चीन जापान के कड़वे रिश्ते
२९ सितम्बर २०१२चीन ने जापान के साथ कूटनीतिक संबंधों का 40वां सालाना समारोह रद्द कर दिया. इससे जापान में उन लोगों को एक मौका मिला जो 40 साल पहले के युद्ध के लिए कोई माफी नहीं मांगना चाहते.
1978 में चीन के नेता डेंग जियाओपिंग ने खुद इस कंपनी के संस्थापक कोनोसुके मात्सुशिता से मुलाकात की और उन्हें चीन की अर्थव्यवस्था को आधुनिक बनाने में मदद के लिए अनुरोध किया. जब चीनी विरोध प्रदर्शनकारियों ने पैनासोनिक की इस फैक्ट्री को आग लगाई तब जापान के लिए डेंग के यथार्थवाद का पूरा दौर खाक हो गया.
1972 में आपसी संबंधों को फिर से बनाने के बाद से चीन में जापानी निवेश के कारण करीब 50 लाख नौकरियां बनी. कई अरब डॉलर सरकारी सहायता टोक्यो से बीजिंग गई. एक समय पर चीन जापान का सबसे अहम व्यापारिक साझीदार बन गया. हर साल कई जापानी उद्योगपति चीन जाते और वहां के अधिकारियों और नेताओं से बात करते. साथ ही हाल में दोनों के बीच मुक्त व्यापार के बारे में भी बात हुई थी.
साझी भाषा नहीं
दोनों देशों में भले ही व्यापारिक संबंध शानदार रहे हों लेकिन राजनीतिक संबंध दोनों में नहीं बढ़े. 1978 में शांति और दोस्ती समझौते के बाद द्वीपों पर विवाद किनारे हो गया था. डेंग ने तब कहा था, "हमारी पीढ़ी इस मुद्दे पर साझी भाषा नहीं ढूंढ सकी." साथ ही उन्होंने उम्मीद की थी कि अगली पीढ़ी ऐसा कर सकेगी.
लेकिन उनकी भविष्यवाणी सही नहीं हो पाई. खास तौर पर क्योंकि दो देशों में संबंध बिलकुल बदल गए. 30 साल पहले चीन गरीब और अविकसित देश था. जापान उस समय युद्ध में हारने के बावजूद दान दे सकता था. लेकिन चीन के तेज आधुनिकीकरण का मतलब था चीन जापान के साथ बराबरी पर आ जाता. इतिहास में पहली बार दोनों देश बड़ी ताकत बन गए.
लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के जानकार माइकल याहुदा जोर देकर कहते हैं कि चीन और जापान के बीच इस तरह के संबंध कभी नहीं रहे, "ऐसी कोई ऐतिहासिक मिसाल नहीं है और इन संबंधों को व्यक्त करने के लिए कोई संस्थागत ठिकाने भी नहीं हैं. इसलिए नतीजा बहुत तकलीफदेह संबंध हैं."
याहुदा कहते हैं कि आधुनिक समय तक जापान ने चीन को सांस्कृतिक और सभ्यता के मामले में बड़ा केंद्र मानता रहा है. लेकिन 1852 से 1912 के बीच मेइजी राजा के साम्राज्य में जापान इतना तेजी से आगे बढ़ा कि उसने 1895 में कोरिया पर युद्ध में चीन को हरा दिया. इससे वह अपने आप को बेहतर मानने लगा. जापान ने मंचूरिया पर कब्जा किया और आधे एशिया पर जीत हासिल की. नानकिंग संहार या गुप्त यूनिट 731 में मनुष्यों पर प्रयोगों से चीन को समझ में आया कि जापान उसे कम आंकता है.
दूसरे विश्व युद्ध में हारने के बाद जापान अचानक साम्राज्यवाद से शांतिवाद की ओर बढ़ा. सेना का रूप बदल कर उसे आत्मरक्षा बल में परिवर्तित किया गया. संविधान ने हर तरह के सैन्य आक्रमण पर प्रतिबंध लगा दिया. अमेरिकी इतिहासकार जॉन डोवर बताते हैं, "नस्लवाद को भी ऐसे रोक दिया गया जैसे कि कोई नल बंद करता है." जापान की स्कूली किताबों में नानकिंग संहार को दुर्घटना बताया गया. कोरियाई कम्फर्ट विमेन के साथ चकलाघरों में शाही (जापानी) सैनिकों के दुर्व्यवहार के बारे में कभी बताया ही नहीं गया.
आरोप नहीं शर्म
इस चुप्पी का एक कारण है संस्कृति. जापानियों में दोषी ठहराने की भावना से कहीं ज्यादा गहरी शर्म की भावना है. दूसरा कारण था दूसरे विश्व युद्घ का खत्म होना. हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम हमले के कारण वह अपने अपराधों को आसानी से दबा सके. जापानी लेखक योशिकाजू कातो मानते हैं, "जापान में नानकिंग एक वर्जना है क्योंकि यह कई जापानियों की उस सोच को बिखरा देता है कि जापान सिर्फ युद्ध करने वाले नहीं युद्ध के शिकार भी हैं."
अपने पड़ोसी से जापान ने इस अपराध के लिए कई बार ग्लानि भी जताई. लेकिन अधिकारिक तौर पर 1993 में केवल एक बार माफी मांगी गई और इसके समर्थन में सभी पार्टियां नहीं थीं. एशिया में दूसरे देशों के लिए यह एक सबूत बन गया कि जापान अपने शांतिवाद के प्रति गंभीर नहीं है.
जापान आज भी इसी द्वंद्व में है. चीन के ऊपर आने के कारण जापान को दृढ़ होने के लिए मजबूर किया. लेकिन पैसिफिज्म और युद्ध की जिम्मेदारी आड़े आ गई. रूढ़िवादी जापानी लिबरल डैमोक्रेटिक पार्टी के शिंजो एबे जैसे लोग कह रहे हैं कि माफी बहुत मांगी जा चुकी. ओसाका के मशहूर मेयर तोरू हासिमोटो ने तो यहां तक कहा कि संविधान से शांतिवाद हटा देना चाहिए.
यह चलन निश्चित ही कई पड़ोसियों की चिंता को बढ़ाएगा कि जापान को कभी भी अपने आक्रमणों पर ग्लानि नहीं थी. हालांकि जापानी दृष्टि से यह गलतफहमी है. इस समय उनके हिसाब से नई ऐतिहासिक स्थिति में साम्राज्यवाद चीन से निकल रहा है और जापान सिर्फ अपनी रक्षा कर रहा है.
रिपोर्टः मार्टिन फ्रिट्ज/आभा मोंढे
संपादनः ए जमाल