यौन शोषण का शिकार होती हैं स्लम की महिलायें
१ मार्च २०१७सरकारी दावों के अनुसार झुग्गी बस्तियों में रहने वालों के जीवन स्तर में काफी सुधार आ चुका है, लेकिन सच्चाई सरकारी दावे को मुंह चिढ़ाती है. स्लम में रहने वाली महिलाओं का जीवन किसी नरक से कम नहीं है. सुविधाओं के अभाव के साथ साथ उन्हें कई स्तरों पर शोषण का सामना करना पड़ता है. महिलाओं के लिए काम करने वाली संस्था धागम फाउंडेशन ने चेन्नई की झुग्गी बस्तियों के अपने अध्ययन में पाया कि महिलाओं को घर, स्कूल से लेकर कार्यस्थल तक शोषण का सामना करना पड़ता है. महिलाओं के शोषण में उनके ‘अपने' भी शामिल हैं.
नशे का दुष्प्रभाव
इन बस्तियों में स्वच्छ हवा और साफ पानी का अभाव महिला स्वास्थ्य के लिए एक बड़ी चुनौती है. मूलभूत सुविधाओं की कमी के साथ साथ घरेलू हिंसा का भी बुरा असर महिलाओं के स्वास्थ्य पर पड़ता है. धागम फाउंडेशन ने अपने अध्ययन में पाया कि शराब और अन्य नशे के आदी पुरुषों के भद्दे कमेंट और मारपीट का सामना उन्हे करना पड़ता है.
धागम फाउंडेशन के गोविन्द मुरुगन कहते हैं कि परिवार के पुरुष सदस्य को अगर नशे की लत लग जाए तो घर की महिला को कई तरह की यातना झेलनी पड़ती है. इस अध्ययन के अनुसार 68 प्रतिशत विवाहित पुरुष शराब के लती हैं और इनमें से 69 फीसदी घर में अशांति और बर्बादी का कारण भी. पति को शराब की लत लगने से पत्नियों पर आर्थिक बोझ भी बढ़ जाता है.
छोड़ना पड़ता है स्कूल
समय के साथ शिक्षा की रोशनी झुग्गी बस्तियों में भी पहुंची है. महिला सशक्तिकरण में शिक्षा के महत्व को अब खुद महिलाएं समझने लगी हैं. इसके बावजूद लड़कियों की शिक्षा पर परिवार का पहरा बैठा हुआ है. एक सीमा तक ही लोग लड़कियों को स्कूल भेजना पसंद करते हैं. किशोरावस्था के बाद लड़कियों को स्कूल छोड़ना पड़ता है. धागम फाउंडेशन के सर्वे के अनुसार ‘पीरियड' शुरू होने के बाद परिवार, लड़कियों को स्कूल नहीं भेजना चाहता.
घरेलू प्रतिबंधों के कारण स्कूल छोड़ने वाली लड़कियों की संख्या 49 फीसदी के करीब है. आर्थिक कारणों के चलते स्कूल छोड़ने वाली लड़कियों की संख्या 25 फीसदी के आस पास है. इन बस्तियों में बाल विवाह अब भी प्रचलित है और इसके चलते 19 प्रतिशत लड़कियों को स्कूल छोड़ना पड़ता है. इस अध्ययन से सामने आया है कि 59 प्रतिशत लड़कियों की शादी 18 साल के पहले ही हो चुकी थी.
काम करने पर पाबंदी
इस सर्वे में यह खुलासा हुआ कि ज्यादातर महिलाएं रोजगार से जुड़ना चाहती हैं. घर के काम के साथ साथ वह नौकरी करके परिवार की आर्थिक तंगी को दूर करना चाहती है लेकिन पुरुष प्रधान मानसिकता के चलते उसे काम करने की अनुमति परिवार से नहीं मिलती.
सर्वे में शामिल 63 प्रतिशत महिलाओं ने नौकरी के लिए अपनी रुचि दिखायी. इनमें से लगभग 52 प्रतिशत महिलाओं का कहना है कि उन्हें काम करने से रोका जाता है. 32 प्रतिशत महिलाएं घर और बच्चों की जिम्मेदारी के चलते नौकरी नहीं कर पाती. जबकि शेष को अवसर की कमी के चलते नौकरी नहीं मिल पाती.
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यौन उत्पीड़न
महिला सुरक्षा के सरकारी दावे की कलई खोलते हुए इस अध्ययन में पाया गया है कि सर्वे में भाग लेने वाली महिलाओं में से 42 प्रतिशत को यौन हमले का शिकार होना पड़ा है. इनमें से 7 प्रतिशत महिलाओं का कहना है कि उन्हें लगातार यौन उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है.
यौन हमले के ये अधिकतर मामले कार्यस्थल, स्कूलों या ट्रेन और बसों जैसी सार्वजनिक जगहों पर हुए. हैरानी की बात है कि 89 प्रतिशत महिलाओं ने इसकी कोई शिकायत दर्ज नहीं करायी. गोविंद मुरुगन बताते हैं कि यौन शोषण के बहुत से मामलों में परिवार या परिचित ही शामिल होते हैं. परिवार और पुलिस का रवैया महिलाओं को जुल्म के खिलाफ आवाज उठाने से रोकता है.
दूसरे शहरों में भी यही हालात
एक अनुमान के अनुसार भारत में लगभग 7 करोड़ लोग झुग्गियों में रहते हैं. जानकारों के अनुसार देश के सभी स्लमों में हालात बदतर हैं. अधिकतर महिलाएं अपने मौलिक अधिकारों से अनजान हैं. धागम फाउंडेशन के सर्वे से भी यही सामने आया है कि 70 प्रतिशत महिलाओं को अपने अधिकारों का कोई ज्ञान नहीं है.
सर्वोच्च न्यायालय अधिवक्ता और सामाजिक अधिकार कार्यकर्ता रवि श्रीवास्तव का कहना है कि शिक्षा की कमी और परिवार के दबाव के चलते महिलाएं अपने खिलाफ होने वाले अत्याचार का सामना नहीं कर पातीं. उनके अनुसार यही हालात देश के अधिकतर स्लम में देखने को मिलता है. समाजशास्त्री डॉ साहेब लाल कहते हैं कि स्लम महिलाओं के लिए एक बड़े जेल के समान है. उनके अनुसार, शिक्षा और जागरूकता के जरिये महिलाएं तमाम बंधनों को तोड़कर अपने लिए सम्मानजनक जीवन हासिल कर सकती हैं.
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