प्रशांत भूषण अदालत की अवमानना के दोषी
१४ अगस्त २०२०सुप्रीम कोर्ट ने अभी उनकी सजा की घोषणा नहीं की है. सजा पर सुनवाई 20 अगस्त को होगी. अदालतों की अवमानना अधिनियम, 1971 के तहत छह महीने तक की कारावास की सजा का प्रावधान है. कोर्ट ने जिन ट्वीट पर आपत्ति की थे उनमें से पहला ट्वीट 27 जून को किया गया था, जिसमें उन्होंने कहा था, "पिछले छह सालों में बिना आपातकाल लागू किए भारत में लोकतंत्र के नष्ट होने में सुप्रीम कोर्ट और विशेष रूप से पिछले चार मुख्य न्यायाधीशों की भी भूमिका रही है."
दूसरा ट्वीट उन्होंने 29 जून को किया था जिसमें उन्होंने मौजूदा मुख्य न्यायाधीश एस ए बोबडे की एक महंगी मोटरसाइकिल पर बैठे हुए तस्वीर पोस्ट की थी. तस्वीर पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने ट्वीट में लिखा था, "सीजेआई नागपुर राज भवन में ऐसे समय में एक बीजेपी नेता की 50 लाख की मोटरसाइकिल बिना हेलमेट चला रहे हैं जब उन्होंने सुप्रीम कोर्ट को तालाबंदी में रखा हुआ है और नागरिकों को न्याय के उनके मूलभूत अधिकार से वंचित रखा हुआ है."
कोर्ट के आदेश पर ट्विटर ने दोनों ट्वीट हिंदुस्तान में यूजरों के लिए हटा दिए हैं. सुनवाई के दौरान भूषण ने अपने दोनों ट्वीट के समर्थन में दलीलें पेश कीं और कहा कि उन्होंने उचित आलोचना की थी. सीजेआई के खिलाफ बिना हेलमेट मोटरसाइकिल चलाने वाली टिप्पणी के लिए भूषण ने माफी मांगी थी, और कहा था कि उनसे देखने में चूक हो गई थी कि मोटरसाइकिल का स्टैंड लगा हुआ था यानी सीजेआई उसे चला नहीं रहे थे, लिहाजा उस स्थिति में हेलमेट पहनना अनिवार्य नहीं था.
लेकिन भूषण ने कहा था कि ट्वीट में इसके अलावा जो भी बातें उन्होंने लिखी थीं, वो उन पर कायम हैं और उनके लिए माफी मांगेंगे. भूषण को दोषी ठहराए जाने पर कई लोगों ने अदालत के फैसले की आलोचना की है. वरिष्ठ पत्रकार सुभाष राय ने ट्विट्टर पर लिखा, "ये शर्मनाक और दुखद है...सुप्रीम कोर्ट खुद को ही बर्बाद करने का काम कर रहा है."
लेकिन जानकारों के बीच पूरे मामले को लेकर राय बंटी हुई है. दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस आर एस सोढ़ी ने डीडब्ल्यू से कहा कि उनकी राय में सीजेआई बोबडे की तस्वीर वाले ट्वीट का तो अदालत की अवमानना से कोई लेना-देना नहीं है क्योंकि "ये एक व्यक्ति के निजी कृत्य पर टिप्पणी है और उससे अदालत की प्रतिष्ठा को कोई नुकसान नहीं पहुंचता."
हालांकि जस्टिस सोढ़ी के अनुसार लोकतंत्र के नाश वाले ट्वीट पर जरूर अवमानना का मामला बनता है क्योंकि ऐसे कहने से अदालत की छवि धूमिल होती है. ऐसी टिप्पणी आरोप लगाती है कि अदालत की जिस संवैधानिक अधिकार के तहत रचना हुई है वो उसी को नष्ट करने की पक्षधर हो गई है. उन्होंने कहा कि अगर ऐसा आरोप साबित नहीं हो पाता है तो ये कानून की शक्ति को क्षीण करना, अदालत का उपहास करना और जनता की नजरों में अदालत की छवि को चोट पहुंचाने के बराबर है.
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