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दूरियों को पाटती जर्मन सलामी

२४ जुलाई २००९

जर्मनी में इस हफ्ते रिलीज़ हुई सलामी अलइकुम नाम की फिल्म. यह एक कॉमेडी फिल्म है जिसमें कई तरह के सामाजिक मुद्दों को उठाया गया है. भले ही वो विदेशियों के प्रति एक बेगाना व्यवहार हो या अपना अस्तित्व ढूंढते युवा.

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कॉमेडी फ़िल्म का एक दृश्यतस्वीर: Zorro Film

कई बार मज़ाक मज़ाक में भी बेहद संजीदा बातों का समझाया जा सकता है. यही कोशिश की है ईरानी मूल के जर्मन निर्देशक अली समादी अहादी ने. "लॉस्ट चिल्ड्रेन" नाम की डॉक्युमेंटरी फिल्म के लिए जर्मन फिल्म पुरस्कार जीत चुके अहादी इस बार मैदान में उतरे हैं एक कॉमेडी फिल्म के साथ. पिछली बार अफ्रीकी देश यूगांडा में बच्चों की स्थिति पर फिल्म बनाकर अहादी ने दर्शकों को भावुक कर दिया था और इस बार वे लोगों को हंसा हंसा कर रुलाना चाहते हैं.

Film Salami Aleikum
दो संस्कृतियों में मेल मिलाप करने की कोशिश करती फ़िल्म सलामी अलइकुल का एक नज़ारातस्वीर: Zorro Film

सलामी अलइकुम, यह फिल्म है मोहसिन की, एक ईरानी लड़के की, जो 30 साल का है और अपने परिवार के साथ रहता है. वह क़साई परिवार से है और उससे यही उम्मीद की जाती है कि वह भी क़साई का काम करे. लेकिन उसे तो ख़ून से डर लगता है. बकरे को काटना तो दूर की बात है. मोहसिन के पिता उसे अपने खानदान पर कलंक मानते हैं. अपने पिता के तानों से तंग आ कर मोहसिन घर छोड़ कर भाग जाता है. जर्मनी के कोलोन शहर में रहने वाला मोहसिन अपनी पहचान और काम ढूंढने की चाह में पोलैंड की तरफ निकल पड़ता है. लेकिन क़िस्मत उसे पूर्वी जर्मनी के एक छोटे से गांव में पहुंचा देती है. जर्मनी और पश्चिमी देशों में सलामी शौक से खाई जाती है, जो मांस से बनती है.

यहां से शुरू होती है मोहसिन की लव स्टोरी. पूर्वी जर्मनी के इस गांव में उसकी मुलाकात होती है आना से, जो एक ट्रक मकैनिक है. आम तौर पर हीरो हीरोइन को दुनिया से बचाता है. पर यहां उलटी गंगा बहती है. दरअसल मोहसिन ऐसे गांव में पहुंच जाता है, जहां के लोगों में जर्मन एकीकरण के बाद से पश्चिमी जर्मनी के लोगों तथा विदेशियों के खिलाफ अविश्वास पैदा हो गया था. इसीलिए वे मोहसिन को भी नहीं अपनाते. इन लोगों के ग़ुस्से से मोहसिन को बचाती है आना.

Film Salami Aleikum
हंसी मज़ाक से भरी फ़िल्म का दृश्यतस्वीर: Zorro Film

मोहसिन जहां एक तरफ गांव वालों के साथ अपनी पहचान की जंग लड़ता है, वहीं दूसरी तरफ़ वह आना के मां बाप के दिल में भी अपने लिए जगह बनाने की पूरी कोशिश करता है. इसके लिए उसे कई झूठ भी बोलने पड़ते हैं. वह ख़ुद को कपड़े की मिल का मालिक बताता है. कहानी में ट्विस्ट तब आता है जब मोहसिन के माता पिता उसके पीछे पीछे उसी गांव में पहुंच जाते है.

एक तरफ कट्टर जर्मन माता पिता और दूसरी तरफ कट्टर ईरानी परिवार. अपने प्यार को हासिल करने के लिए दोनों परिवारों के बीच पिस्ता है मोहसिन. बॉलीवुड की ही तरह नाच गानों से भरी इस जर्मन फिल्म में निर्देशक अली समादी अहादी ने ये दिखाने की कोशिश की है कि किस तरह से जर्मनी के एकीकरण के 20 साल बाद भी लोगों के दिलों से एक दूसरे को लेकर मतभेद दूर नहीं हुए हैं. शायद फ़िल्म का यह व्यंग्य दिलों की दूरियों को कुछ कम कर सके.

रिपोर्टः ईशा भाटिया

संपादनः ए जमाल