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समाज

दिल्ली के कब्रिस्तानों में जगह कम पड़ रही है

६ अक्टूबर २०२०

दिल्ली भारत की राजधानी है जहां लगभग पौने दो करोड़ लोग रहते हैं. राजधानी की सबसे पुरानी कब्रगाह पुरानी दिल्ली में है. कोरोना महामारी में मरने वालों की बढ़ती तादाद के कारण कब्रगाह को बढ़ाया जा रहा है.

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Coronavirus | Indien Neu Delhi | neue Gräber für Covid-19-Opfer
तस्वीर: Danish Siddiqui/Reuters

केंद्रीय दिल्ली की ऐतिहासिक कब्रगाह के खाली पड़े हिस्से की सफाई कर मजदूर 400 नई कब्रों के लिए जगह बना रहे हैं. पिछले हफ्तों में भारत में कोरोना महामारी के फैलने की गति में तेजी आई है. देश भर में 67 लाख लोग संक्रमित हो चुके हैं, 100,000 से ज्यादा लोग मर चुके हैं और महामारी के रुकने का कोई संकेत नहीं दिख रहा है. भले ही 56 लाख संक्रमित लोग ठीक हो चुके हैं, लेकिन हर रोज औसत एक हजार लोगों की मौत हो रही है.

इस साल अप्रैल के महीने में इस्लामिक जदीद कब्रिस्तान में कोरोना से मरने वाले पहले आदमी को दफनाया गया था. उसके बाद से महामारी से होने वाली मौतों के लिए तय कब्रिस्तान के एक हिस्से में 700 से अधिक लोग दफनाए जा चुके हैं. हालांकि दिल्ली में कई कब्रगाह हैं लेकिन सरकार ने कोरोना वायरस की वजह से होने वाली मौतों के दफन के लिए छह कब्रगाहों को तय किया है.

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कब्रगाह की बढ़ती जरूरतेंतस्वीर: Danish Siddiqui/Reuters

कब्र खोदने का काम करने वाले मोहम्मद शमीम कहते हैं, "हम उम्मीद नहीं कर रहे थे कि हमें कब्रों के लिए और ज्यादा जमीन को खाली करना होगा." 38 वर्षीय शमीम के परिवार में तीन पीढ़ियों से यही काम हो रहा है. वह कहते हैं, "शव तो बस आते ही जा रहे हैं."

संक्रमण में कमी से वायरस की वजह से होने वाले अंतिम संस्कार में भी कमी आई है. गर्मियों में हर रोज 10 लाशें आ रही थीं तो अब ये तादाद घटकर रोजाना 4 रह गई थी. लेकिन शमीम कहते हैं कि 1924 में अंग्रेजों के शासन के दौरान बने इस कब्रिस्तान में जल्द ही जगह नहीं बचेगी. वे कहते हैं, "जिस तरह से चीजें बढ़ रही हैं, मुझे लगता है कि आने वाले महीनों में कब्रगाह की जमीन के बाकी हिस्से भी नहीं बचेंगे."

1.4 अरब की जनसंख्या वाले भारत में बहुसंख्यक आबादी हिंदुओं की है. आमतौर पर मृत्यु के बाद उनका दाह संस्कार होता है. वहीं देश में मुसलमानों की आबादी लगभग 20 करोड़ है. शमीम कहते हैं कि पास ही स्थित हिंदुओं के एक श्मशान के मजदूरों की तरह उन्हें भी अक्सर कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है. वे कहते हैं, "हम पिछले आठ महीनों से बहुत काम कर रहे हैं, लेकिन व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण को लेकर सरकार की ओर से शायद ही कोई मदद मिली है."

एमजे/एके (रॉयटर्स)

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