जंग तेज होने से अफगानिस्तान के कालीन पर संकट
अफगानिस्तान के प्राचीन कालीन उद्योग में बीते साल एक बार फिर बिक्री में गिरावट आई और कारोबार आधा हो गया. तालिबान के साथ लड़ाई तेज होने और पाकिस्तान की तरफ से सीमा पर नियंत्रण बढ़ने का कालीन कारोबार पर सीधा असर पड़ा है.
सदियों पुराना कालीन उद्योग
अफगानिस्तान में कालीन बनाने और बेचने का काम कम से कम 2500 साल पुराना है. कहा जाता है कि दुनिया जीतने निकले सिकंदर ने अपनी मां के लिए अफगानिस्तान से कालीन भेजा था.
ट्रांसपोर्ट की दिक्कत
कासिमी के काबुल फैक्ट्री ने ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी और ब्रिटेन में शोरूम खोल कर सीधे कालीन बेचने की कोशिश की. हवाई जहाज से भेजने के कारण ट्रांसपोर्ट का खर्चा तीन गुना हो गया. ऐसे में उन्हें कीमतें बढ़ानी पड़ी. दूसरी तरफ पाकिस्तानी व्यापारी समुद्री रास्ते का इस्तेमाल कर वही सामान सस्ते में मुहैया करा देते हैं.
सागर तट से दूरी
जंग और गरीबी से जूझते अफगानिस्तान में परिवहन की सुविधाएं सीमित हैं और समुद्री इलाकों से दूर होने के कारण दुनिया से सीधा संपर्क भी नहीं है, कालीन के कारोबार पर इन सब कारणों का भी भारी असर है.
रोजगार का जरिया
काबुल में कालीन की इस फैक्ट्री में महिलाएं करघे पर बुनाई करती नजर आती हैं जबकि पुरुष चेहरे पर मास्क लगा कर रेशों के गट्ठरों की छंटाई करते हैं.
एक साल में निर्यात आधा
अफगानिस्तान से दुनिया के मुल्कों को वैध तरीके से बेची जाने वाली चीजों में कालीन चौथे नंबर पर है. 2016-17 में कुल 3.8 करोड़ अमेरिकी डॉलर के कालीन का निर्यात हुआ. इससे पहले के साल में यह रकम 8.95 करोड़ अमेरिकी डॉलर थी. जब देश में अमन चैन था तब यह रकम 15 करोड़ डॉलर तक होती थी.
पाकिस्तान का सहारा
अफगानिस्तान के कालीन का 85 फीसदी पाकिस्तान जाता है. पाकिस्तान के व्यापारी इन कालीनों पर 10-15 फीसदी मुनाफा लेकर इन्हें दोबारा निर्यात करते हैं. पाकिस्तान के बंदरगाहों पर उसकी निर्भरता और जब तब सीमा पर सख्ती का असर कालीन उद्योग पर पड़ता है. बीते साल तोरखाम का रास्ता 40 दिनों तक बंद रहा.
खास अफगान कालीन
कालीन उद्योग कई अरब और एशियाई देशों में फैला है. अफगान कालीन अपने गहरे लाल रंग. हाथ से की गई बुनाई, और घनी गांठ वाली डिजाइनों के लिए विख्यात है. यह सिंथेटिक धागों से मशीन पर बुनी गई कालीनों की तुलना में ज्यादा आकर्षक और टिकाऊ होती हैं.
गरीब देश का कीमती कालीन
शानदार कसीदाकारी वाली कालीन इस गरीब मुल्क से दुनिया को बेची जाने वाली सबसे अहम चीज है. लेकिन बीते एक दशक में कुल निर्यात में इसकी हिस्सेदारी 27 फीसदी से घट कर महज छह फीसदी रह गई है.
दोनों देशों को फायदा
कालीनों को पाकिस्तान भेजने की एक और वजह भी है. अफगानिस्तान में कालीनों की धुलाई की अच्छी सुविधा नहीं है जबकि यह काम पाकिस्तान में बड़ी आसानी से हो जाता है. दोनों देशों के उद्योग को इस साझीदारी से फायदा होता है.
बनाने वालों को नहीं मिलता पैसा
35 साल के अली रजा घर पर बुनाई करते हैं. तीन कारीगरों के साथ एक कालीन बनाने में करीब एक महीने लगते हैं जिसके लिए उन्हें करीब 118 डॉलर की रकम मिलती है. वे बताते हैं कि इतने कम पैसों में परिवार चला पाना काफी मुश्किल है.
50 साल की कालीन
इस्तालिफ गैलरी में हाथ से बुनी हुई कालीनें बिक्री के लिए रखी गई हैं. इन्हें भेड़ों और ऊंटों से मिलने वाली ऊन से बनाया गया है. इन कालीनों पर हाथी के पैर और फूलों की आकृतियां बनाई गई हैं. इनमें से कुछ तो 50 साल पुरानी हैं.
अफगान लोगों की पहुंच से बाहर
अफगानिस्तान में इतनी गरीबी है कि लोगों के लिए अपने ही देश में बनी कालीनों को खरीद पाना मुश्किल है. अफगानिस्तान में बने कालीनों की कीमत 70 से 250 डॉलर प्रति वर्ग मीटर होती है. अफगानिस्तान की औसत आय इससे बहुत कम है.
सरकार की कोशिश
कालीन उद्योग को उबारने के लिए वाणिज्य मंत्रालय भारत और दुबई की हवाई यात्रा का खर्च घटाने की तैयारी में है. इसके साथ ही आर्थिक मदद और मार्केटिंग को बढ़ावा दे कर उद्योग को संकट से निकालने की तैयारी की जा रही है.