सत्ता-निरपेक्ष और निर्भय पत्रकारिता की जरूरत
१० जून २०१५पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे देशों में नागरिक बिरादरी के लोगों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, ब्लॉगरों और आंदोलनकारियों पर हमलों और हत्याओं की खबरें आती रही हैं. लेकिन भारत भी इस मामले में अब अपने पड़ोसी देशों की गिनती में आ गया है जहां मानवाधिकारों और सामाजिक जागरूकता के लिए प्रतिबद्ध व्यक्तियों या संगठनों के प्रति अत्यंत नफरत, हिंसा और असहिष्णुता का बोलबाला है. ये उस अंधेरे के बारे में भी बताता है जो लोकतंत्र और नागरिक अधिकारों की जय जय के चमकते हुए पर्दे के पीछे अथाह रूप से फैला हुआ है. वहीं हमारा अधिकांश समाज भी रहता है जिसकी लड़ती, दम तोड़ती और फिर बनती कहानियां बामुश्किल ही बाहर आ पाती हैं.
इस पत्रकार की मृत्यु, सत्ता राजनीति और समाज के दबंग होते हिस्सों के बीच एक अदृश्य लेकिन मजबूत हो चुके नेक्सस का पर्दाफाश भी करती है. बंबइया सिनेमा की आम मसाला फिल्मों के दृश्यों की तरह आज ताकतवरों के गठजोड़ फलफूल रहे हैं. हर पेशे, हर वर्ग में ये गठजोड़ निकल आते हैं. ये सत्ता का एक माफियाकरण है जो आम समाज को अपनी हिंसा में हांकता है.
जिस तेजी के साथ मीडिया का कॉरपोरेटीकरण हुआ है, सत्ता संरचनाओं में एक कील की तरह वो भी ठुंकता गया है. जबकि बताया ये गया था कि वो लोकतंत्र की हिफाजत के लिए एक स्तंभ की तरह काम करेगा. लेकिन आज के दौर में मुख्यधारा के मीडिया की ये भूमिका क्षीण होती जा रही है. नये मीडिया में एक जागरूक, बेचैन और साहसी तबका जरूर पैदा हुआ है जो तमाम किस्म की नाइंसाफियों पर बेबाकी से बोलता है लेकिन उसका कोई निश्चित, सुगठित और सुचिंतित आकार बनना चाहिए, जिसकी फिलहाल कमी दिखती है.
प्रतिरोध में अराजकता, अन्याय करने वालों के लिए ही फायदेमंद हो जाती है, लिहाजा प्रतिरोध का अनुशासन बहुत जरूरी है. विचारों की समानता बेशक न हो लेकिन इंसाफपसंदगी का विचार एक रहे. सोशल मीडिया में सच्चे लेखन, सही ब्लॉगिंग और न्यायसंगत पत्रकारिता की एकजुटता बनी रहे. फिर वो चाहे अघोषित और अदृश्य ही क्यों न हो. लेकिन इसके लिए लिखने वालों को भी सत्ता के तौर तरीकों, लालचों और महत्त्वाकांक्षाओं के प्रति सजग और ईमानदार रहना होगा. निजी लाभ छोड़ने होंगे और न्यूनतम संसाधनों में भी काम करते रहने का जज्बा रखना होगा.
यहां लिखने में ये बातें हवाई लग सकती हैं कि ऐसा लिखना बोलना आसान है लेकिन बहुत दूर की नहीं बहुत पास की लड़ाइयां इस बात की गवाह हैं कि ऐसा करना भी संभव है. उन जेनुइन लड़ाइयों को देखना और उनसे सीखना होगा, वे हमारे आसपास बिखरी हुई हैं. जहां कहीं भी सत्ता अपना खौफ फेंकती है और वर्चस्व की लाठी चलाती है वहां ये लड़ाइयां अनायास ही प्रकट होने लगती हैं. प्रतिरोध की ये एक बुनियादी विशेषता है.
तो सोशल मीडिया की नकली लड़ाइयों से भी सावधान रहने की जरूरत है. आज के नये मीडिया के माहौल में पत्रकारों और ब्लॉगरों के लिए काम अधिक चुनौतीपूर्ण और जोखिम भरा हो गया है. आज शत्रु अदृश्य हैं और असंख्य हैं. तो आज के दौर की निर्भय पत्रकार बिरादरी को सोशल मीडिया के शोर से खुद को बचाते हुए ये बात याद रखनी चाहिए जो भले ही घिसीपिटी या क्लिशे वाली लगे, लेकिन इसमें दम है कि सिर्फ हंगामा खड़ा करना ही मकसद न बन जाए. वो तो हमारा टीवी मीडिया बड़े पैमाने पर कर ही रहा है. नये मीडिया को हालात की सूरत बदलने की ओर बढ़ना चाहिए. जाहिर है इस काम में खतरे हैं, लेकिन खतरे फिर कहां नहीं हैं.
ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी