गंगा की सफाई और जलमार्ग के विकास का सवाल
१० अप्रैल २०१८केंद्र सरकार की एक अति महत्वाकांक्षी परियोजना सवालों के घेरे में है. गंगा पर हजारों करोड़ रुपए की जलमार्ग विकास परियोजना को लेकर पर्यावरणवादी चिंतित है. लेकिन सरकार का कहना है कि इससे देश में परिवहन क्रांति आएगी. उत्तर प्रदेश के वाराणसी से पश्चिम बंगाल के हल्दिया तक गंगा नदी के 1600 किलोमीटर लंबे राष्ट्रीय जलमार्ग पर 53 अरब रुपए वाले जल मार्ग विकास प्रोजेक्ट (जेएमवीपी) को समग्र रूप से समावेशी बताया जा रहा है.
व्यापार और वाणिज्य को प्रशस्त करने वाले इस प्रोजेक्ट के बारे में ये दावा भी किया जा रहा है कि ये नदी को पुनर्जीवित कर देगा. मार्च 2023 तक इसे पूरा करने का लक्ष्य रखा गया है. उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल से होकर गुजरने वाले इस जलमार्ग से एक लाख से ज्यादा रोजगार सृजित होने की संभावना बताई गई है. बड़े पैमाने पर देशी विदेशी कंपनियां इस महाकाय प्रोजेक्ट के विभिन्न पहलुओं पर निवेश करेंगी. प्रमुख रूप से जर्मन और अमेरिकी कंपनियां इसमें सहयोग कर रही हैं.
ये सच है कि गंगा के पानी को लेकर पर्यावरणीय और औद्योगिक विकास नीतियों के बीच जिस संतुलन की जरूरत थी, वो अब तक किसी सरकार ने नहीं दिखाई है. सरकारें बड़े निवेश को आकर्षित करने के लिए बड़े प्रोजेक्ट तो ले आ रही है लेकिन उनका दूरगामी असर क्या होगा और वे कितनी दीर्घजीवी होंगी, इसे लेकर फिलहाल कोई ठोस और स्थायी चिंतन नजर नहीं आता है. हां बेशक दलीलें कई हैं और दावे भी एक से एक आकर्षक हैं. इनलैंड वॉटरवेज अथॉरिटी ऑफ इंडिया (आईडब्लूएआई) के तहत निर्माणाधीन इस परियोजना को विश्व बैंक वित्तीय और तकनीकी मदद मुहैया करा रहा है. प्रोजेक्ट डिजाइन को लेकर कहा गया है कि आर्थिक रूप से कम खर्चीले और सस्ते परिवहन में हर स्तर पर सुरक्षा और सफाई और अधिकतम लाभ और न्यूनतम नुकसान का ख्याल रखा गया है. जलमार्ग को इस तरह विकसित किया जाएगा कि ये गंगा के प्रवाह को बाधित न करे, जलीय जीवन को बर्बाद न करे, जल प्रदूषण का कारण न बने और अत्यधिक परिवहन से पर्यावरण और ऊर्जा और जल संसाधन का दोहन न करे.
इसी साल जनवरी में कैबिनेट ने इस प्रोजेक्ट को मंजूरी दी है. फरवरी में विश्व बैंक के साथ ऋण समझौता हुआ है. हैम्बर्ग पोर्ट कंसल्टिंग नाम की कंपनी के सहयोग से प्रोजेक्ट से जुड़े ट्रायल शुरू हो चुके हैं. इस सिलसिले में मारुति कारों की खेप नदी मार्ग से भेजी गई. मछली पकड़ने वाले समुदायों और यात्रियों की आवाजाही को लेकर कहा तो जा रहा है कि आधुनिक नावों के लाइसेंस दिए जाएंगे. नदी पर जहाज चलेंगे तो स्थानीय किसान अपने उत्पादों को बेचने के लिए दूर स्थानों का रुख भी कम लागत पर कर सकेंगे और उनकी आजीविका बढ़ेगी. जल परिवहन चालू होने से रेलवे और राष्ट्रीय राजमार्गों पर दबाव कम होगा, वायु और ध्वनि प्रदूषणों के स्तरों में भारी गिरावट आएगी. परियोजना के समर्थकों का कहना है कि इसमें भूमि अधिग्रहण की बहुत कम जरूरत पड़ेगी, लिहाजा पारिस्थितिकी और जैव विविधता पर कोई दूरगामी प्रभाव नहीं पड़ेगा. लोगों की गुजरबसर भी इससे प्रभावित नहीं होगी.
इन दावों के समांतर एक सच्चाई ये भी है कि राष्ट्रीय हरित ट्रिब्यूनल, एनजीटी फिलहाल इस मामले पर खामोश है. रोजगार सृजन के दावों का हाल तो किसी से छिपा नहीं है. असंगठित क्षेत्र के श्रम को स्थायी रोजगार मान लिया जाए तो फिर इसमें भला किसी को क्या दिक्कत हो सकती है. दूसरी बात ये कि सड़कों पर भार कम करने की है. क्या गारंटी है कि वाहन निर्माता कंपनियां अपने उत्पादन में कटौती कर देंगी या इसे लेकर कोई नीति निर्देश बनेंगे. वायु प्रदूषण कम हो जाने की बात भी एक आदर्श स्थिति तो है लेकिन तीव्र औद्योगीकरण के दौर में और मुनाफे और निवेश की भीषण होड़ में क्या इन स्थितियों पर काबू पाया जा सकता है. एक तरफ संसाधनों की कमी और आबादी का बढ़ता दबाव, दूसरी ओर नये रास्ते खोलना- विकास कम, ठूंसने या छुटकारा पाने की कार्रवाई ज्यादा लगती है. एक साथ कई मोर्चो पर देश के संसाधन और प्राकृतिक संसाधनो को झोंकने के बजाय उच्चतम प्राथमिकता वाले क्षेत्रों के काम पहले पूरे किए जाने चाहिए. वरना तो देश अंतहीन निर्माण में उलझा ही रहेगाः नदियां जोड़ने वाली परियोजना हो या चार धाम राजमार्ग परियोजना, पंचेश्वर बांध हो या अरुणाचल प्रदेश की घाटी में कई बांधों की ऋंखला, दक्षिण में पश्चिमी घाट के ग्रीन कॉरीडोर से औद्योगिक क्षेत्र के लिए हिस्सा काटने की बात हो या चतुर्दिक राजमार्गों पर जारी काम.
इसका अर्थ ये नहीं है कि विकास कार्य बंद कर दिए जाएं और जाहिर है फिर देश तरक्की कैसे करेगा. लेकिन प्राथमिकताएं तय करनी ही होंगी. दुनिया के बड़े देशों में भी यही हुआ है. नदी की ही बात करें तो जर्मनी में अपनी प्राकृतिक सुंदरता, अपने जल संसाधन और अपने वाणिज्यिक उपयोग के लिए मशहूर राइन नदी रातोंरात ऐसी नहीं बन गई. सालोंसाल की मेहनत और एक के बाद एक कमियों को दूर करते हुए राइन को पुनर्जीवित किया गया और उसे इस लायक बनाया गया कि वो आज व्यापारिक, पर्यटन और पर्यावरण की दृष्टि से सबसे अहम नदी है. यहां गंगा पर जारी दशकों पुराने प्रोजेक्ट ठीक से संभाले नहीं जा रहे हैं और एक विराट परियोजना इस पर और लादी जा रही है. विकास का समावेशी मॉडल ये तो नहीं कहा जाएगा.
गंगा दुर्लभ प्रजातियों का घर भी है. डॉल्फिनें यहां बसती हैं. नदी पर विभिन्न जगहों पर बैराज बनाने की बात सामने आई हैं. सीमेंट और इस्पात झोंका जाएगा. तेल रिसाव और जहरीले रसायनों से नदी को प्रदूषित होने से बचाने के लिए आला दर्जे की तकनीकों के इस्तेमाल की बात की जा रही है लेकिन हाल के उदाहरणों से चिंता तो होती ही है. गंगा के पानी से लाखों करोड़ों लोगों का रोजमर्रा का जीवन चलता है. पेयजल, सिंचाई, मछलीपालन आदि. आखिरी बात ये कि क्या कॉरपोरेट की मदद से बन रहे जलमार्ग पर आम लोगों की वैसी आमदरफ्त या वैसी दखल होगी जैसी अभी है या उन्हें टैक्स चुकाना होगा. ऐसी बहुत सी चिंताएं हैं जिनका समाधान करना होगा. वरना कागजों में और निवेश में बहुत आकर्षक और लाभकारी ये प्रोजेक्ट आम लोगों के लिए एक नयी मुसीबत बन कर रह जाएगा.