चुनाव आए तो याद आए पुरुलिया के दस्तकार
पश्चिम बंगाल के पुरुलिया को छऊ नृत्य के लिए दुनिया भर में जाना जाता है. इसके बावजूद इस नृत्य के लिए जरूरी मुखौटों को बनाने वाले गरीब दस्तकारों का जीवन संघर्ष भरा है.
चारिदा गांव
पुरुलिया के बाघमुंडी में अयोध्या पहाड़ों के पास स्थित है चारिदा गांव, जिसे मुखौटों वाला गांव भी कहा जाता है. छऊ नृत्य में इस्तेमाल किए जाने वाले विविध और रंगीन मुखौटे यहीं बनते हैं. इस गांव में सैकड़ों परिवार रहते हैं, जिनमें से कई परिवार पीढ़ियों से ये मुखौटे बनाते आ रहे हैं.
छऊ नृत्य के मुखौटे
चारिदा को दूर दूर तक इन मुखौटों की वजह से ही जाना जाता है. ये रंग-बिरंगे और आकर्षक मुखौटों के बिना छऊ अधूरा है. इन मुखौटों और रंगीन पोशाकों को पहन कर छऊ नर्तक कभी देवी-देवताओं की भूमिका में तो कभी दंतकथाओं के किसी नायक की भूमिका में नाच प्रस्तुत करते हैं.
घर भी सजाते हैं मुखौटे
इन दिनों इन मुखौटों का इस्तेमाल सिर्फ नृत्य के लिए ही नहीं बल्कि घर की दीवारों को सजाने के लिए भी किया जाता है. कई तरह के मुखौटों में यहां के दस्तकारों का हुनर देखते ही बनता है.
कैसे बनते हैं मुखौटे
सबसे पहले सांचों में मिट्टी को भरा जाता है और सुखाया जाता है. सूख जाने पर मिट्टी को सांचे में से निकाल कर कागज की कई परतों में लपेट दिया जाता है. उसके बाद उसे पॉलिश किया जाता है, उस पर रंग चढ़ाया जाता है और फिर उसे सजाया जाता है. अंत में उसे चमकाया जाता है. मुखौटे की आंखों में छेद कर दिया जाता है, ताकि पहनने वाला ठीक से देख सके.
छऊ नर्तक
छऊ एक आदिवासी नृत्य है, एक उत्सव का नृत्य. इसकी शुरुआत पुरुलिया से ही हुई थी, और बाद में यह झारखंड और ओडिशा तक पहुंच गया. हालांकि उन राज्यों में किए जाने वाले छऊ की शैली थोड़ी अलग है.
गरीबी के अंधेरे में
पुरुलिया पश्चिम बंगाल के सबसे गरीब इलाकों में से है. यहां रहने वाले अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त छऊ कलाकार भी गरीबी में ही अपना जीवन बिताते हैं. उन्हें इस नृत्य की परंपरा को जिंदा रखने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ा है.
चुनावों का 'त्यौहार'
पश्चिम बंगाल में होने वाले विधान सभा चुनावों की वजह से राजनीतिक पार्टियों का ध्यान छऊ नर्तकों और मुखौटे बनाने वालों पर गया है. सभी दल इनके लिए कई घोषणाएं कर रहे हैं. सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस का दावा है कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने छऊ नर्तकों के लिए मासिक वेतन की व्यवस्था की है.
परंपरा जीवित है
चुनावों के आते ही छऊ से जुड़े लोगों के जीवन में बहार आ गई है. राजनीतिक दल उन्हें याद कर रहे हैं और उन्हें वादों के सब्ज-बाग दिखा रहे हैं.