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समाज

घरों में अकेले ही बीती ये ईद

चारु कार्तिकेय
२५ मई २०२०

ना लोग मस्जिदों में गले मिले, ना मिल कर नमाज अदा की, ना मेले लगे और ना दावतें हुईं. जानिए किस तरह लोगों ने इसके बावजूद महामारी में भी ईद की भावना को जिंदा रखा.

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तस्वीर: Reuters/D. Ismail

पिछली शाम दम बिरयानी बनाने के लिए बकरे के गोश्त को तैयार करते हुए आजाद आलम को अपनी अम्मी की बहुत याद आ रही थी. बीते कई सालों में ये पहली ऐसी ईद है जब आजाद पटना में रहने वाले अपने मां-बाप से दूर मुंबई में अकेले ईद मना रहे हैं. वे खुद खाना पकाने में माहिर हैं लेकिन हर बार की तरह इस बार भी अगर वे अपने परिवार के साथ पटना में होते तो अपनी अम्मी के हाथ की बनी बिरयानी और सेवइयां खा रहे होते.

कोविड-19 महामारी ने इस साल ईद के भी मायने बदल दिए. ना लोग मस्जिदों में गले मिले, ना मिल कर नमाज अदा की, ना मेले लगे और ना दावतें हुईं. आजाद के अम्मी-अब्बा के लिए भी हर साल ईद ही वह मौका ले कर आती है जब देश के अलग अलग शहरों में बिखरे उनके परिवार के सदस्य उनके पास अपने घर लौट आते हैं. अगर यह ईद भी हर ईद की तरह होती, तो आजाद के अम्मी-अब्बा भी अपने सभी बेटे, बेटियों और नाती-पोतियों के साथ मिल कर त्यौहार मना रहे होते. लेकिन इस बार सब को एक दूसरे को फोन पर ही ईद मुबारक कह कर मन मसोस कर रह जाना पड़ा.

भारत में तालाबंदी लागू हुए दो महीने पूरे हो चुके हैं. तालाबंदी का भी स्वरूप बदल चुका है और आम लोगों के लिए बड़े पैमाने पर प्रतिबंध हटा दिए गए हैं, लेकिन इसके बावजूद मंदिर, मस्जिद जैसे धार्मिक स्थल अभी भी बंद हैं. इस्लाम के धर्मगुरुओं ने जगह जगह आम लोगों को घोषणा कर के कहा भी है कि वे इस बार अपने अपने घरों में ही ईद मनाएं और लोगों ने इन हिदायतों का पालन भी किया है. भले ही ऐसा करने से त्यौहार मनाने के तरीकों में काफी समझौता करना पड़ा हो.

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कलकत्ता की एक ईदगाह में जमीन पर गिरा हुआ एक पेड़. चक्रवात अम्फान ने ईद के ठीक पहले पश्चिम बंगाल में भारी तबाही मचाई.तस्वीर: DW/P. Samanta

ना दावतें, ना मुलाकात

24-वर्षीय अहमद जावेद दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के छात्र हैं और वे हर साल ईद पर कॉलेज के हॉस्टल में अपने अपने परिवारों से दूर रहने वाले उनके दोस्तों को घर दावत पर जरूर बुलाते थे. लेकिन इस बार ईद पर अहमद को अपने दोस्तों का साथ नसीब नहीं हुआ. वैसे दिल्ली में निजी वाहनों, बसों और ऑटो रिक्शा इत्यादि की आवाजाही शुरू हो चुकी है, लेकिन लोग अभी भी फिजिकल डिस्टेंसिंग की हिदायतों को मान रहे हैं. इसीलिए इस बार ईद पर नमाज और दावतें सिर्फ घर पर परिवार के सदस्यों के साथ ही हो रही हैं.

अहमद और उनके भाई-बहनों ने इस बार ईद पर नए कपड़े भी नहीं खरीदे हैं, लेकिन हर ईद और इस ईद में सिर्फ दावतों और कपड़ों का फर्क नहीं है. ईद एक सामुदायिक त्यौहार है और इसकी अहमियत ही इसे साथ मिल कर मनाने में हैं. ईद की नमाज खास दूसरों के साथ मिल कर अदा की जाती है और सब को गले लगा कर ईद की मुबारकबाद दी जाती है. जो परिचित एक अरसे से एक दूसरे से ना मिलें हो, उनकी भी मुलाकात ईद पर हो जाती है. इस बार ईद पर ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा है.

मोहम्मद फहद तो दिल्ली की जामा मस्जिद के पास रहते हैं, जहां ईद पर बहुत बड़ी तादाद पर लोग नमाज अदा करने, पुरानी दिल्ली घूमने और एक से एक लजीज पकवान खाने आते हैं. फहद उस माहौल की कमी महसूस कर रहे हैं लेकिन वे कहते हैं, "लोगों में महामारी के प्रति पूरी जागरूकता है और लोग जानते हैं कि ऐसा तो है नहीं कि यह बीमारी लोगों में कोई फर्क करती है. इसलिए सब एहतियात बरत रहे हैं और अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं". फहद कहते हैं कि उनके और दूसरे भी कई परिवारों में बच्चों तक को यह अहसास था कि यह ईद सामान्य हालात में नहीं आई है और शायद इसीलिए बच्चों ने बड़ों से ईदी भी नहीं मांगी.

अगर कुछ है जो नहीं बदला है, तो वह है सदकत-उल-फित्र, जिसे आम भाषा में फितरा भी कहते हैं. यह उस विशेष दान का नाम है जिसे रमजान के महीने में ईद की नमाज से पहले किसी ना किसी जरूरतमंद को देना होता है ताकि सब के पास ईद आने तक कुछ न कुछ पैसे जरूर हों. यह देना सबके लिए जरूरी होता है और यह एक रस्म है जो इस रमजान भी सभी ने किसी ना किसी तरह निभा ही ली.

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