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समाज

मीटू रोज रोज की बराबरी की लड़ाई है

२० अक्टूबर २०१८

मीडिया में मीटू के शोर और मशहूर लोगों के सामने आते नामों का यह मतलब नहीं कि किसी और ग्रह की बात हो रही है, ताकझांक बंद कीजिए और गौर से देखिए हमारे आस पास कोई तकलीफ में हैं.

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Vergewaltigungsopfer in Großbritannien #MeToo movement

सुबह-सुबह का वक्त था और मैं साढ़े छह साल की उम्र के अपने जुड़वां बच्चों, बेटे और बेटी को, स्कूल के लिए तैयार कर रही थी. बेटे को तैयार कर चुकी थी और बिटिया की स्कर्ट में बेल्ट डालने में उसकी मदद कर ही रही थी कि उसने अपनी सहज (और करीब करीब निर्विकार) बोली में कहा, "स्कर्ट के नीचे साइकलिंग शॉर्ट्स डाल दो मम्मा. सीढ़ियां चढ़ते हुए बच्चे नीचे से झांकते हैं और मजाक उड़ाते हैं.” उस रोज मेरे भीतर का सारा हौसला पस्त हो गया था. जिस लड़ाई को लड़ते-लड़ते मेरी आधी उम्र निकल गई, वही लड़ाई अब बच्चों के सामने थी. मुझे ज्यादा तकलीफ इस बात से हो रही थी कि इत्ती-सी उम्र में ही मेरी बेटी ने अपने सम्मान की इस लड़ाई के सच को बड़ी आसानी से न सिर्फ समझ लिया था, बल्कि स्वीकार भी कर लिया था और अपने तरीके से अपने डिफेंस के बारे में सोचने भी लगी थी.

मीटू कैंपेन पर बात करते हुए इस वाकये का जिक्र जरूरी हो जाता है. ये छोटी-सी घटना सिर्फ इतना बताती है कि जिस वर्कप्लेस हैरेसमेंट यानी काम-काज की जगह पर होनेवाले उत्पीड़न के इतने किस्से अगर सामने आ रहे हैं तो उसका बीज दरअसल होता कहां है. दिन और रात, जात और पात की तरह ही लिंगभेद और उत्पीड़न हमारे समाज का परम सत्य है.

किसी भी गांव, किसी भी शहर की लड़की या औरत को रोक कर पूछ लीजिए-घर में रिश्तेदारों की लंबी फौज के बीच से हो कर गुजरकर अपने लिए एक सुरक्षित कोना तलाशते हुए, स्कूल के लिए रिक्शा पकड़ते, कॉलेज के लिए ऑटो लेते, ट्रेन में अकेले सफर करते, पब्लिक स्पेसों में छेड़खानी और उत्पीड़न का एक न एक तजुर्बा सबके पास होगा. इस देश की हर बच्ची, हर लड़की, हर औरत का (और अनगिनत अनरिपोर्टेड मामलों में तो लड़कों का भी) पाला किसी न किसी रूप में लैंगिक भेदभाव और यौन उत्पीड़न से पड़ चुका है.

फिर वर्कप्लेस यानी काम-काज की जगह पर हुए उत्पीड़न को लेकर इतना शोर आखिर क्यों है? इसलिए क्योंकि वर्कप्लेस (और ज्ञानोपार्जन के संस्थान) वो पुनीत स्थान होते हैं जो मेरिटोक्रैसी पर चलते हैं. दफ्तर या काम करने की जगह वो स्पेस होती है जिसकी दहलीज पर हम अपनी-अपनी विविध पहचानों को छोड़कर साझा जज्‍बे के साथ एक दिशा में काम करने के लिए एकत्रित हुआ करते हैं. ऐसे किसी स्पेस की तो नींव में ही बराबरी, समावेशन और एक-दूसरे के लिए सम्मान की अपेक्षा की जाती है. लेकिन कड़वी सच्चाई तो सिर्फ इतनी-सी है कि सम्मान, समावेशन और बराबरी हमारे डीएनए से ही गायब है.

सच तो ये है कि इस आंदोलन ने एक बार फिर हमें हमारी निजी, पारिवारिक और सामाजिक संरचनाओं को नजदीक से देखने पर मजबूर किया है. घर की चहारदीवारी के भीतर हम जिस लिंगभेद को जाने-अनजाने हवा देते रहते हैं, पैदाइश से ही अपने लड़कों को ‘सेन्स ऑफ एन्टाइटलमेंट' देते हुए ‘माचो' बनाते रहते हैं, उसी भेदभाव की चिंगारी फिर बाहर निकलकर बराबरी की हर धारणा को राख करती रहती है. मर्दवादी व्यवस्था एक अमूर्त अवधारणा नहीं है, हमारी रोजमर्रा की आदतें हैं. इसलिए मीटू आंदोलन सिर्फ एक उठता-उतरता ज्वार नहीं, रोज-रोज की बराबरी की लड़ाई है.    

लेकिन कोई भी आंदोलन अपने आप में संपूर्ण सत्य नहीं होता. जैसे विमर्श की कई परतें होती हैं वैसे ही इस आंदोलन के भी कई आयाम हैं. मिसाल के तौर पर, दफ्तरों में विशाखा गाइडलाइन्स और इंटरनल कम्पलेंट्स कमेटी के सख्ती से पालन किए जाने की कोशिश के कुछ सटीक और दूरगामी नतीजे दिखाई दिए हैं तो कुछ त्वरित प्रतिक्रियाएं भी सामने आई हैं. इस आंदोलन ने कई आवाजों को हिम्मत दी तो आरोप-प्रत्यारोपों के खतरनाक और परेशान करनेवाले सिलसिले भी शुरू हुए. (वरुण ग्रोवर के ख़िलाफ़ एक अनाम आरोप और फिर वरुण की सफाई इसकी एक मिसाल है).

#metoo Protest Schriftzug
तस्वीर: picture-alliance/NurPhoto/M. Fludra

एक बार में इस आंदोलन के सभी आयामों पर चर्चा मुमकिन नहीं, लेकिन कुछ पहलुओं पर सोचना बेहद ज़रूरी है. इस आंदोलन को लेकर सबसे पहला सवाल ये उठता रहा कि सोशल मीडिया पर मचता ये शोर कहीं एकांगी तो नहीं? तनुश्री दत्ता ने जाने-अनजाने जो बिगुल बजाया, और उसके बाद जितनी भी महिलाओं ने इस आंदोलन को आवाज दी, उनकी प्रोफाइलिंग में एक बात कॉमन थी. ये सारी महिलाएं पढ़ी-लिखी हैं, सफल हैं और एक किस्म के प्रीवीलेज्ड और एलीट तबके से आती हैं. अपने आंदोलन के लिए इन्होंने जिस भाषा को अपना हथियार बनाया है, उस भाषा के पास न सिर्फ़ भारत बल्कि पूरी दुनिया के मीडिया के पास पहुंचने की ताकत है. तो क्या #मीटू सिर्फ एक एलिट कैम्पेन है? दूसरा सवाल ये है कि आखिर क्यों महिलाएं अचानक गड़े मुर्दे उखाड़कर सामने लाने पर आमादा हो गईं? बीस-बीस साल पुराने मामलों को लेकर इतना शोर क्यों मचने लगा? 

इसलिए क्योंकि पहली बार इतने बड़े स्तर पर वर्चुअल ही सही, लेकिन वो महफूज जगह मिली जहां अपने-अपने डर के पिशाचों की कहानियां सुनाकर साझा शेयरिंग और साझा हीलिंग की जा सकी है. कॉफी मशीनों के पास और अपने-अपने छोटे समूहों में अपने-अपने साथ हुए हादसों की निजी शेयरिंग तो हम सब करते रहे हैं, लेकिन एक-दूसरे के लिए खड़े होने की हिम्मत कभी नहीं थी हममें (और ऐसा क्यों था, ये अलग बहस का मुद्दा है). सच तो ये है कि मीटू तो पिछले एक साल में ग्लोबल कैम्पेन बना है. #मीटू तो एक साझा और तकलीफदेह तजुर्बे के खिलाफ सदियों से जमा होते रहे आक्रोश का एक मुखर विस्तार भर है.

उत्पीड़न उम्र, जाति, शहर और जगह नहीं देखता. वजूद, रसूख और शिक्षा-दीक्षा तक नहीं देखता. सिर्फ शिकार देखता है. इस आंदोलन के ‘एलीट' होने के आरोप से अगर सहमत भी हुआ जाए तो इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि इस मुट्टी भर आवाज़ों की एक लहर ने इस देश की उन लाखों-करोड़ों दबी हुई आवाज़ों को थोड़ी-सी हिम्मत दी है जो कभी सामाजिक लांछनों तो कभी निजी डर से ये मान बैठती थीं कि बर्दाश्त करना और चुप रहना बचाव का इकलौता रास्ता है. कम से कम पहली बार हमने ये तो स्वीकार तो किया है कि वर्कप्लेस हैरेसमेंट एक सच्चाई है. ये तो माना कि ये एक छोटा-मोटा मुद्दा नहीं बल्कि सुरसा का मुंह है. महिलाएं बराबरी के अधिकारों को लेकर जितना सचेत होती जा रही हैं, उनके सामने की चुनौतियां और बढ़ती जा रही हैं.

अपने-अपने स्पेस और अधिकार के लिए लड़ती औरतों के सामने खड़ी इन चुनौतियों के कई रूप हैं. लेकिन इसकी जड़ में एक ही बीज है. हमने आधी आबादी की आवाज़ को मुखर कर दी लेकिन पुरुषों को इस बदलाव के लिए जरा भी तैयार नहीं किया. दरअसल, सामाजिक बदलाव की जरूरत जितनी ही बड़ी होती है, उसके खिलाफ प्रतिरोध उतना ही गहरा, उतना ही गहन होता है. जाहिर है, जिस तबके के पास उत्पीड़न का विशेषाधिकार यानी सेन्स ऑफ एन्टाइटलमेंट है, बदलाव की राह में बाधाएं वहीं से आएंगी. अगर मर्दवादी व्यवस्था एक अमूर्त अवधारणा नहीं है तो जेन्डर इक्वलिटी भी एक आकस्मिक बदलाव नहीं हो सकता. 

यानी, अगर वाकई बदलाव चाहिए तो #मीटू आंदोलन ने जो शुरुआत की है उसे बचाए रखने की जरूरत है. जब तक बराबरी के उद्देश्य को संस्थागत बनाकर घर-परिवारों और स्कूल-कॉलेजों की आदत में शुमार नहीं किया जाएगा तब तक किसी भी किस्म के बदलाव की उम्मीद बेकार है. जितना एक उत्पीड़क की नेमिंग और शेमिंग करके उसे पदच्युत किया जाना ज़रूरी है, पीड़ितों के हक में कानूनी ढांचे को मजबूत बनाने की जरूरत है, उतना ही जरूरी अपनी उम्र की लड़कियों की स्कर्ट के नीचे झांकते छोटे-छोटे लड़कों को ये बताना है कि सही क्या है और गलत क्या. सुरक्षा, सम्मान और बराबरी के अवसर- #मीटू इंडिया आंदोलन का लक्ष्य बस इतना ही है. 

अनु सिंह चौधरी

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