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महिलाओं की विरह वेदना की भाषा है कजरी

१ जुलाई २०११

कजरी या विरह गीत बिहार और उत्तर प्रदेश की उन महिलाओं की विरह वेदना का साथी है जिनके पति नौकरी के लिए परदेस चले गए हैं. आखिर क्या है यह कजरी और कैसे हुई इसकी शुरूआत.

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Die Selbsthilfegruppe der Frauensparverein im Dorf Majhdalih trifft sich regelmäßig. Pro Monat sparen die Frauen 10 Rupien – umgerechnet um die 20 Eurocent. Doch in der Gruppe wird nicht nur gespart, sondern auch Erneuerungen im Dorf besprochen. Foto: Helle Jeppesen für DW. Die Bilder stammen alle von Helle jeppesen selbst und wurden im August 2010 gemacht.
तस्वीर: DW

गांव में अकले रहने वाली यह महिलाएं बरसात के सीजन में इन गीतों के जरिए ही अपनी विरह वेदना और अकेलेपन का दर्द व्यक्त करती हैं. बदलते समय के साथ साथ लोकसंगीत के दूसरे प्रारूप तो बदल गए लेकिन कजरी जस की तस हैजानलेवा गर्मी के बाद आए मानसून में बरसने वाली बारिश की बूंदें गर्मी की तपिश तो निजात दिलाती हैं. लेकिन एक बड़ा तबका ऐसा भी है जिनके लिए रिमझिम बरसते बादल तपिश और बढ़ा देते हैं.

यह तबका है बिहार और उत्तर प्रदेश में रहने वाली उन महिलाओं का जिनके पति चार पैसे कमाने के लिए परदेस में रहते हैं. वह लोग साल या दो साल में एक बार ही घर आते हैं. जब प्रियतम दूर हो तो भला बारिश की फुहार किसे शीतल लग सकती है. ऐसे में यह महिलाएं अपनी विरह वेदना को जताने के लिए कजरी का सहारा लेती हैं. यही वजह है कि बरसात की पहली फुहार के साथ ही इन इलाकों में घर-घर से कजरी के बोल गूंजने लगते हैं. लोकगायिका पद्मजा कहती हैं कि कजरी विरह वेदना से जूझती महिलाओं के दर्द की अभिव्यक्ति है.

Frauen des Rabha Stammes. Die Rabha leben in den indischen Bundesstaaten West Bengal und Assam. Foto meines DW-Hindi-Kollegen Prabhakar Mani Tiwari in Kolkata, der uns auch die Rechte daran überlässt. Eingestellt Januar 2011
तस्वीर: DW

कैसे हुई शुरूआत

लोककला में बदल चुकी कजरी की शुरूआत आखिर कैसे हुई, कहते हैं कि उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर शहर में कजरी नामक एक महिला रहती थी. उसका पति पैसे कमाने के लिए हजारों मील दूर परदेस गया था. न जाने कितने ही मौसम बीत गए लेकिन उसने घर की सुधि नहीं ली. एक साल बरसात के सीजदन में पत्नी उसकी याद में गाने लगी. गीत का यही रूप आगे चल कर कजरी के नाम से मशहूर हुआ. मिर्जापुर के लोकगायक रामेश्वर दूबे भी इसकी पुष्टि करते हैं.

कजरी के गीतों में मानसून के बारे में आम लोगों की भावनाएं भी शामिल हैं. मानसून के आने से गर्मी से तो निजात मिलती ही है, यह एक नए जीवन की शुरूआत का प्रतीक भी है. खासकर ग्रामीण इलाकों में किसान खेती के लिए अब भी मानसून पर ही निर्भर हैं. मानसून आने के बाद खेतों की जुताई और फसलों की बुवाई का काम शुरू होता है. ऐसे में उनके लिए यह उत्सव का समय होता है. लेकिन जिन महिलाओं के पति उत्सव के इस माहौल में साथ नहीं होते वे अपना अकेलापन दूर करने के लिए कजरी का सहारा लेती हैं. पद्मजा कहती हैं कि कजरी संगीत की ऐसी विधा है जो दुख को भी सुख में बदल कर पेश करती है.

अब बदलते समय के साथ पूरे देश में बालीवुड का हिंदी संगीत पारंपरिक लोकसंगीत की जगह ले रहा है. बालीवुड के अलावा इन इलाकों में खासकर युवा पीढ़ी में भोजपुरी गाने भी काफी लोकप्रिय हो रहे हैं. लेकिन बिहार और उत्तर प्रदेश के शहरी और ग्रामीण इलाकों में कजरी अब भी अपने पारंपरिक स्वरूप में जीवित है. आखिर यह विरह जताने की भाषा है. इसकी जगह कोई फिल्मी संगीत कैसे ले सकता है? विरह की वेदना तो जैसे पहले थी वैसे ही अब भी है. जब विरह की वेदना नहीं बदली तो भला उसे जताने की भाषा कैसे बदल सकती है.

रिपोर्ट: प्रभाकर,कोलकाता

संपादन: ओ सिंह

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