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पुलिस हिरासत में मौत के मामले में यूपी नंबर वन

समीरात्मज मिश्र
२७ जुलाई २०२२

लोकसभा में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की पेश की गई रिपोर्ट से पता चलता है कि देश में हर दिन छह लोगों की मौत पुलिस हिरासत में हो रही है. इस मामले में पिछले दो साल से उत्तर प्रदेश पहले नंबर पर है.

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Indien Uttar Pradesh Polizei
तस्वीर: Prabhat Kumar Verma/Pacific Press/picture alliance

भारत में पुलिस सुधार को लेकर लंबे समय से बहस चल रही है और हिरासत में होने वाली मौतों का आंकड़ा इस ओर अक्सर ध्यान खींचता है. केंद्रीय गृह मंत्रालय की ओर से मंगलवार को लोकसभा में पेश किए गए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट के कुछ आंकड़े हैरान करने वाले हैं. इनके मुताबिक भारत में पिछले दो साल में हिरासत में होने वाली कुल मौतों की संख्या 4484 जिनमें सबसे ज्यादा मौतें उत्तर प्रदेश और फिर पश्चिम बंगाल में हुई हैं.

मौत की एक चौथाई घटना केवल यूपी में

केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने बताया कि अकेले उत्तर प्रदेश में 2021-22 में हिरासत में कुल 501 मौतें हुईं जबकि इससे पहले यानी 2020-21 में हिरासत में मौत के 451 मामले दर्ज किए गए. यूपी के बाद पश्चिम बंगाल और फिर मध्य प्रदेश का नंबर आता है.

वहीं देश भर में 2021-22 में हिरासत में हुई मौतों का आंकड़ा 2544 है जबकि 2020-21 में यह संख्या 1940 थी. 1 अप्रैल 2020 से लेकर 31 मार्च 2022 तक के आंकड़ों की जानकारी देते हुए गृह राज्य मंत्री ने बताया कि 'पुलिस' और 'पब्लिक ऑर्डर' राज्य के विषय हैं और लोगों के मानवाधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए राज्य सरकार ही प्राथमिक रूप से जिम्मेदार है, लेकिन केंद्र सरकार भी समय-समय पर एडवाइजरी जारी करती है.

हिरासत में मौत के मामले में पश्चिम बंगाल दूसरे नंबर पर है
हिरासत में मौत के मामले में पश्चिम बंगाल दूसरे नंबर पर हैतस्वीर: Satyajit Shaw/DW

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग यानी एनएचआरसी की रिपोर्ट के मुताबिक देश भर में साल 2021-22 में न्यायिक हिरासत में 2,152 लोगों की मौत हुई जबकि 155 लोगों की मौत पुलिस कस्टडी में हुई. यानी, हिरासत में हर रोज 6 लोगों की मौत हो रही है. केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के सांसद अब्दुस्समद समदानी के एक सवाल के जवाब में इन आंकड़ों को पेश किया.

अदालत की फटकार

हिरासत में मौत के ये आंकड़े उस वक्त आए हैं जब एक दिन पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने जेल में बंद अंडरट्रायल कैदियों के मामले में यूपी सरकार को कड़ी फटकार लगाई है. 25 जुलाई को दस साल से भी ज्यादा से हिरासत में बंद 853 कैदियों के मामलों की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने यूपी सरकार से कहा कि यदि वह इनकी रिहाई का फैसला नहीं लेती तो कोर्ट एक साथ सबकी जमानत के आदेश जारी कर देगी. सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में इन कैदियों का पूरा ब्यौरा और दो हफ्ते में जवाब मांगा है.

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पुलिस हिरासत में मौत के मामले में उत्तर प्रदेश सरकार और राज्य की पुलिस अक्सर सवालों के घेरे में रहती है. पिछले साल नवंबर में कासगंज में अल्ताफ नाम के एक व्यक्ति की हिरासत में मौत हुई थी. पुलिस ने पहले तो इस मौत को आत्महत्या बताने की कोशिश की लेकिन अल्ताफ के परिजनों ने कासगंज पुलिस पर हत्या का आरोप लगाया. आरोप प्रथमद्रष्ट्या सही पाए जाने पर पांच पुलिसकर्मियों को निलंबित कर दिया गया. मामले की जांच अभी भी चल रही है. कुछ ऐसा ही मामला में बुलंदशहर में भी हुआ था. ऐसे मामलों में पुलिस पहले आत्महत्या की थ्योरी गढ़ती है लेकिन अक्सर उसकी यह थ्योरी अदालत तक पहुंचते-पहुंचते तथ्यों और प्रमाणों के आधार पर फेल हो जाती है.

गैरकानूनी हिरासत

पुलिस कई बार कुछ मामलों में अभियुक्तों को हिरासत में लेती है और उनसे बिना कोर्ट की रिमांड के भी पूछताछ करती है. हालांकि संवैधानिक रूप से उसे 24 घंटे के भीतर अभियुक्त को किसी मजिस्ट्रेट के सामने पेश करना होता है लेकिन कई बार पुलिसकर्मी अभियुक्तों से थाने पर ही पूछताछ करते हैं और रिकॉर्ड में दर्ज ही नहीं करते. इस पूछताछ के दौरान अक्सर बल प्रयोग भी किया जाता है और कई बार अभियुक्तों की मौत हो जाती है. कई बार मजिस्ट्रेट के सामने पेश करने के बाद कोर्ट की इजाजत से पुलिस पूछताछ के लिए अभियुक्त को रिमांड पर लेती है.

पुलिस हिरासत में उत्पीड़न और मौत के मामलों पर देश के मुख्य न्यायाधीश  एनवी रमना ने भी पिछले दिनों चिंता जताई थी. पिछले साल एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा था, "संवैधानिक रक्षा कवच के बावजूद अभी भी पुलिस हिरासत में शोषण, उत्पीड़न और मौत होती है. इसके चलते पुलिस थानों में ही मानवाधिकार उल्लंघन की आशंका बढ़ जाती है. पुलिस जब किसी को हिरासत में लेती है तो उस व्यक्ति को तत्काल कानूनी मदद नहीं मिलती है. गिरफ्तारी के बाद ही अभियुक्त को यह डर सताने लगता है कि आगे क्या होगा?"

हिरासत में मौत 'जघन्य अपराध'

सुप्रीम कोर्ट ने साल 1996 में एक मामले में फैसला सुनाते हुए कहा था कि हिरासत में हुई मौत कानून के शासन में सबसे जघन्य अपराध है. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद हिरासत में हुई मौतों का विवरण दर्ज करने के साथ-साथ संबंधित लोगों को इसकी जानकारी देना भी अनिवार्य बना दिया गया. यही नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने किसी भी व्यक्ति की गिरफ्तारी के दौरान पुलिस के व्यवहार को लेकर भी नियम निर्धारित कर दिए. ये नियम ना सिर्फ पुलिस पर बल्कि रेलवे, सीआरपीएफ, राजस्व विभाग सहित उन तमाम सुरक्षा एजेंसियों पर भी लागू होते हैं जो अभियुक्तों को पूछताछ के लिए गिरफ्तार कर सकती हैं.

जयपुर में पुलिस महिला बाइकर स्क्वॉड

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अभी एक हफ्ते पहले ही यूपी के अमरोहा में पुलिस हिरासत में एक युवक की मौत हो गई थी जिसके बाद काफी हंगामा हुआ. युवक के परिजनों का आरोप था कि युवक के साथ मामूली विवाद होने पर पुलिसकर्मियों ने चौकी पर ले जाकर उसे इतना मारा-पीटा कि उसकी मौत हो गई. इस मामले में अमरोहा रेलवे स्टेशन स्थित आरपीएफ पुलिस चौकी के सात पुलिसर्मियों को निलंबित कर दिया गया और उनके खिलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज कर लिया गया.

गरीब और शोषितों को ज्यादा परेशानी

यूपी के डीजीपी रहे रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी डॉक्टर वीएन राय कहते हैं कि न्याय व्यवस्था का आम लोगों से दूर होना और उसमें खामियों की वजह से भी हिरासत में मौत के मामलों में बढ़ोत्तरी हो रही है. उनके मुताबिक, "दरअसल, न्याय प्रणाली आम नागरिकों के लिए सुलभ नहीं है. संविधान में चाहे जितनी व्यवस्था हो और सुप्रीम कोर्ट के निर्देश हों लेकिन आम आदमी अब भी उसकी पहुंच से दूर है. हिरासत में मौत के मामलों में ज्यादातर गरीब, पिछड़े और शोषित वर्ग के लोग ही शिकार होते हैं.”

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डॉक्टर वीएन राय आगे कहते हैं कि अमीर लोगों से पुलिस आमतौर पर इस स्तर पर पूछताछ नहीं करती है क्योंकि उसे कानून का डर रहता है, "ऊंची पहुंच वालों को पुलिस वाले ना तो मार-पीट पाते हैं और ना ही उन्हें लंबे समय तक हिरासत में रख सकते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि यह गैर-कानूनी है और अदालत के पचड़े में आ जाएंगे. गरीब और कम पढ़ा-लिखा तबका यह नहीं जानता. गिरफ्तारी के संबंध में संविधान में पर्याप्त सुरक्षा उपाय दिए गए हैं लेकिन पुलिस व्यवस्था की घिसी-पिटी परंपरा आज भी नागरिकों के अनुकूल नहीं बन पाई. व्यापक तौर पर पुलिस सुधार की जरूरत है अन्यथा देश एक पुलिस राज्य में तब्दील हो जाएगा क्योंकि राज्य सरकारों का अक्सर पुलिस को समर्थन रहता है और सरकार पुलिस को बचाती भी है.”