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समाज

कब पास होगा महिला आरक्षण बिल?

शिवप्रसाद जोशी
२४ जुलाई २०१८

22 साल हो गए इस बिल को संसद में पेश हुए लेकिन 2010 में राज्यसभा से पास होने के एक सुखद अवसर के अलावा यह बिल उपेक्षा के अंधेरों में ही पड़ा रहने को विवश है.

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Indien, Rajasthan, Gruppe von Witwen
तस्वीर: picture-alliance

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने मानसून सत्र से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उनकी महिला कल्याण की चिंताओं की याद दिलाते हुए महिला आरक्षण बिल को लोकसभा में पास कराने की अपील की थी. इसके बाद बात आई गई हो गई. खुद राहुल गांधी लगता है इस पर अपनी पार्टी में अमल करना भूल गए, जिसकी कार्य समिति के पिछले दिनों हुए पुनर्गठन में महिलाओं की उपस्थिति नगण्य है. हालांकि यह बात अलग है कि मोदी को भेजी याददिहानी और बिना शर्त समर्थन की चिट्ठी में 32 लाख हस्ताक्षर भी भेजे गए हैं. लगता नहीं है कि इस बार भी राजनीतिक दलों और नेताओं के जबानी जमाखर्च के रुटीनी अभ्यास के अलावा इस बिल को कानून की शक्ल मिल पाएगी.

भारत में महिलाएं कुल जनसंख्या का करीब 48 फीसदी हैं लेकिन रोजगार में उनकी हिस्सेदारी सिर्फ 26 फीसदी की है. न्यायपालिका और केंद्र और राज्य सरकारों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व काफी कम है. पंचायतों में जहां राज्यों में महिलाओं के लिए आरक्षण किया गया, वहां महिलाओं के नाम पर उनके पति और बेटे निर्वाचन से मिली ताकत का उपयोग कर रहे हैं. कर्नाटक और उत्तराखंड जैसे राज्यों में 50 फीसदी आरक्षण का लाभ भी महिलाओं को उस रूप में नहीं मिल पा रहा है जिसकी वो अधिकारी हैं. और इन सब चिंताओं के बीच यूएनडीपी की वो रिपोर्ट भी है जिसके मुताबिक महिलाओं के सशक्तीकरण में अफगानिस्तान को छोड़कर सभी दक्षिण एशियाई देश भारत से बेहतर हैं. ये भी एक तथ्य है कि संसद में महिला प्रतिनिधित्व के वैश्विक औसत में भारत का स्थान बहुत नीचे है. 543 सीटों वाली लोकसभा में इस समय 62 महिला सांसद हैं, इससे पहले 2009 में 58 महिलाएं थीं. थोड़ा सा ग्राफ बढ़ा लेकिन 33 फीसदी आरक्षण के हवाले से तो ये नगण्य ही कहा जाएगा.

2010 में यूपीए सरकार ने इसे राज्यसभा में पास तो करा दिया था लेकिन लोकसभा में इसकी राह कठिन हो गई. यूपीए के पास पर्याप्त संख्याबल था लेकिन न जाने क्यों इसमें कोताही की गई. और अब 2014 में प्रचंड बहुमत के साथ आई बीजेपी भी लगता है इसे भूलने का बहाना कर रही है जबकि ये उसके चुनावी घोषणापत्र का हिस्सा था. 2010 में जब राज्यसभा से बिल पास हुआ था, तो न सिर्फ विभिन्न दलों की कद्दावर महिला नेताओं का यादगार फोटो सेशन पूरे देश ने देखा था, बल्कि उस समय राज्यसभा में बीजेपी के नेता अरुण जेटली ने कहा था कि वो उनके लिए गर्व और सम्मान का ऐतिहासिक पल था. मौजूदा विदेश मंत्री सुषमा स्वराज उस समय लोकसभा में विपक्ष की नेता थी. वे इस बिल की सबसे प्रमुख पैरोकारों में एक रही हैं. क्या इस बिल को लेकर पार्टी में मतभेद और वर्चस्व का इतना बड़ा पहाड़ खड़ा हो गया है जो उन्हें इस बिल की तूफानी पैरवी से रोके रख रहा है या बात कुछ और है?

33 फीसदी आरक्षण महिलाओं को देकर शायद कोई भी राजनीतिक दल अपने पैरों पर कुल्हाड़ी नहीं मारना चाहता. पितृसत्तात्मक संरचना वाले समाज में घर हो या दफ्तर, सड़क हो या संसद, महिलाओं के लिए स्पेस को कमतर करते रहने की मंशा में कैसी हैरानी. अफसोस जरूर होता है- स्त्रियों के विकास से ही घर परिवार समाज और देश का विकास सुनिश्चित किया जा सकता है- ये क्लीशे की तरह और नारेनुमा तोतारटंत वाली बातें इतने लंबे समय से आखिरकार कैसे चल पा रही हैं और उन्हें सुना भी जा रहा है, तालियां भी बज रही हैं और वोट भी पड़ रहे हैं. सत्ताएं आ रही हैं और जा रही हैं. लेकिन महिला हितों को लेकर कोई ठोस ऐक्शन नदारद है. जबकि संसद से ही इसकी शुरुआत होती तो सोचिए ये देश के लिए कितना बड़ा संदेश होता. महिला सशक्तीकरण की दिशा में एक बड़ी राह खुलती. महिलाओं के प्रति समाज में वर्चस्व और मर्दवादी रवैये और उनके खिलाफ अपराधों और हिंसाओं का ग्राफ नीचे आता. कुल मिलाकर उनके खिलाफ पुरुष दबंगई में गिरावट आती. लेकिन विधायिका ही उदासीन है तो फिर हालात कैसे बदलेंगे.   

महिलाओं के राजनीतिक सशक्तीकरण के लिए 1996 में एचडी देवेगौड़ा के प्रधानमंत्री काल में पहली बार महिला आरक्षण विधेयक संसद में पेश किया गया था. समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल बिल के सबसे मुखर विरोधी रहे हैं. एक समय तक जनता दल यूनाईटेड भी इस विरोध में शामिल रहा था. बिल के मुताबिक महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटें रोटेशन में आरक्षित की जानी हैं और सीटों का बंटवारा कुछ इस तरह होगा कि एक सीट, लगातार तीन आम चुनावों में एक बार के लिए ही आरक्षित हो सके. बिल में ये भी कहा गया था कि लागू होने के बाद 15 साल तक आरक्षण की व्यवस्था रहेगी और उसके बाद ये व्यवस्था खत्म हो जाएगी. बिल के विरोधियों के भी कुछ तर्क रहे हैं जो इसमें निहित कुछ प्रावधानों से जुड़े हैं. लेकिन ये सारी कमजोरियां तो दूर कर ली जातीं अगर कोई सर्वसम्मति तो बनती. जो भी चिंताएं या डर इस बिल को लेकर रहे हैं उनका समाधान तो कोई बहुत कठिन नहीं होना था लेकिन एक राह निकालने की नौबत ही नहीं बनने दी जा रही, तो क्या कहा जा सकता है.

1996 का बिल भारी विरोध के बीच संयुक्त संसदीय समिति के हवाले कर दिया गया था. 1998 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजेपई ने लोकसभा में फिर से बिल पेश किया. गठबंधन की मजबूरियों और भारी विरोध के बीच ये लैप्स हो गया और 1999, 2002 में 2003 में इसे फिर लाया गया. एनडीए गठबंधन पूर्ण बहुमत के साथ लौटा और वाजपेई अपने दूसरे कार्यकाल में ये बिल पास करा सकते थे और कांग्रेस और वाम दल भी इसके समर्थन में थे- लेकिन कारण बताया गया वही- गठबंधन की मजबूरियां और नतीजा भी वही रहा- सिफर. 2008 में मनमोहन सिंह सरकार ने बिल को राज्यसभा में पेश किया. दो साल बाद, वो एक दुर्लभ क्षण था जब तमाम राजनीतिक अवरोधों को दरकिनार कर सदन में ये बिल पास करा दिया गया. कांग्रेस को बीजेपी और वाम दलों के अलावा कुछ और अन्य दलों का साथ मिला. लेकिन लोकसभा में 262 सीटें होने के बावजूद मनमोहन सरकार बिल को वहां पास नहीं करा पाई. राज्यसभा की बुलंदी, लोकसभा में न जाने कहां दबी रह गई. और आज, साल 2018, महिला आरक्षण बिल पर फिर से चिट्ठी पत्री का खेल चल रहा है लेकिन राजनीतिक दल और सरकार रहस्यपूर्ण खामोशी ओढ़े हुए हैं.

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