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आस्था

बंगाल में भी है एक सबरीमाला

प्रभाकर मणि तिवारी
६ नवम्बर २०१८

केरल का सबरीमाला भले ही चर्चा में हो, प्रगतिशीलता के तमाम दावे करने वाले पश्चिम बंगाल में भी एक सबरीमाला है. और यह राज्य के किसी दूर-दराज के इलाके नहीं बल्कि राजधानी कोलकाता में ही है.

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Indien Kalkutta - Tempel zu Ehren Göttin Kali wo Frauen nicht erlaubt sind
तस्वीर: DW/P. Tewari

केरल के सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के मुद्दे पर जारी गतिरोध अभी थमा नहीं है. सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बावजूद तमाम संगठनों के विरोध की वजह से अब तक कोई महिला मंदिर के भीतर घुस नहीं सकी है. यह विवाद तो महीनों से पूरी दुनिया में सुर्खियां बटोर रहा है. लेकिन यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि प्रगतिशीलता के तमाम दावे करने वाले पश्चिम बंगाल में भी एक सबरीमाला है. और यह राज्य के किसी दूर-दराज के इलाके में नहीं बल्कि राजधानी कोलकाता में ही है. दिलचस्प बात यह है कि यहां लगभग साढ़े तीन दशकों से महिलाओं को पूजा पंडाल में प्रवेश नहीं करने देने की परंपरा का न तो खास विरोध हो रहा है और न ही किसी महिला संगठन ने यह मुद्दा उठाया है. बंगाल में दिवाली के एक दिन पहले ही कालीपूजा का आयोजन किया जाता है. इस साल आज ही के दिन यह पूजा आयोजित हो रही है.

पुरानी है परंपरा

कोलकाता के दक्षिणी इलाके में स्थित चेतला प्रदीप संघ पूजा समिति के पंडाल में 34 साल पहले कालीपूजा की शुरुआत से ही महिलाओं के प्रवेश की मनाही है. यहां यह मान्यता है कि अगर महिलाएं पंडाल में आईं या फिर पूजा से संबंधित किसी काम में हाथ बंटाया तो इलाके में भारी प्राकृतिक विपत्ति आ सकती है. इन 34 वर्षों में से 27 साल यहां लेफ्टफ्रंट का शासन रहा है. लेकिन बावजूद इसके उस आयोजन समिति की परंपरा नहीं टूटी है. अब सबरीमाला विवाद के जोर पकड़ने के बाद कुछ बुद्धिजीवी इस परंपरा का विरोध कर रहे हैं. लेकिन समिति के सदस्य या इलाके की महिलाएं ही इसके खिलाफ हैं.

पूजा समिति के आयोजकों का कहना है कि 34 साल पहले बीरभूम जिले के तारापीठ में स्थित शक्तिपीठ के पुजारियों ने इस पूजा की शुरुआत की थी. उसी समय से पंडाल में महिलाओं को प्रवेश नहीं करने दिया जाता. समिति के संयुक्त सचिव शैवाल गुहा बताते हैं, "बरसों से यह मान्यता है कि अगर पंडाल में पूजा के दौरान किसी महिला को प्रवेश करने दिया गया तो इलाके में भारी विपत्ति आएगी. हम अब तक इस परंपरा का पालन करते रहे हैं.” वह कहते हैं कि 34 साल पुरानी यह परंपरा तोड़ी नहीं जा सकती.

इस आयोजन में प्रसाद तैयार करने से लेकर बाकी तमाम काम पुरुष ही करते हैं. समिति के एक सदस्य साहेब दास बताते हैं, "पूजा समिति में महिला सदस्य भी हैं. लेकिन पूजा के दौरान देवी के नाराज होने के डर से वह पंडाल में प्रवेश नहीं करतीं. यह महिलाएं कुम्हारटोली से पंडाल तक मूर्ति लाने और विसर्जन जैसे कार्यों में पुरुषों के साथ मिल कर काम करती हैं.” आयोजन समिति के एक अन्य सदस्य विश्वजीत बरूआ बताते हैं, "इस पूजा के शुरू होने की कहानी भी दिलचस्प है.

कोलकाता के मशहूर कालीघाट मंदिर के एक पुजारी को इस बारे में सपना आया था. उसके बाद तारापीठ स्थित कालीमंदिर से चार पुरोहितों को बुला कर इस पूजा की शुरुआत की गई. लेकिन उन पुरोहितों ने उस समय जो नियम तय किए थे आज तक उनका कड़ाई से पालन किया जा रहा है.” वैसे, दिलचस्प बात यह है कि देश के 51 शक्तिपीठों में शुमार तारापीठ के मंदिर में भी ऐसा कोई नियम नहीं है कि महिलाएं मंदिर में पूजा-अर्चना नहीं कर सकतीं.

विरोध के स्वर

आयोजकों की दलील है कि किसी अनहोनी या दैवीय प्रकोप की आशंका से महिलाएं खुद ही इस पूजा में शामिल नहीं होना चाहतीं. छोटी लड़कियां भी पंडाल में प्रवेश नहीं करती हैं. बरूआ कहते हैं, "हम पूजा पंडाल को बाहर से बांस की चारदीवारी से घेर देते हैं ताकि महिलाएं इसे छू भी नहीं सकें.” पूजा समिति के सदस्य मनोज घोष कहते हैं, "हम महिलाओं को इस आयोजन में शामिल करना चाहते हैं. लेकिन तारापीठ के तांत्रिकों-पुरोहितों के बनाए नियमों की वजह से चाह कर भी ऐसा नहीं कर सकते.”

इलाके की एक महिला सबिता दास बताती है, मैं बीते 20 साल से यह सब देख रही हूं. लेकिन महिलाएं खुद इस परंपरा को नहीं तोड़ना चाहतीं. यह हमारी मान्यता में रच-बस गई है.” इलाके में पली-बढ़ी मिठू मंत्री कहती हैं, "मैंने बचपन से ही इस पूजा को देखा है. यहां शुरू से ही महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी है. हमें इस पर हैरत नहीं होती. हम पूरी श्रद्धा से इस नियम का पालन करते हैं.” पंडाल के पास रहने वाली पूर्णिमा दास कहती है, "भगवान के फैसले पर सवाल उठाना सही नहीं है. यह आस्था का सवाल है.”

Indien Kalkutta - Tempel zu Ehren Göttin Kali wo Frauen nicht erlaubt sind
तस्वीर: DW/P. Tewari

अब सबरीमाला का मुद्दा गरमाने के बाद इस साल कुछ बुद्धिजीवी इस परंपरा के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं. बुद्धिजीवियों ने इस पंरपरा को पितृसत्तात्मक मानसिकता का परिचायक करार दिया है. एक पुरोहित एनपी भादुड़ी सवाल करते हैं, "अगर ऐसा है तो समिति देवी की पूजा क्यों कर रही है? इस परंपरा का शास्त्रों से कोई लेना-देना नहीं है.” वह कहते हैं कि किसी मंदिर में पूजा के दौरान महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी लगाने का कोई नियम नहीं है.

एक अन्य विद्वान देवेश राजपुरोहित कहते हैं, "किसी मंदिर के भीतर या प्रतिमा के पास महिलाओं को जाने से नहीं रोका जा सकता. लगभग साढ़े तीन दशकों से चली आ रही इस परंपरा को बदलना जरूरी है. मौजूदा दौर में इसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती.” लेकिन विद्वानों और बुद्धिजीवियों के विरोध के बावजूद न तो आयोजन समिति इस परंपरा को बदलने के पक्ष में है और न ही महिलाएं. ऐसे में बंगाल के इस सबरीमाला की परंपरा भविष्य में भी जारी रहने की संभावना है.

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