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चुनाव से पहले नौकरशाही का राजनीतिकरण

समीरात्मज मिश्र
१२ जनवरी २०२२

उत्तर प्रदेश में चुनाव की घोषणा के बाद ही वरिष्ठ पुलिस अधिकारी असीम अरुण ने इस्तीफा देकर बीजेपी में आस्था जताई है. कुछ वरिष्ठ नौकरशाहों को हटाने की विपक्षी दलों की मांग के बाद नौकरशाही के राजनीतिकरण पर बहस शुरू हुई.

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अफसरों को आकर्षित कर रहे हैं योगी आदित्यनाथतस्वीर: Samiratmaj Mishra/DW

असीम अरुण यूपी के पूर्व डीजीपी श्रीराम अरुण के बेटे हैं. श्रीराम अरुण मायावती सरकार में दो बार डीजीपी रहे और दोनों ही बार बीएसपी भारतीय जनता पार्टी के समर्थन से सरकार चला रही थी. संयोग ही है कि वीआरएस के लिए आवेदन करने और राजनीति में जाने की घोषणा के बाद उनकी एक तस्वीर यूपी के एक अन्य रिटायर्ड डीजीपी डॉक्टर ब्रजलाल के साथ सोशल मीडिया में आई. डॉक्टर ब्रजलाल भी एक समय में बीएसपी सुप्रीमो मायावती के बेहद करीबी थे और उन्हीं के समय में राज्य के डीजीपी रहे लेकिन साल 2015 में वो बीजेपी में शामिल हो गए और बीजेपी ने उन्हें राज्यसभा में भेज दिया है.

कानपुर में कमिश्नर प्रणाली लागू होने के बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस पद पर असीम अरुण को पहली तैनाती दी थी. बीजेपी से उनके रिश्ते कैसे थे, यह सेवा में रहते हुए तो नहीं पता चले क्योंकि वो इस तरह चर्चित अधिकारी नहीं रहे कि उन पर किसी पार्टी का करीबी होने का ठप्पा लगे लेकिन उनकी पृष्ठभूमि और क्रोनोलॉजी बता रही है कि चुनाव की घोषणा के साथ ही उनका वीआरएस लेना, तुरंत बीजेपी के प्रति आस्था जताना और विधानसभा में टिकट की उम्मीद लगा लेना अचानक नहीं था. चर्चा है कि बीजेपी असीम अरुण को उस कन्नौज सदर सीट से अपना उम्मीदवार बना सकती है जिसे वह 2017 की लहर में भी नहीं जीत पाई थी.

अफसरों को हटाने की विपक्षी दलों की मांग

इस सीट पर समाजवादी पार्टी के अनिल दोहरे विधायक हैं. इत्र नगरी कन्नौज में बीजेपी के एक सांसद और तीन में से दो विधायक हैं. साल 2019 में बीजेपी नेता सुब्रत पाठक ने कन्नौज लोकसभा सीट पर सपा प्रमुख अखिलेश यादव की पत्नी डिम्पल यादव को हराया था. असीम अरुण ने चुनाव आते ही वीआरएस लेकर अपनी राजनीतिक इच्छाशक्ति जाहिर कर दी लेकिन कुछेक अधिकारियों के राजनीतिक रुझान को लेकर विपक्षी दलों ने आपत्ति जताई है. यूं तो ऐसे कई अधिकारी अक्सर चर्चा में रहते हैं और न सिर्फ मौजूदा सरकार में बल्कि उसके पहले की सरकारों में भी रहे हैं, लेकिन समाजवादी पार्टी और कांग्रेस पार्टी ने कुछ वरिष्ठ नौकरशाहों की तैनाती को लेकर आपत्ति जताई है.

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समाजवादी पार्टी ने कई अफसरों को उनके पदों से बटाने की मांग की हैतस्वीर: Samiratmaj Mishra/DW

समाजवादी पार्टी ने अपर मुख्य सचिव गृह अवनीश कुमार अवस्थी, अपर मुख्य सचिव सूचना नवनीत सहगल, अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक कानून व्यवस्था प्रशांत कुमार और एसटीएफ प्रमुख अमिताभ यश को उनके मौजूदा पदों से हटाने की चुनाव आयोग से अपील की है. पार्टी का कहना है कि इन अधिकारियों के रहते निष्पक्षता की उम्मीद नहीं की जा सकती है. दिलचस्प बात यह है कि इन अधिकारियों में अपर मुख्य सचिव सूचना नवनीत सहगल भी शामिल हैं जो पिछली समाजवादी सरकार में भी बेहद अहम भूमिका में थे और उससे पहले मायावती के नेतृत्व वाली बीएसपी सरकार में भी. लेकिन अब वही समाजवादी पार्टी उनकी तैनाती पर ऐतराज जता रही है और उन्हें बीजेपी का करीबी बता रही है.

अफसरी छोड़कर मंत्री बनने की मिसालें

नौकरशाहों के राजनीतिक रुझान की चर्चाएं अक्सर होती रहती हैं और रिटायरमेंट के बाद कई अधिकारी राजनीतिक पार्टियों में न सिर्फ शामिल हुए बल्कि चुनाव भी लड़े और मंत्री भी बने. लेकिन सरकारी सेवा में रहते ही यदि कोई अधिकारी स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति लेकर राजनीतिक पार्टी में शामिल होकर चुनाव लड़ने की तैयारी करने लगे तो सेवा के दौरान उसकी निरपेक्षता पर संदेह होना स्वाभाविक है. खासकर तब, जब अधिकारी रिटायरमेंट लेकर सत्तारूढ़ दल में शामिल हो जाए. हालांकि ऐसे भी कई उदाहरण हैं जब राजनीति में आने की इच्छा से लोगों ने नौकरशाही से इस्तीफा दे दिया लेकिन राजनीति में उन्हें कुछ मिला भी नहीं.

ताजातरीन उदाहरण बिहार के डीजीपी रहे गुप्तेश्वर पांडेय का है जिन्होंने डीजीपी जैसे शीर्ष पद से इस उम्मीद में इस्तीफा दे दिया कि नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यूनाइटेड उन्हें टिकट दे देगी और वे चुनाव जीतकर विधानसभा में पहुंच जाएंगे. लेकिन जदयू ने न तो उन्हें टिकट दिया, न ही विधानपरिषद या राज्यसभा भेजा और न ही पार्टी में कोई तवज्जो दी. गुप्तेश्वर पांडेय अब जगह-जगह घूमकर भागवत कथा सुना रहे हैं.

हाल के दिनों में यदि उत्तर प्रदेश में देखें तो कई अधिकारियों ने राजनीति की राह पकड़ी और दिलचस्प बात यह है कि ज्यादातर ने बीजेपी का ही दामन थामा. असीम अरुण के अलावा प्रवर्तन निदेशालय में संयुक्त निदेशक राजेश्वर सिंह ने भी वीआरएस के लिए आवेदन किया था और उनका आवेदन भी स्वीकार कर लिया गया है. माना जा रहा है कि वो भी बीजेपी से टिकट के दावेदार हैं. एक साल पहले पीएमओ में वरिष्ठ पद पर रहते हुए अरविंद कुमार शर्मा वीआरएस लेकर यूपी बीजेपी में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं.

नौकरशाही और बीजेपी का पुराना प्रेम

नौकरशाहों से बीजेपी का प्रेम काफी पुराना है और जनसंघ के जमाने से ही चला आ रहा है. साल 1967 में फैजाबाद के डीएम रहे केके नायर जनसंघ के टिकट पर बहराइच से लोकसभा पहुंचे थे. यूपी के डीजीपी रहे श्रीशचंद्र दीक्षित पहले बीजेपी में आए और बाद में विश्व हिन्दू परिषद में चले गए और राममंदिर आंदोलन में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. वीएचपी नेता अशोक सिंघल के भाई बीपी सिंघल, यूपी के डीजीपी रहे ब्रजलाल, यशवंत सिन्हा, विदेश मंत्री एस जयशंकर, रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव जैसे तमाम अधिकारी इस सूची में शामिल हैं.

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अमेरिकी विदेश मंत्री ब्लिंकेन के साथ एस जयशंकरतस्वीर: Jonathan Ernst/Pool Photo/AP/picture alliance

वरिष्ठ पत्रकार अरविंद सिंह कहते हैं, "बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व नौकरशाही पर काफी भरोसा करता है. यहां तक कि अक्सर इनके कार्यकर्ता भी ये आरोप लगाते हैं लेकिन नौकरशाहों से बीजेपी का प्रेम जगजाहिर है. प्रधानमंत्री खुद नौकरशाही के हाथ में हर चीज सौंपने के मुखर विरोधी हैं लेकिन नौकरशाहों को सीधे वो विदेश जैसे विभागों का मंत्री बना देते हैं. अभी भी केंद्र और राज्य सरकारों, खासकर यूपी पर यह आरोप लगते रहे हैं कि कुछ नौकरशाह पार्टी के नेताओं तक की अनदेखी करते है. इन स्थितियों में नौकरशाहों और पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में जो रिश्ते बनते हैं वो बाद में राजनीतिक रिश्तों में तब्दील हो जाते हैं. ऐसा पिछली सरकारों और दूसरी राजनीतिक पार्टियों में भी हुआ है, पर बीजेपी में कुछ ज्यादा ही दिखता है.”

पार्टी कार्यकर्ताओं का गिरता है मनोबल

नौकरशाहों के सरकारी सेवा छोड़कर तुरंत राजनीति में स्थापित होने की स्थिति न सिर्फ शासन और प्रशासन के लिहाज से ठीक है और न ही राजनीति के लिहाज से. मेरठ के एक कॉलेज में राजनीति विज्ञान पढ़ाने वाले प्रोफेसर सतीश प्रकाश कहते हैं, "अधिकारियों के इस तरह के राजनीतिक प्रवेश से पार्टियों के संगठन और उनके कार्यकर्ताओं पर भी असर पड़ता है. जिस व्यक्ति ने दशकों तक अफसर बनकर काम किया होगा वो जनता और कार्यकर्ताओं के साथ समन्वय बनाकर नहीं चल पाएगा. दूसरे, वो आते ही राजनीति में यदि स्थापित हो जाता है तो लंबे समय से पार्टियों में काम कर रहे कार्यकर्ता भी मायूस होते हैं. दूसरी बात यह कि लोकतंत्र के विभिन्न खंभों के बीच जो संबंध है, नौकरशाही के राजनीतिकरण से उस पर भी सवाल उठते हैं.”

राजनीतिक विश्लेषक इस प्रवृत्ति को इसलिए भी लोकतंत्र के लिए खतरनाक बताते हैं क्योंकि नौकरी छोड़कर तुरंत सत्ताधारी पार्टी में या किसी अन्य पार्टी में शामिल होना यह दिखाता है कि अमुक अधिकारी उस दल के प्रति निरपेक्ष नहीं रहा होगा और अधिकारियों से यह अपेक्षा नहीं की जाती है कि वो सरकार के बजाय किसी खास दल के प्रति निष्ठावान रहें.

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