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जेल में बंद लेखकों के लिए लड़ाई

१६ नवम्बर २०११

लिखना इतना मुश्किल नहीं है जितना लिखने के नतीजों को सहना. पिटाई, जेल, अपहरण, कत्ल. नतीजा कुछ भी हो सकता है. क्योंकि लिखने वाले कम हैं उन्हें चुप कराने वाले ज्यादा. इसी साल लेखकों को चुप कराने की 647 घटनाएं हो चुकी हैं.

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PEN Zentrum in Sarajevo. Schild am Gebäude vom PEN Zentrum in Sarajevo. Das Bild wurde im September, 2011 in Sarajevo, Bosnien und Herzegowina von der Korrespondentin der Bosnischen Redaktion der DW Ljiljana Pirolic
तस्वीर: DW/Ljiljana Pirolic

मंगलवार को दुनियाभर में 'जेल में बंद लेखकों का दिन' मनाया गया. 15 नवंबर का यह दिन उन लेखकों को समर्पित होता है जो अपने लिखे की वजह से विभिन्न देशों की जेलों में बंद है. लेखकों की अंतरराष्ट्रीय संस्था पेन (पीईएन) के लिए यह दिन अपनी उन कोशिशों का हिस्सा है जो वह कैद में बंद लेखकों की मदद के लिए करती है.

क्या करती है पेन

पेन के पास एक सूची है जिसमें सैकड़ों लेखकों और पत्रकारों के नाम हैं. ये सब किसी न किसी जेल में बंद हैं या फिर गायब हो गए हैं. और केसलिस्ट के नाम से जानी जाने वाली इस सूची में हर छह महीने पर नए नाम जोड़ दिए जाते हैं.

2011 के पहले छह महीने में इस सूची में 647 नाम जोड़े गए. इनमें से ज्यादातर मामले तो सार्वजनिक तक नहीं हो पाते. हां कुछ पर हंगामा हो जाता है. जैसे रूस की पत्रकार अन्ना पोलित्कोवस्काया या फिर तुर्क-आर्मेनियाई लेखक ह्रांट डिंक. ऐसा माना जाता है कि इन दोनों को अपने अपने देशों की सत्ता पर सवाल उठाने वाले शब्द लिखने के लिए कत्ल कर दिया गया. इसी तरह 1980 के दशक में जब भारतीय मूल के लेखक सलमान रुश्दी के खिलाफ फतवे जारी हुए थे तब भी खूब हंगामा हुआ था.

लेकिन ये मामले उतने अहम नहीं हैं. महत्वपूर्ण मामले वे हैं जिन्हें लुका छिपा कर रखा जाता है, जिनका जिक्र तक बाहर नहीं आने दिया जाता. और यहीं से पेन का काम शुरू होता है. इस संस्था की शाखाएं लगभग हर देश में हैं. 90 साल पहले इस संस्था को बनाया तो गया था दुनिया में शांति और आपसी समझ को बढ़ावा देने के लिए, लेकिन लेखकों, पत्रकारों की आवाजों को चुप कराने के इतने सारे मामले होने लगे कि 1960 में जेल में लेखक नाम से एक समिति बनाई गई. इस समिति को धमकाए जा रहे या फिर लिखने से रोके जा रहे लेखकों की मदद का काम सौंपा गया.

कैसे कैसे तरीके

जर्मनी में जेल में लेखक के उपाध्यक्ष टीवी रिपोर्टर रहे डिर्क जागर हैं. शीत युद्ध के समय वह मॉस्को और पूर्वी बर्लिन में पश्चिमी जर्मनी के टीवी चैनल जेडडीएफ के संवादादाता थे. पूर्वी जर्मन सरकार के राज में काम करने के दौरान उन्होंने जाना कि किस तरह आवाजों को चुप कराया जाता है. हालांकि वह कहते हैं कि उन्हें कोई बहुत बड़ी धमकियां नहीं मिलीं. वह बताते हैं, "ईरान की मिसाल लीजिए. वहां तो लेखकों और पत्रकारों का सरकार के साथ विवाद होता ही रहता है. और फिर उन्हें जेल पहुंचा दिया जाता है. यह बेहद भयानक है."

ईरान की एविन जेल तो राजनैतिक कैदियों और असहमति की आवाज उठाने वाले लेखकों को यातना देने के लिए ही बदनाम है. ईरान की लेखिका मरीना नेमत ने उस जेल में दो साल बिताए हैं. तब वह सिर्फ 16 साल की थीं और अपने स्कूल में उन्होंने एक आलोचनात्मक लेख लिखा था. सालों बाद निर्वासन के दौरान वह अपनी कहानी को कहने की हिम्मत जुटा पाईं. उन्होंने यातनाओं की क्रूर कहानियां सुनाईं. उन्होंने शारीरिक शोषण, कालकोठरियों और कत्ल की बातें बताईं. क्योंकि उनके साथ जेल में बंद कोई शख्स बाहर नहीं आया.

आसान नहीं मदद

ऐसे लेखकों या पत्रकारों की मदद कोई आसान काम नहीं है. जागर कहते हैं, "दुर्भाग्य से, ईरान का यह अत्याचार पश्चिम के प्रभाव से बिल्कुल दूर है." इसी तरह चीन के मामले में भी पेन को बेबसी का अहसास होता है. शांति का नोबेल जीत चुके लिउ शियाओबो चीन में पेन के अध्यक्ष हैं. लेकिन वह जेल में हैं. 2009 के दिसंबर में उन्हें विद्रोह के आरोपों में 11 साल की जेल की सजा सुनाई गई. उनकी पत्नी को भी घर में नजरबंद कर दिया गया है. उनका अपराध था चीनी बुद्धिजीवियों के बनाए एक मेनिफेस्टो पर दस्तखत करना. कार्टा 08 नाम के इस मेनिफेस्टो में चीन में लोकतांत्रिक सुधारों की बात की गई है. इस पर साढ़े तीन सौ बुद्धिजीवियों ने दस्तखत किए हैं.

चीन में कितने लेखक या पत्रकार जेलों में बंद हैं, इसका सही सही पता भी नहीं है. कुछ तो गायब ही हो गए हैं. और उन्हें ऐसे ऐसे आरोपों में हिरासत में लिया गया है कि सुनकर हैरत होती है. मसलन ट्रैफिक को अवैध तरीके से रोकने का आरोप.

जागर कहते हैं, "चीन की सरकार का तर्क है कि लेखक अपनी राय और शब्दों के जरिए सरकार को उखाड़ फेंकना चाहते हैं. यानी सत्ता के ढांचे पर और नियंत्रण पर सवाल उठाए जाते हैं. सत्ता में बैठे लोग इससे डरते हैं और क्रूरतम तरीके से जवाब देते हैं."

तुर्की से लेकर बेलारूस तक, हर जगह यही समस्या है. लेकिन इतनी निराशाजनक स्थिति के बावजूद पेन को कई बार कामयाबी मिली है. क्यूबा में पिछले साल ही 75 लोग रिहा कराए गए. वे अब स्पेन में रहते हैं. इसके लिए अलग अलग तरीके इस्तेमाल किये जाते हैं. बातचीत से लेकर दुनियाभर में हंगामा खड़ा करने की धमकी तक सब कुछ होता है. जागर बताते हैं कि जर्मन शाखा तो दूसरे देशों में लेखकों की मदद के लिए अपनी सरकार की भी मदद लेती है.

जागर जानते हैं कि पेन की सूची पूरी नहीं है. यह हर साल लंबी होती जाती है. और साथ साथ तेज होती जाती हैं कोशिशें. जागर कहते हैं, "वे आज इसलिए यातनाएं झेल रहे हैं क्योंकि वे बेहतर कल के लिए लड़े. हम उन्हें अकेला नहीं छोड़ सकते."

रिपोर्टः जिल्के वुन्श/वी कुमार

संपादनः आभा एम