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समाज

यूएई के सजायाफ्ता भारतीयों को घर पर नहीं मिलेगी पनाह

शिवप्रसाद जोशी
२३ जनवरी २०२०

संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) की अदालतों से जारी होने वाले सिविल आदेशों की भारत में भी तामील हो सकेगी. सरकार की अधिसूचना में यूएई को रिसिप्रकेटिंग टेरीटरी यानी पारस्परिक आदानप्रदान वाले क्षेत्र का दर्जा दिया है.

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Katar Doha Skyline
तस्वीर: imago/imagebroker

आसान शब्दों में इसके मायने ये हैं कि संयुक्त अरब अमीरात की संघीय और निचली अदालतों से जारी होने वाले आदेश भारत में वैसे ही तामील कराये जा सकते हैं जैसे खुद भारतीय अदालतों के आदेश. कोड ऑफ सिविल प्रोसीजर, सीपीसी के सेक्शन 44 ए के तहत यह प्रावधान किया गया है. संयुक्त अरब अमीरात के देशों के अलावा अदालती आदेशों के पारस्परिक निष्पादन के लिए ब्रिटेन, सिंगापुर, बांग्लादेश, मलेशिया, त्रिनिडाड और टोबेगो, न्यूजीलैंड, फिजी आदि कुछ देश भी रिसिप्रकेटिंग टेरीटरी के रूप में चिन्हित हैं.

दावा किया गया है कि पिछले दिनों जारी इस नई अधिसूचना के जरिए दोनों देशों के बीच आज्ञप्तियों के निष्पादन में समय और संसाधनों पर होने वाले बेशुमार खर्च में कमी आ सकेगी. वैधानिक और तकनीकी दुश्वारियां भी दूर हो पाएंगी. मीडिया में संयुक्त अरब अमीरात में भारतीय राजदूत पवन कपूर के हवाले से बताया गया है कि यह अधिसूचना, 1999 के समझौते का ही एक हिस्सा है जिसके तहत सिविल और वाणिज्यिक मामलों में सहयोग की बात कही गई है.

भारतीय विदेश मंत्रालय की वेबसाइट की एक सूचना के मुताबिक पिछले साल जुलाई में लोकसभा में पूछे गए एक प्रश्न के जवाब में बताया गया था कि विदेशी जेलों में 8189 भारतीय कैदी बंद हैं. इनमें से सबसे ज्यादा, 4206 कैदी खाड़ी सहयोग परिषद्, जीसीसी के छह देशों की जेलों में हैं जहां कुल प्रवासी भारतीय आबादी 90 लाख है. इन छह देशों में भी सउदी अरब में 1811 और यूएई में 1392 भारतीय कैदी हैं.  सबसे ज्यादा प्रवासी भारतीय यूएई के तीन शहरों- अबूधाबी, शारजाह और दुबई में रहते हैं.

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यह संख्या तीस लाख से कुछ ज्यादा बताई जाती है. प्रवासी भारतीयों में भी सबसे अधिक संख्या केरल और तमिलनाडु राज्य से है. 2011 में यूएई और भारत के बीच कैदियों की अदलाबदली और अपने ही देश में जेल की सजा काटने का प्रावधान किया गया था. 2013 में यह संधि अमल में आ गई लेकिन इसके तहत कितने कैदियों को यूएई की जेलों से निकालकर भारतीय जेलों में रखा गया, यह स्पष्ट नहीं है. जुलाई 2019 तक तो कोई कैदी वापस भारत नही लाया गया था. ताजा अधिसूचना इस संधि का भी एक तरह से विस्तार ही है और दोतरफा कानूनी और न्यायिक मसलों के निर्धारण का रास्ता सुगम बनाती हुई दिखती है.

यूएई के साथ नई संधि की रोशनी में एक तथ्य यह भी गौरतलब है कि वहां की अदालतों से जारी आदेशों की निर्णायकता कैसे जांची जाएगी, और कहीं वो मुकम्मल आदेश न हुआ तो क्या होगा. कानून के जानकारों के मुताबिक ऐसी सूरत में भारतीय सीपीसी के सेक्शन 13 में कुछ बिंदु भी स्पष्ट किए गए हैं जिनके मुताबिक कुछ स्थितियों में विदेशी आदेश को निर्णायक नहीं माना जा सकता- अगर वो उचित न्यायाधिकरण वाली अदालत से न दिया गया हो या मामले की मेरिट के आधार पर न हो, या अंतरराष्ट्रीय कानून की अनदेखी करता हो, या प्राकृतिक न्याय की अवहेलना करता हो, या फर्जी तरीके से हासिल किया गया हो या किसी भारतीय कानून की अवहेलना को भी अनदेखा करता हो.

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ताजा अधिसूचना के बाद अगर यूएई में कोई प्रवासी भारतीय किसी सिविल मामले में अभियुक्त पाया जाता है तो उसे भारत में सुरक्षित ठिकाना नहीं मिल पाएगा और उसे यूएई की अदालत से दी गई सजा भुगतनी होगी. खाड़ी के मीडिया में प्रकाशित खबरों के मुताबिक यूएई में बैंकों से कर्ज लेकर चंपत होने वालों, घोटालों और तलाक जैसे मामलों के आरोपियों को कानून के लंबे हाथ धर दबोचेंगे चाहे वे भारत क्यों न भाग आए हों.

कई लोग सवाल कर रहे हैं कि यूएई ने अपने यहां के आर्थिक भगौड़ों पर कानूनी शिकंजा कसने के लिए भारत के साथ यह संधि तो कर ली लेकिन भारत से कथित तौर पर चंपत हुए आर्थिक भगौड़ों के बारे में भारत सरकार की कार्रवाइयां अंजाम तक कब पहुंचेगी, यह सवाल अपनी जगह बना हुआ है. क्या यूएई के साथ इस करार में भारत की अंदरूनी सत्ता राजनीति और सरकार के मंतव्यों के भी निशान हैं, जानकार इससे भी पूरी तरह इंकार नहीं करते हैं.

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