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झूठे साबित होने पर भी भेजे गए व्हाट्सऐप पर संदेश 

चारु कार्तिकेय
२ सितम्बर २०२०

हार्वर्ड के एक अध्ययन में दावा किया गया है कि 2019 के लोक सभा चुनावों के दौरान झूठे साबित होने के बाद भी संदेशों को व्हाट्सऐप पर आगे भेजा गया था.

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तस्वीर: picture-alliance/PIXSELL/I. Soban

अध्ययन के नतीजे हार्वर्ड केनेडी स्कूल के जर्नल मिसइंफॉर्मेशन रिव्यू में छपे हैं. अध्ययन में भारत के अलावा 2018 में ब्राजील में हुए चुनावों के दौरान भ्रामक जानकारी फैलाने के लिए व्हाट्सऐप के इस्तेमाल पर भी रोशनी डाली गई है.

रिसर्चरों ने 2019 में फरवरी से लेकर जून तक भारतीय यूजरों वाले 4,200 व्हाट्सऐप समूहों के संदेशों में से विशेष रूप से उन संदेशों का अध्ययन किया जिनमें तस्वीरें थीं. राजनीतिक चर्चा वाले इन समूहों में कुल मिलाकर 63,500 यूजर थे और 8,10,000 तस्वीरों वाले संदेश थे. कुल संदेशों में तस्वीरों वाले संदेशों का हिस्सा 30 प्रतिशत था.

इन तस्वीरों में से 200 से ज्यादा ऐसी तस्वीरों को निकाला गया जिन्हें कोई ना कोई फैक्ट-चेक करने वाली एजेंसी पहले से भ्रामक जानकारी फैलाने वाला बता चुकी थी. इस शोध में पाया गया कि इन तस्वीरों को जितनी बार आगे भेजा गया उसमें से 82 प्रतिशत बार उन्हें तब साझा किया जब उन्हें पहले से ही किसी ना किसी फैक्ट-चेक करने वाली एजेंसी या वेबसाइट ने भ्रामक बताया दिया था.

इसके कई मायने हैं. राजनीतिक चैट समूहों में इस तरह की गतिविधि का पाया जाना यह दिखाता है कि किस तरह भ्रामक जानकारी का प्रसार आज की राजनीति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया है. भ्रामक पाए जाने के बाद भी किसी संदेश का बड़ी संख्या में आगे भेजा जाना यह साबित करता है कि जान बूझकर और नियोजित ढंग से भ्रामक जानकारी फैलाई जा रही है और इसे राजनीतिक स्तर पर प्रोत्साहन मिल रहा है.

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शोध में पाया गया कि भ्रामक जानकारी फैलाने वाली तस्वीरों को जितनी बार आगे भेजा गया उसमें से 82 प्रतिशत बार उन्हें तब साझा किया जब उन्हें पहले से ही किसी ना किसी फैक्ट-चेक करने वाली एजेंसी या वेबसाइट ने भ्रामक बताया दिया था.तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/A. Qadri

रिसर्च करने वाली टीम का मानना है कि इससे यह भी साबित होता है कि अगर व्हाट्सऐप ही पहले से फैक्ट-चेक किए गए संदेशों की पहचान कर उन्हें झूठा बता दे तो उनके प्रसार को काफी कम किया जा सकता है. टीम ने सुझाव दिया है कि व्हाट्सऐप पहले से झूठे साबित हो चुकी तस्वीरों के हैश (एक तरह के कोड) को इकठ्ठा कर सकता है और अपने ऐप के अंदर ही रख सकता है, जिससे जब भी कोई व्हाट्सऐप अपने मोबाइल पर डाउनलोड करेगा, उन तस्वीरों के हैश उसके मोबाइल में भी आ जाएंगे.

इसके बाद जब भी वो व्यक्ति व्हाट्सऐप पर अपने फोन से कोई तस्वीर भेजना शुरू करे तब व्हाट्सऐप इस बात की पड़ताल कर ले कि कहीं ये तस्वीर उन्हीं तस्वीरों में से तो नहीं है जिनके हैश मोबाइल पर मौजूद हैं. अगर है तो या तो व्हाट्सएप्प उस पर चेतावनी का एक लेबल लगा दे या उसे आगे भेजने से इंकार कर दे. ऐसी ही पड़ताल उसी मोबाइल पर आने वाले हर तस्वीरों वाले संदेश की भी की जा सकती है और भ्रामक तस्वीरों का पता लगाया जा सकता है.

शोधकर्ताओं का कहना है कि व्हाट्सऐप का एक सिरे से दूसरे सिरे तक एन्क्रिप्शन का मॉडल इस सुझाव के रास्ते में अवरोधक नहीं है, क्योंकि व्हाट्सऐप वैसे भी बच्चों की अश्लील तस्वीरें, ड्रग्स इत्यादि जैसी गैर कानूनी चीजों के प्रसार को रोकने के लिए प्रोफाइल तस्वीरें और मेटाडाटा को स्कैन करता है और पाए जाने पर उस खाते की अलग से पुष्टि करता है और उसे बैन कर देता है. टीम का कहना है कि उसके प्रस्ताव के अनुसार व्हाट्सऐप को यही प्रक्रिया इस विषय में भी अपनानी चाहिए.

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भ्रामक पाए जाने के बाद भी किसी संदेश का बड़ी संख्या में आगे भेजा जाना यह साबित करता है कि जान बूझकर और नियोजित ढंग से भ्रामक जानकारी फैलाई जा रही है और इसे राजनीतिक स्तर पर प्रोत्साहन मिल रहा है.तस्वीर: Getty Images/AFP/I. Mukherjee

भारत में जानी मानी फैक्ट-चेक वेबसाइट ऑल्ट न्यूज के संस्थापक प्रतीक सिन्हा ने डीडब्ल्यू को बताया की इस तरह के अध्ययन इस बात को रेखांकित करते हैं कि फैक्ट-चेक करने का उद्देश्य भ्रामक जानकारी के बारे में जागरूकता फैलाना है और ये अपने आप में इस समस्या का समाधान नहीं है. उनका ये मानना है कि व्हाट्सएप्प जैसे तकनीकी प्लेटफॉर्म चाहें तो ऐसी तकनीक का जरूर उपयोग कर सकते हैं जिससे इस समस्या पर काबू पाया जा सके.

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