1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

बाढ़ से खेती को बचाएंगी धान की नई किस्में

प्रभाकर मणि तिवारी
४ जून २०२१

यूं तो पूर्वोत्तर भारत का असम प्रांत परंपरागत रूप से बाढ़ का शिकार रहा है, लेकिन ग्लोबल वार्मिंग ने उसकी मुश्किलें बढ़ा दी हैं. हर साल आने वाली बाढ़ का सामना करने के लिए मौसम के अनुकूल बीज विकसित किए जा रहे हैं.

https://p.dw.com/p/3uSGD
Indien Reisfeld
तस्वीर: STR/AFP/Getty Images

ग्लोबल वार्मिंग की वजह से पूर्वोत्तर राज्य असम में अब साल में कई बार बाढ़ आने लगी है. इससे खेतों में लगी फसलें नष्ट हो जाती हैं. राज्य में खेती ही आजीविका का प्रमुख साधन है और यहां धान की पैदावार सबसे ज्यादा होती है. बाढ़ किसानों की साल भर की मेहनत अपने साथ बहा ले जाती है. अब असम कृषि विश्वविद्यालय ने धान की ऐसी किस्में विकसित की हैं जिन पर बाढ़ का खास असर नहीं होगा. भले यह लंबे समय तक पानी में डूबी रहे. 

नए बीज के इस्तेमाल से बढ़ा उत्पादन

माजुली जिले के किसान मोहित पेगू और गांव के बाकी लोगों को वर्ष 2018 की बाढ़ में काफी नुकसान उठाना पड़ा था. मई से अक्तूबर के बीच कई बार आने वाली बाढ़ ने करीब तीन हेक्टेयर में धान की फसल को पूरी तरह नष्ट कर दिया था. इसमें कोई नई बात नहीं थी. ग्लोबल वार्मिंग के असर से पूर्वोत्तर राज्य असम में बारिश का सीजन शुरू होते ही कई दौर में बाढ़ आती रहती है. लंबे समय तक खेतों में पानी भरा होने की वजह से फसलें नष्ट होना स्वाभाविक है. राज्य में धान की खेती ही लोगों की आजीविका का प्रमुख साधन हैं.

लेकिन अब असम कृषि विश्वविद्यालय ने धान की बहादुर सब-1 और रंजीत सब-1 नामक ऐसी दो नई किस्में विकसित हैं जो लंबे समय तक पानी में डूबे रहने के बावजूद खराब नहीं होते. तीन साल पहले गांव के कुछ लोगों ने परीक्षण के तौर पर धान की इन नई किस्मों की खेती की थी. नतीजे बेहतर रहने के बाद अब ज्यादा से ज्यादा लोग इनको अपना रहे हैं.

दिलचस्प बात यह है कि इन नई किस्मों से कम लागत में पहले के मुकाबले उत्पादन कई गुना बढ़ गया है. गांव के हेमंत पेगू बताते हैं, "पहले हम 20 किलो धान की रोपाई करते थे तो चार-पांच सौ किलो फसल पैदा होती थी. लेकिन अब एक किलो धान की रोपाई से ही इतनी उपज मिल जाती है. मैंने उत्पादन बढ़ाने का नया तरीका भी इस्तेमाल किया है. नतीजतन मैं हर साल धान बेच कर कम से कम पचास हजार रुपए कमा रहा हूं.”

निचले असम के नलबाड़ी जिले के रहने वाले मोहम्मद निसार ने रंजीत सब-1 किस्म के बीज से अपने खेतो में उत्पादन दोगुना कर लिया है. बाढ़ के दौरान दो-दो सप्ताह तक खेतों के पानी में डूबे रहने  बावजूद इस फसल को कोई नुकसान नहीं होता. वह बताते हैं, "धान के इस बीज के इस्तेमाल से पहले 1.33 एकड़ खेत में मुश्किल से चालीस क्विंटल चावल पैदा होता था. लेकिन नए किस्म के बीज और खेती के तरीके में बदलाव की वजह से अब मैं घर के खर्च के बाद हर साल 10-15 हजार रुपए का चावल बेच लेता हूं.” वे सेवेन सिस्टर्स डेवलपमेंट असिस्टेंस की मदद से खेती के नए तरीके के जरिए अपने खेतों में अच्छी खासी सब्जियां और हरी मिर्च भी उगा लेते हैं.

Indien Reisfeld
पानी में होने वाले धान की किस्में मदद कर रही हैंतस्वीर: N.Nanu/AFP/Getty Images

बाढ़ से हर साल होता है नुकसान

असम की सबसे प्रमुख ब्रह्मपुत्र और बराक नदियों की कम से कम पचास सहायक नदियां हैं. इनकी वजह से यह राज्य बाढ़ के प्रति बेहद संवेदनशील है. सीजन की पहली बरसात के साथ ही धेमाजी और जुली समेत ऊपरी असम के तमाम इलाके इसकी चपेट में आ जाते हैं. इसके साथ ही माजुली समेत कई इलाकों में  भूमि कटाव का खतरा भी बढ़ जाता है. राष्ट्रीय बाढ़ आयोग के आंकड़ों के मुताबिक, राज्य का 30 लाख हेक्टेयर से ज्यादा यानी करीब 40 फीसदी इलाका बाढ़ के प्रति बेहद संवेदनशील है. इनमें खेती वाले 4.75 लाख हेक्टेयर इलाके भी शामिल हैं. राज्य में 28 लाख हेक्टेयर जमीन पर खेती होती है.

इन आंकड़ों से साफ है कि खेती लायक जमीन का 17 फीसदी हिस्सा हर साल कई बार बाढ़ में डूबता है. इससे खेती पर निर्भर किसानों को भारी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. धान की पारंपरिक खेती करने वालों को फसलों के नुकसान और उत्पादन में गिरावट जैसी समस्याओं से जूझना पड़ता है.राज्य में करीब 28 लाख परिवार आजीविका के लिए पूरी तरह खेती पर ही निर्भर हैं.

पूर्वोत्तर में काम करने वाले संगठन सेवेन सिस्टर्स डेवलपमेंट असिस्टेंस, जिसने किसानों को धान की नई किस्मों के बीज मुहैया कराए हैं, के प्रोग्राम निदेशक देवाशीष नाथ कहते हैं, "किसानों को खेती के आधुनिक तरीकों के साथ ऐसे बीज अपनाने होंगे जिन पर बाढ़ का कोई असर नहीं हो.”

Indien Hochwasser Überschwemmung
असम में नियमित रूप से आती है बाढ़तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/A. Nath

बाढ़ की गंभीर होती समस्या

वैसे, बाढ़ असम के लिए नई नहीं है. इतिहासकारों ने अहोम साम्राज्य के शासनकाल के दौरान भी हर साल आने वाली बाढ़ का जिक्र किया है. पहले के लोगों ने इससे बचने के लिए प्राकृतिक तरीके अपनाए थे. इसलिए बाढ़ की हालत में जान-माल का नुकसान कम से कम होता था.  लेकिन अब साल-दर-साल यह समस्या गंभीर होती जा रही है. भारत, तिब्बत, भूटान और बांग्लादेश यानी चार देशों से गुजरने वाली ब्रह्मपुत्र नदी असम को दो हिस्सों में बांटती है. इसकी दर्जनों सहायक नदियां भी हैं. तिब्बत से निकलने वाली यह नदी अपने साथ भारी मात्रा में गाद लेकर आती है. वह गाद धीरे-धीरे असम के मैदानी इलाकों में जमा होता रहता है. इससे नदी की गहराई कम होती है. इससे पानी बढ़ने पर बाढ़ और तटकटाव की गंभीर समस्या पैदा हो जाती है.

विशेषज्ञों का कहना है कि इंसानी गतिविधियों ने भी परिस्थिति को और जटिल बना दिया है. बीते करीब छह दशकों के दौरान असम सरकार ने ब्रह्मपुत्र  के किनारे तटबंध बनाने पर तीस हजार करोड़ रुपए खर्च किए हैं. विशेषज्ञों की राय में ग्लोबल वार्मिंग की वजह से तिब्बत के ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने और उसके तुरंत बाद मानसून सीजन शुरू होने की वजह से ब्रह्मपुत्र और दूसरी नदियों का पानी काफी तेज गति से असम के मैदानी इलाकों में पहुंचता है. पर्यावरणविद् अरूप कुमार दत्त ने अपनी पुस्तक द ब्रह्मपुत्र में लिखा है कि पहाड़ियों से आने वाला पानी ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियों का जलस्तर अचानक बढ़ा देता है. यही वजह है कि राज्य में सालाना बाढ़ की समस्या गंभीर हो रही है. इलाके में जल्दी-जल्दी आने वाले भूकंप समस्या को और गंभीर बना देते हैं.

असम कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक एस.चेतिया बताते हैं, "बार-बार आने वाली बाढ़ से धान की फसलों को बचाने के लिए हमने धान की दो-तीन ऐसी किस्में विकसित की हैं जो लंबे समय तक बाढ़ के पानी में डूबी रहने के बावजूद प्रभावित नहीं होती. इससे उत्पादन भी प्रभावित नहीं होता.” चेतिया के मुताबिक, सबसे पहले वर्ष 2018 में इसे परीक्षण के तौर पर आजमाया गया था. बीते तीन वर्षों में किसानों को करीब साढ़े तीन हजार टन ऐसे बीज बांटे जा चुके हैं. इससे किसानों के लिए खुशहाली के नए दरवाजे खुल रहे हैं.

इस विषय पर और जानकारी को स्किप करें

इस विषय पर और जानकारी