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मिडनाइट्स चिल्ड्रेन से नाखुश लोग

८ सितम्बर २०१२

भारतीय निर्देशक दीपा मेहता ने सलमान रुश्दी की किताब मिडनाइट्स चिल्ड्रेन पर बनी अपनी फिल्म टोरंटो अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में उतारी लेकिन दर्शकों की प्रतिक्रिया बहुत अच्छी नहीं रही.

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तस्वीर: AP

सलमान रुश्दी की मिडनाइट्स चिल्ड्रेन को बुकर पुरस्कार मिल चुका है और इसे भारत और पाकिस्तान के विभाजन की सबसे मार्मिक कहानियों में गिना जाता है. आलोचकों का कहना है कि मेहता ने फिल्म में भारत की एक खास छवि को बरकरार रखा है. डैनी बॉयल के स्लमडॉग मिलियनेयर के मुकाबले नया फिल्म और भी विदेश सोच के करीब है, यानी इसमें लाल पगड़ी पहने सपेरे हैं, जादूगर हैं और झुग्गियों में रहने वाले आम भारतीय जिनकी अंग्रेजी बहुत अच्छी है.

टोरंटो में भी फिल्म देखने आए लोगों को शायद यही बात खली. फिल्म खत्म होने पर तालियों की गड़गड़ाहट तो दूर, उसका प्रेस रिव्यू भी कुछ खास नहीं था. आलोचकों का कहना है कि सलमान रुश्दी की किताब पर फिल्म बनाना अपने आप में बहुत मुश्किल काम है, खासकर इसलिए क्योंकि किताब की कहानी ही नहीं, बल्कि उसकी भाषा भी अलग है. हालांकि रुश्दी ने मेहता की फिल्म की पटकथा खुद लिखी है.

फिल्म की कहानी दो बच्चों के बारे में है जो 14 अगस्त 1947 में पैदा होते हैं. बच्चों की देखभाल करने वाली आया, जिसका किरदार सीमा बिसवास ने निभाया है, बच्चों को बदल देती है. सत्या भाभा ने सलीम सिनाई की भूमिका निभाई है. शाहाना गोस्वामी ने उनकी मां का और राहुल बोस ने उनके मामा का किरदार निभाया है. फिल्म के अंत में सीमा बिस्वास सलीम के बेटे की खोई मां की जगह ले लेती है और सबके लिए प्यार का मिसाल कायम करती है.

किताब में दोनों बच्चों, सलीम सिनाई और शिवा की जिंदगी की कहानी है. पाकिस्तान और भारत के विभाजन के बाद कहानी बांग्लादेश की आजादी और इमर्जेंसी तक जाती है. फिल्म विश्लेषकों का कहना है कि शुरुआत में तो मेहता का निर्देशन बहुत ही अच्छा है लेकिन इंटरवल के बाद ऐसा लगता है कि भारत के इतिहास को जितनी जल्दी हो सके, उतनी जल्दी बताने की कोशिश की गई है. इसके बावजूद फिल्म बहुत लंबी है और इसमें बॉलिवुड मसाला फिल्मों की भी याद आती है.

एमजी/एनआर(पीटीआई)

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