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जमीन के डिजिटल पहचान नंबर मिलने में कई रुकावटें

२ अप्रैल २०२१

भारत सरकार जमीन के टुकड़ों को डिजिटल पहचान नंबर देने की योजना बना रही है. लेकिन जानकारों का कहना है कि इस योजना का ग्रामीण लोगों और आदिवासियों तक पहुंच पाना मुश्किल है जिनके पास पहले से जमीन का मालिकाना हक नहीं है.

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Living Planet | Indien Frauen in der Landwirtschaft
तस्वीर: Murali Krishnan/DW

यह 14 अंकों का एक यूनीक लैंड पार्सल आइडेंटिफिकेशन नंबर (यूएलपीआईएन) है जिसकी शुरुआत इसी साल 10 राज्यों में की गई. भू संसाधन विभाग के अधिकारियों ने इसी सप्ताह संसद को बताया कि मार्च 2022 तक नंबर को पूरे देश में दिए जाने की योजना है. अधिकारियों ने बताया कि नंबर जमीन के हर टुकड़े के अक्षांश (लैटीट्यूड) और देशांतर (लॉन्गिट्यूड) पर आधारित होगा और और इसे सर्वेक्षणों और मानचित्रों के आधार पर हासिल किया जाएगा.

एक एक प्लॉट नंबर को बैंक रिकॉर्ड और आधार नंबरों से भी जोड़ा जाएगा. अधिकारियों का कहना है कि इस कार्यक्रम से भ्रष्टाचार से लड़ने में और जमीन के विवादों को सुलझाने में मदद मिलेगी, लेकिन आलोचकों ने कई संभावित कठिनाइयों के बारे में चेताया. इनमें जमीन पंजीकरण के पुराने रिकॉर्ड और आधार के डाटाबेस में कमियां शामिल हैं. जानकारों का कहना है कि जिन ग्रामीण लोगों और आदिवासियों के पास जमीन के पट्टे नहीं हैं वो इस योजना से बाहर ही रह जाएंगे.

यह भी आशंका है कि जिनके पास इंटरनेट नहीं है वो पहले से भी ज्यादा अधिकारहीन हो जाएंगे. सेंटर फॉर पॉलिसी एंड रिसर्च में वरिष्ठ रिसर्चर कांची कोहली कहती हैं कि जमीन के रिकॉर्ड को आधार से जोड़ने में "बहुत अधिक सावधानी" बरतने की जरूरत है. वो बताती हैं कि पहचान का मेल ना खाना या सिस्टम में पंजीकरण ना होना काफी आम है.

Indien Symbolbild Frauen
महिलाओं, दलितों और आदिवासियों को अक्सर जमीन के मालिकाना अधिकार से वंचित रखा जाता है.तस्वीर: Parth Sanyal/REUTERS

70 प्रतिशत भूमि के कोई दस्तावेज नहीं

उन्होंने यह भी कहा, "इससे जमीन के रिकॉर्ड बनाने और उन्हें संभाल कर रखने में पहले से जो समस्याएं हैं संभव है वो और पेचीदा हो जाएं. इसके अलावा यह भी संभावना है कि जमीन का मौसमी तौर पर इस्तेमाल करने वाले कुछ विशेष समुदाय या जंगलों के उत्पाद इकठ्ठा करने या मछली पकड़ने जैसी गतिविधियों में शामिल लोग इस से बाहर रह जाएं. यह योजना भारत में जमीन के रिकॉर्ड को डिजिटलाइज करने के उस अभियान का हिस्सा है जिसकी शुरुआत 2008 में हुई थी.

इसे इसी साल मार्च के अंत तक पूरा हो जाना था, लेकिन अधिकारियों ने बताया कि अब इसे 2024 तक बढ़ा दिया जाएगा. भू विभाग के अधिकारियों ने सांसदों को बताया कि जमीन के रिकॉर्डों को डिजिटलाइज करने से आम लोगों का सशक्तिकरण होगा, क्योंकि वो हर जानकारी ऑनलाइन हासिल कर पाएंगे.

जमीन के अधिकारों पर काम करने वाले अमेरिकी गैर-लाभकारी संगठन कडास्टा फाउंडेशन के मुताबिक विकासशील देशों में करीब 70 प्रतिशत भूमि के कोई दस्तावेज नहीं हैं, जिसकी वजह से दुनिया की एक चौथाई से भी ज्यादा आबादी पर विवादों, अतिक्रमण और निकाले जाने का खतरा बना रहता है. मानवाधिकार संगठनों का कहना है कि जमीन के रिकॉर्ड बनाने से जमीन के प्रशासन में पहले से ज्यादा कुशलता और पहले से ज्यादा समृद्धि आ सकती है.

Indien | Zunehmende Abwehrkräfte begrenzen das Ackerland an der Grenze zu Pakistan
कई प्लॉटों के और छोटे छोटे हिस्से हो चुके हैं लेकिन ये मानचित्रों में एक ही प्लॉट के रूप में नजर आते हैं.तस्वीर: Reuters/A. Sharma

सौ सालों से भी ज्यादा से नहीं हुआ जमीन का सर्वेक्षण

लेकिन इसके बावजूद संभव है कि अधिकारी समुदायों से विमर्श ना कर रहे हों, डाटा हासिल करने में विफल हो जा रहे हों या डाटा का इस्तेमाल कमजोर लोगों को उनके जमीन से निकालने के लिए भी कर रहे हों. भारत के कुछ राज्यों ने तो सौ साल से भी ज्यादा से जमीन का सर्वेक्षण नहीं कराया है और इन हालात में जानकारों ने मौजूदा रेकॉर्डों को डिजिटलाइज करने के तर्क पर सवाल उठाया है.

उन्होंने यह चिंता भी व्यक्त की है कि इन रिकॉर्डों को सिर्फ ऑनलाइन उपलब्ध कराया जाएगा तो कितने लोग उन तक पहुंच पाएंगे और निजता की देखभाल कौन करेगा. सेंटर फॉर लैंड गवर्नेंस संस्था के संयोजक प्रणब चौधरी कहते हैं कि डिजिटल नंबर की योजना में लाभ की संभावनाएं थीं लेकिन अगर यह पुराने रिकॉर्डों पर आधारित होगी तो ना सिर्फ यह असरहीन हो जाएगी बल्कि इसे लेकर कई विवाद भी उत्पन्न हो सकते हैं.

उन्होंने बताया, "पिछले सर्वेक्षण के बाद से कई प्लॉटों के और छोटे छोटे हिस्से हो चुके हैं लेकिन ये मानचित्रों में एक ही प्लॉट के रूप में नजर आते हैं. अक्सर खर्च बचाने के लिए इन छोटे छोटे विभाजनों के दस्तावेज नहीं बनाए जाते हैं, इसलिए यूएलपीआईएन को पूरी तरह से दोबारा सर्वेक्षण करने के बाद ही लागू करना चाहिए."

उन्होंने यह भी कहा कि महिलाओं, दलितों और आदिवासियों को लेकर यह भी खतरा है कि चूंकि उन्हें अक्सर जमीन के मालिकाना अधिकार से वंचित रखा जाता है, हो सकता है वो इस प्रक्रिया से बाहर ही हो जाएं. चौधरी ने कहा, "इस योजना को पुरानी समस्याओं का समाधान किए बिना जल्दबाजी में लागू करने से लोगों के भरोसे को गंभीर चोट पहुंच सकती है और यह स्थिति नए विवादों को जन्म दे सकती है. संभव है कि गरीब और दूसरे वंचित समूह और ज्यादा अलग और बाहर हो जाएं."

सीके/एए (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)

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