संदेह और असलियत को नकारने के बीच फंसा जर्मनी
२० जुलाई २०१६आतंक शब्द के लिए स्पष्ट व्याख्या है. आतंक का मतलब है - हिंसा की कार्रवाई के जरिये भय और घबराहट का व्यवस्थित तरीके से प्रसार.
इसके अनुरूप वुर्त्सबुर्ग के निकट रेलयात्रियों पर कुल्हाड़ी और छुरे से हमला आतंक नहीं था. हालांकि इस बीच पता है कि कथित तौर पर 17 वर्षीय अफगान लड़के ने आईएस को एक प्रचार वीडियो भेजा था जिसमें उसने काफिरों के खिलाफ हिंसा की घोषणा की थी. लेकिन क्या इससे व्यवस्थित तरीके वाली शर्त पूरी होती है. यदि आईएस के आतंकवादियों ने उसे इसका निर्देश नहीं दिया था, भले ही वे अब हमले का सेहरा अपने सिर बांध रहे हों.
शब्दों का खेल
इसी के अनुरूप जर्मन मीडिया सोमवार शाम हुई घटना को आतंकी घटना कहने से बच रहा है और हमले का इस्तेमाल कर रहा है. और जब से ये पता चला है कि वह संभवतः अपने दोस्त की मौत की खबर पाने के बाद कुछ ही दिनों के अंदर अतिवादी हो गया, तब से हत्याकांड शब्द का इस्तेमाल हो रहा है. मीडिया द्वारा औपचारिक रूप से सही इस्तेमाल हो रहे शब्दों की समस्या यह है कि आबादी का एक बड़ा हिस्सा इस तर्क को अब नहीं मानता. आम लोगों के लिए बिना किसी अपवाद के मुस्लिम अपराधियों द्वारा एक के बाद एक हो रहे बड़े और छोटे हमलों के पीछे एक व्यवस्थित तरीका है. और वही जो हमें आईएस खुद मनवाना चाहता है.
बहुत से लोगों में डर बढ़ रहा है, और इसके साथ आतंकवाद का लक्ष्य पूरा हो रहा है, कि वे स्वयं भी कट्टरपंथी इस्लाम प्रेरित हिंसा का शिकार हो सकते हैं. और हमेशा की तरह जब भय का माहौल होता है तो इंसान का विवेक खो जाता है. इसे सोशल मीडिया में खासकर देखा जा सकता है. वहां वुर्त्सबुर्ग के हमले के बाद से हमले का स्रोत चांसलर अंगेला मैर्केल की शरणार्णी नीति को बताया जा रहा है. इस बात की कोई परवाह नहीं कर रहा है कि अपराधी जून 2015 में ही शरणार्थी के रूप में जर्मनी आया था. और नीस, पेरिस और ब्रसेल्स के हमलावर बिना किसी अपवाद के फ्रांसीसी और बेल्जियम के नागरिक थे. समस्या दरअसल लंबे समय से यहीं यूरोप में है.
सब पर संदेह सही नहीं
आप खुली सीमा के समर्थक हों या नहीं, यहां आए सभी लोगों और लंबे समय से रह रहे मुसलमानों पर संदेह करना उदारवादी लोक गणतंत्र के सारे सिद्धांतों के खिलाफ है. और समाज में उनके समेकन में भी मदद नहीं करता, जो आंतरिक सुरक्षा के मकसद से भी हासिल होना चाहिए. लेकिन इस तरह का मूल्यांकन सोशल मीडिया पर बहस के लिए काफी जटिल है. और फिर "स्वागत की पुकार करने वालों", "भालू के खिलौने फेंकने वालों" और "जर्मनी को खत्म करने की चाह रखने वालों" की खिंचाई ज्यादा मजे देती है.
राजनीतिक परिदृश्य के दूसरी ओर भी यही विवेकहीनता दिखती है. जो होना नहीं चाहिए, वह हो नहीं सकता के सिद्धांत के अनुरूप अपराधियों के एक जैसे धर्म की ओर इशारा करने वाले लोगों पर नाजी होने का डंडा चलाया जाता है. या कम से कम आरोप लगाया जाता है कि वह उग्र दक्षिणपंथियों को मजबूत कर रहा है. इतना ही नहीं पागलपन से भरी घटनाओं के लिए हर तरह का बहाना खोजा जाता है. जैसे कि भागने के सिलसिले में हुए अनुभवों के कारण अपराधी सदमे में है. हमलावर नहीं बस हत्यारा जिसे अच्छी थेरेपी से रोका जा सकता था. सामान्य नागरिक ऐसी बहस पर हैरानी दिखाता है.
अखबारों में कभी कभी पाठकों की चिट्ठियों में झलकता है, लेकिन सोशल मीडिया पर इसे साफ देखा जा सकता है. पिछली सर्दियों से जर्मन समाज इतना बंटा हुआ है जितना सदियों से नहीं था. जर्मनी में एक बड़े आतंकी हमले के बाद क्या स्थिति होगी, इसकी कल्पना भी करने को जी नहीं चाहता. "एकता में बल है" जैसी स्थिति यहां फिलहाल नहीं दिख रही.
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