आवाज दे कहां है
२८ मई २०१४हिन्दी सिनेमा जगत के युगपुरुष महबूब खान को एक ऐसी शख्सियत के तौर पर याद किया जाता है जिन्होंने दर्शकों को लगभग तीन दशक तक क्लासिक फिल्मों का तोहफा दिया. कम ही लोगों को पता होगा कि भारत की पहली बोलती फिल्म आलम आरा के लिए महबूब खान को अभिनेता के रुप में चुना गया था लेकिन फिल्म निर्माण के समय आर्देशिर ईरानी ने महसूस किया कि फिल्म की सफलता के लिए नए कलाकार को मौका देने के बदले किसी स्थापित अभिनेता को यह भूमिका देना सही रहेगा. बाद में उन्होंने महबूब खान की जगह मास्टर विट्ठल को इस फिल्म में काम करने का अवसर दिया.
चालीस चोरों में से एक
महबूब खान का असली नाम रमजान खान था. उनका जन्म 1906 में गुजरात के बिलमिरिया में हुआ. वह युवावस्था में ही घर से भागकर मुंबई आ गए और एक स्टूडियो में काम करने लगे. अभिनेता के रुप में उन्होंने अपने सिने करियर की शुरूआत 1927 में प्रदर्शित फिल्म 'अलीबाबा एंड फोर्टी थीफ्स' से की. इस फिल्म में उन्होंने चालीस चोरों में से एक चोर की भूमिका निभाई थी.
इसके बाद महबूब खान सागर मूवीटोन से जुड़ गए और कई फिल्मों में अभिनेता के रुप में काम करने लगे. 1935 में उन्हें 'जजमेंट ऑफ अल्लाह' फिल्म के निर्देशन का मौका मिला. अरब और रोम के बीच युद्ध की पृष्ठभूमि पर आधारित यह फिल्म दर्शकों को काफी पसंद आई.
इसके बाद उन्होंने 1936 में 'मनमोहन' और 1937 में 'जागीरदार' फिल्मों का निर्देशन किया लेकिन ये दोनों फिल्में टिकट खिड़की पर कुछ खास कमाल नहीं दिखा सकीं. 1937 में उनकी 'एक ही रास्ता' रिलीज हुई. सामाजिक पृष्ठभूमि पर बनी यह फिल्म दर्शकों को काफी पसंद आई. इस फिल्म की सफलता के बाद वह निर्देशक के रुप में अपनी पहचान बनाने में कामयाब हो गए.
महबूब खान प्रोडक्शन लिमिटेड
1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण फिल्म इंडस्ट्री को काफी आर्थिक नुकसान का सामना करना पड़ा. इस दौरान सागर मूवीटोन की आर्थिक स्थिति काफी कमजोर हो गई और उसे बंद करना पड़ा. इसके बाद महबूब खान अपने सहयोगियों के साथ नेशनल स्टूडियो चले गए, जहां उन्होंने 1940 में 'औरत' 1941 में 'बहन' और 1942 में 'रोटी' जैसी फिल्मों का निर्देशन किया.
कुछ समय तक नेशनल स्टूडियो में काम करने के बाद महबूब खान को महसूस हुआ कि उनकी विचारधारा और कंपनी की विचारधारा में अंतर है. इसे देखते हुए उन्होंने नेशनल स्टूडियो को अलविदा कह दिया और महबूब खान प्रोडक्शन लिमिटेड की स्थापना की. इसके बैनर तले उन्होंने 1943 में 'नजमा', 'तकदीर' और 1945 में 'हूमायूं' जैसी फिल्मों का निर्माण किया.
जवां है मोहब्बत
1946 मे प्रदर्शित फिल्म 'अनमोल घड़ी' महबूब खान की सुपरहिट फिल्मों में गिनी जाती है. महबूब खान फिल्म को संगीतमय बनाना चाहते थे. इसी उद्देश्य से उन्होंने नूरजहां, सुरैया और अभिनेता सुरेंद्र का चयन किया जो अभिनय के साथ ही गीत गाने में भी सक्षम थे. महबूब खान का निर्णय सही साबित हुआ और फिल्म सफल रही. नौशाद के संगीत से सजे 'आवाज दे कहां है', 'आजा मेरी बर्बाद मोहब्बत के सहारे' और 'जवां है मोहब्बत' जैसे गीत श्रोताओं के बीच आज भी लोकप्रिय हैं.
1949 में प्रदर्शित फिल्म 'अंदाज' महबूब खान की महत्वपूर्ण फिल्मों में शामिल है. प्रेम त्रिकोण पर बनी इस फिल्म में दिलीप कुमार, राज कपूर और नर्गिस थे. यह फिल्म क्लासिक फिल्मों में शुमार की जाती है. इस फिल्म में दिलीप कुमार और राजकपूर ने पहली और आखिरी बार एक साथ काम किया था.
इसके बाद 1952 में प्रदर्शित फिल्म 'आन' महबूब खान की एक और महत्वपूर्ण फिल्म साबित हुई. इस फिल्म की खास बात यह थी कि यह भारत में बनी पहली टेक्नीकलर फिल्म थी और इसे काफी खर्च के साथ बड़े पैमाने पर बनाया गया था. दिलीप कुमार, प्रेमनाथ और नादिरा की मुख्य भूमिका वाली यह पहली हिन्दी फिल्म थी जो पूरी दुनिया में एक साथ रिलीज की गई.
'आन' की सफलता के बाद महबूब खान ने 'अमर' का निर्माण किया. बलात्कार जैसे संवेदनशील विषय पर बनी इस फिल्म में दिलीप कुमार, मधुबाला और निम्मी ने मुख्य भूमिका निभाई. हालांकि फिल्म व्यावसायिक तौर पर सफल नहीं हुई लेकिन महबूब खान इसे अपनी एक महत्वपूर्ण फिल्म मानते थे.
मदर इंडिया की सफलता
1957 में प्रदर्शित फिल्म 'मदर इंडिया' महबूब खान की सर्वाधिक सफल फिल्मों में शुमार की जाती है. महबूब खान ने मदर इंडिया से पहले भी इसी कहानी पर 1939 मे फिल्म 'औरत' बनाई थी और वह इस फिल्म का नाम भी औरत ही रखना चाहते थे. लेकिन नर्गिस के कहने पर उन्होंने इसका 'मदर इंडिया' जैसा अंग्रेजी नाम रखा. फिल्म की सफलता से उनका यह सुझाव सही साबित हुआ.
1962 में प्रदर्शित फिल्म 'सन ऑफ इंडिया' महबूब खान के सिने करियर की अंतिम फिल्म साबित हुई. बड़े बजट से बनी यह फिल्म टिकट खिड़की पर बुरी तरह नकार दी गयी. हांलाकि नौशाद के स्वरबद्ध गीत 'नन्हा मुन्ना राही हूं' और 'तुझे दिल ढूंढ रहा है' श्रोताओं के बीच आज भी तन्मयता के साथ सुने जाते है.
अपने जीवन के आखिरी दौर में महबूब खान 16वीं शताब्दी की कवयित्री हब्बा खातून की जिंदगी पर एक फिल्म बनाना चाहते थे. लेकिन उनका यह ख्वाब अधूरा ही रह गया. अपनी फिल्मों से दर्शकों के बीच खास पहचान बनाने वाला यह महान फिल्मकार 28 मई 1964 को इस दुनिया से रुखसत हो गया.
आईबी/एमजे (वार्ता)