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भारत की आशा को मिला सम्मान लेकिन खुद का जीवन अब भी बेहाल

मनीष कुमार
२७ मई २०२२

आशा अपने नाम के अनुरूप भारत के गांवों में स्वास्थ्य सेवा के लिये लोगों की उम्मीद बन गई हैं. इनकी सेवाओं को लेकर दुनिया इन्हें सलाम कर रही है, लेकिन वे मानदेय, काम की गारंटी और खुद के स्वास्थ्य के मामले में बेहाल हैं.

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गांव की औरतों और बच्चों का सेहत ठीक रखने में बड़ी भूमिका निभा रही हैं आशा
गांव की औरतों और बच्चों का सेहत ठीक रखने में बड़ी भूमिका निभा रही हैं आशातस्वीर: Manish Kumar/DW

कंधे पर झोला और हाथ में रजिस्टर लिए आशा कार्यकर्ता आज भारत के गांव गांव में नजर आती हैं. एक्रेडिटेड सोशल हेल्थ एक्टिविस्ट यानी आशा भारत के गांवों में स्वास्थ्य सेवा की सबसे छोटी ईकाई हैं. स्वास्थ्य से जुड़ी जानकारी उपलब्ध कराने से लेकर सरकारी स्वास्थ्य योजनाओं का लाभ लोगों तक पहुंचाने का काम आशा ही करतीं हैं.

कोरोना काल में इनकी सेवाओं के लिए इन्हें दुनिया भर से सम्मान तो मिला लेकिन सुविधायें नहीं. हाल ही में डब्ल्यूएचओ ने भी इनके काम की बहुत सराहना करते हुए इस परियोजना को सम्मानित किया है. हालांकि सच्चाई यह है कि बहुत मामूली और अनियमित मानदेय पर काम करने वाली इन औरतों के पास कई बार आने जाने के किराये के लिए भी पैसे नहीं होते. ऊपर से काम का दबाव और कई बार तो लोगों की गालियां भी सुननी पड़ती हैं.   

कौन है आशा?

राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम) के अंतर्गत भारत में एक हजार की आबादी पर एक आशा कार्यकर्ता की तैनाती की जाती है. आशा मुख्य रूप से महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य को लेकर काम करती हैं. आशा कार्यकर्ता आबादी तथा प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, स्वास्थ्य उपकेंद्र या अस्पतालों के एक पुल का काम करतीं हैं.

एनएचएम की गाइडलाइन के अनुसार एक आशा कार्यकर्ता को कम से कम आठवीं कक्षा तक शिक्षित, बोलचाल में निपुण व नेतृत्व क्षमता वाली होना चाहिए. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक बिहार में आशा कार्यकर्ता की संख्या लगभग 90,000 है.

आशा कार्यकर्ताओं के पास जिम्मेदारियां बहुत हैं मगर सुविधायें कम
आशा कार्यकर्ताओं के पास जिम्मेदारियां बहुत हैं मगर सुविधायें कमतस्वीर: Manish Kumar/DW

बिहार की राजधानी पटना के फुलवारीशरीफ प्रखंड क्षेत्र की आशा कार्यकर्ता सुनीता स्नातक तक पढ़ी हैं. उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, ‘‘हमारी पूरी दिनचर्या बनी होती है. हमारा काम घर-घर जाकर लोगों को सरकार की स्वास्थ्य संबंधी योजनाओं, साफ-सफाई के तरीके व पोषण की जानकारी देना है. हम गर्भवती स्त्रियों और नवजात के स्वास्थ्य को लेकर बड़ी जिम्मेदारी निभाते हैं. सुरक्षित प्रसव के लिए हम उन्हें प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) या सरकारी अस्पताल तक ले जाते हैं."

आशा कार्यकर्ता बच्चे के जन्म के बाद तीसरे या फिर सातवें दिन भी उनके घर जाती हैं और जरूरत के अनुरूप सलाह देते हैं. अपने कार्यक्षेत्र में ये जन्म-मरण की सूचना भी पीएचसी को देते हैं.

सुनीता के साथ हम एक महादलित टोले में पहुंचे. वहां उन्होंने अपने बैग से एक रजिस्टर निकाला और फिर उस घर के दरवाजे पर खड़ी हो गईं, जहां एक महिला गर्भवती थी. सुनीता ने प्यार से उस गर्भवती महिला से हालचाल पूछा और फिर घर के अंदर चलीं गईं. बाहर आने पर कहा, ‘‘गर्भावस्था की कुछ परेशानी के बारे में बता रही थी. मैंने लिख लिया है. कल इन्हें लेकर पीएचसी में डॉक्टर मैडम से दिखलाऊंगी.''

काम का बोझ

सुनिता ने बताया हैं, ‘‘हमलोग आठ रजिस्टर मेंटेन करते हैं. हमारे पास सब दर्ज होता है कि किस घर में कोई गर्भवती है या फिर कितने महीने के गर्भ से है. उसी हिसाब से उन्हें सलाह देती हूं. जब प्रसव का समय नजदीक आता है तो परिवार नियोजन के बारे में बताती हूं.''

हमें ये बताने के बाद फिर वे उस घर के बाहर खड़ी हो जाती हैं, जहां बच्चे की किलकारी गूंज रही होती है. सुनिता ने कहा, ‘‘इसकी मां को स्तनपान के बारे में बताना है, पोषण का सही तरीका बताना है, बच्चे के टीकाकरण के लिए तैयार करना है.''

गर्भावस्था से लेकर बच्चे के जन्म और उसके बाद भी मां और बच्चे का ख्याल रखने में मदद करती हैं आशा
गर्भावस्था से लेकर बच्चे के जन्म और उसके बाद भी मां और बच्चे का ख्याल रखने में मदद करती हैं आशातस्वीर: Manish Kumar/DW

इसके बाद हमारी मुलाकात मुन्नी से हुई. वे भी आशा दीदी हैं. कुछ महिलाओं ने उन्हें घेर रखा था. मैंने उनके पास खड़ी महिलाओं से पूछा कि आपको क्या बता रही हैं तो उनमें से एक ने तपाक से कहा, ‘‘पहले हम जिसका नाम लेने में शर्माते थे और उस कारण बीमार हो जाते थे. आशा दीदी ने हमें सैनिटरी पैड के बारे में बताया ही नहीं, लाकर दिया. अब मैं और मेरी बेटी पीरियड में इसका इस्तेमाल करते हैं. हमें पता है, क्या करना चाहिए और क्या नहीं.'' परिवार नियोजन से लेकर गर्भावस्था और महिलाओं के स्वास्थ्य की बुनियादी जानकारी देना इनके काम में शामिल है.

थोड़ी देर के बाद मुन्नी हमारे साथ निकल पड़ीं. यह पूछने पर कि आशा के रूप में काम कर कैसा लग रहा है. वे कहतीं हैं, ‘‘पहले तो यही पता था कि ब्लॉक में जो बताया जाएगा, उसे गांव में जाकर महिलाओं को बताना है. एक दिन के 150 रुपये मिलते थे. धीरे-धीरे ट्रेनिंग में जाने लगी तो कुछ नया सीखना-समझना अच्छा लगने लगा. अब तो कोई ट्रेनिंग नहीं छोड़ती हूं. बहुत कुछ समझ गई हूं. प्राथमिक उपचार तो कर ही देती हूं.''

घर-परिवार और मानदेय के बारे में पूछने पर कहती हैं, ‘‘अपने रूटीन कार्य के अलावा हम लोग सरकार के हर अभियान चाहे कृमि दिवस या फाइलेरिया दिवस पर चलाया जाता है, साथ खड़े होते हैं, उसे अंजाम तक पहुंचाते हैं. लेकिन जितना काम लिया जाता है, उस हिसाब से हमें कुछ भी नहीं मिलता है. हम आशा कार्यकर्ताओं की बात भी कोई नहीं सुन रहा.''

काम के बदले गालियां

इसके बाद हमारी मुलाकात आशा फैसिलिटेटर अनिता से हुई. उनके अधीन 20 आशा कार्यकर्ता हैं. जब हमने पूछा कि अगर कोई संक्रामक रोग की चपेट में आ जाये तो वे क्या करती हैं. अनिता ने बताया, ‘‘परिस्थिति के अनुसार हम काम करते हैं. अगर स्थिति भयावह लगती है तो सबसे पहले पीएचसी को सूचित करते हैं. नहीं तो उसकी दवा यदि हमारे पास होती है तो दे देती हूं या फिर दवा के बारे में बताती हूं. महिलाओं को उनकी जरूरत के अनुसार आयरन, फॉलिक एसिड व गर्भ निरोधक गोलियां भी देती हूं. कोरोना महामारी के दौरान जब लोग घरों में कैद हो गए थे तो पहली लहर में हम लोग घर-घर जाकर सर्वे कर रहे थे, क्वारंटाइन सेंटर पर तैनात थे. फिर इसके बाद टीकाकरण में जुट गए.''

दिल्ली में मानदेय बढ़ाने के लिए प्रदर्शन करतीं आशा
दिल्ली में मानदेय बढ़ाने के लिए प्रदर्शन करतीं आशातस्वीर: Murali Krishnan/DW

अनीता कहतीं हैं, ‘‘काम से उस समय बड़ी संतुष्टि मिलती है जब कोई महिला कहती है कि दीदी, मेरा बच्चा आपकी बदौलत बच गया या फिर आपकी बदौलत हमारी जान बच गई. लेकिन, उस समय बड़ा ही बुरा लगता है जब लोग घर का दरवाजा नहीं खोलते या फिर यह कह कर भगा देते हैं कि हमें कुछ नहीं बताना, यह तो आपका रोज का काम है. कोरोना में बहुत गालियां खाईं हैं हम सभी ने.''

कितने पैसे मिलते हैं

पारिश्रमिक के बारे में पूछने पर इन लोगों के चेहरे उतर गये. सुनीता ने कहा, ‘‘काम के अनुसार पैसा नहीं मिलता है. 2800 रुपये से क्या होता है. आज एक मजदूर को भी 400 रुपया रोजाना मिलता है. हमें तो उस हिसाब से कुछ भी नहीं मिलता है और जो मिलता भी है वह भी दो-तीन महीने पर. सरकार को हमलोगों का पैसा बढ़ाना चाहिए.''

पैसे के बारे में अनीता कहती हैं, ‘‘सब कुछ मिलाकर यूं समझ लीजिए प्रतिमाह 2800 रुपये मिलते हैं. इसके अंदर मानदेय का एक हजार भी तब मिलेगा जब हम गृह भ्रमण करना (एचबीएनसी), ग्राम स्वास्थ्य दिवस-आशा दिवस में भाग लेना, गर्भवती महिला की जांच करवाना, प्रसव कराना, परिवार नियोजन करवाना, टीकाकरण करवाने का काम करेंगे. पैसे की बहुत परेशानी है. कभी-कभी तो पीएचसी जाने के लिए किराये के भी पैसे नहीं होते.''

कोरोना काल में आशा कार्यकर्ताओं ने खुद को जोखिम में डाल कर बहुत मेहनत की
कोरोना काल में आशा कार्यकर्ताओं ने खुद को जोखिम में डाल कर बहुत मेहनत कीतस्वीर: Danish Siddiqui/REUTERS

एक आर आशा कार्यकर्ता सुधा तो पैसे के बारे में पूछने पर फूट पड़ीं, ‘‘जितना काम हमलोगों के जिम्मे है, उसके लिए 24 घंटा भी कम पड़ेगा. काम तो हम सरकार के लिए करते हैं, लेकिन हमें सरकारी कर्मचारी नहीं माना जाता है, हमें वेतन नहीं मिलता."

वहीं आशा के पारिश्रमिक पर स्वास्थ्य विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी का कहना था कि यह एक बड़ा और पेचीदा मुद्दा है. इसका पैसा केंद्र से रिलीज होता है और उसके वितरण का काम राज्य देखता है. यह सच है कि आशा का काम लगातार बढ़ा है. इस पर ध्यान देने की जरूरत है. पटना हाईकोर्ट ने भी कोरोना काल में इनके कार्यों की सराहना की है.

मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता यानी आशा की डगर बेहद मुश्किल है. यह भी सच है कि आशा कार्यकर्ता देश के स्वास्थ्य ढांचे की रीढ़ हैं. किसी भी अभियान को गांवों तक मूर्तरूप देने में उनकी खासी भूमिका है. अगर इनकी सेहत ठीक नहीं रही तो इसका असर सीधे देश की सेहत पर पड़ेगा.