. मंदिर प्रवेश को लेकर जहां दलितों का संघर्ष जारी हैं वहां अभी आगे की लड़ाइयां तो सोची भी नहीं जा सकतीं. और उत्तराखंड जैसे हालत कमोबेश सभी राज्यों में हैं. अकेले ऑनर किलिंग में 2014 से 2016 के दरम्यान 288 जानें जा चुकी हैं. कई घटनाएं तो राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की फाइलों में आने से रह ही जाती हैं.

निश्चित तौर पर इस बारे में उभरती प्रवृत्तियों को रेखांकित करना चुनौती से कम नहीं. लोगों के सोच में बदलाव तो है लेकिन ये सकारात्मक ही हो, ये नहीं कहा जा सकता. इस बीच आधुनिक उदार मूल्यों और शहरी जीवन की नई जरूरतों और आपाधापियों ने परिवार और दाम्पत्य की परिभाषाओं और स्वरूप में काफी बदलाव किए हैं लेकिन ये भी सच है कि इन्हीं उदार मूल्यों के बीच जाति और धर्म को लेकर नफरत और हिंसा का भी बोलबाला बना हुआ है. जहां लव जेहाद, खाप या ऑनर किलिंग के नाम पर मासूम युवाओं के कत्ल किये जा रहे हैं, उन्हें डराया धमकाया और खदेड़ा जा रहा है. 

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी