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शिक्षाएशिया

बगैर इंटरनेट और मोबाइल के ऑनलाइन पढ़ाई

२ सितम्बर २०२०

कोरोना वायरस के चलते हुई तालाबंदी के कारण मार्च में भारत के बच्चों की पढ़ाई ऑनलाइन हो गई. गरीब घरों और दूर दराज के इलाकों के बच्चे अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए जूझ रहे हैं. इनके पास ना तो मोबाइल है ना इंटरनेट.

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Indien | Coronavirus | Schulstart
तस्वीर: Reuters/P. Waydande

रितु जोगी के परिवार में छह लोग एक स्मार्टफोन से काम चलाते हैं. मीना बांसवा के पिता के पास एक मोबाइल फोन तो है लेकिन उसे रिचार्ज कराना उनके लिए मुश्किल है. जाहिदा खातून के परिवार में तो कोई फोन ही नहीं. 12 से 17 साल की उम्र की इन लड़कियों में से किसी के पास कंप्यूटर नहीं है. ये भारत के उन लाखों बच्चों में शामिल हैं जो गरीब घरों से आते हैं और जो कोरोना वायरस के दौर में डिजिटल बंटवारे की खाई पाटने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. महामारी के इस दौर में डिजिटल उपायों का बड़ा सहारा है.

इस साल मार्च के आखिर में जब अचानक भारत में तालाबंदी कर दी गई तो यहां के 32 करोड़ स्कूली बच्चों की पढ़ाई पर उसका सीधा असर हुआ. लखनऊ में स्टडी हॉल एजुकेशनल फाउंडेशन की उर्वशी साहनी कहती हैं, "सरकार ने कहा कि ऑनलाइन हो जाओ, ऑनलाइन, ऑनलाइन लेकिन ये लाइनें लेकर हम कहां ऑन हों."

महज 25 फीसदी घरों में इंटरनेट

Indien Corona-Pandemie Symbolbild Armut Kinder
तस्वीर: Getty Images/AFP/S. Kanojiha

2017-18 के बीच के सरकारी आंकड़े बताते हैं कि महज एक चौथाई घरों में ही इंटरनेट मौजूद है. ग्रामीण इलाकों में केवल 15 फीसदी घरों में इंटरनेट है जबकि 130 करोड़ की आबादी वाले देश के 66 फीसदी लोग गांवों में रहते हैं. देश के अलग अलग हिस्सों में कई संगठन भारत में इस डिजिटल बंटवारे की खाई को पाटने के लिए काम कर रहे हैं. बावजूद इसके हालत यह है कि अगर वो एक बच्चे के पास पहुंचते हैं तो 100 बच्चे पीछे रह जाते हैं.

लॉकडाउन के शुरुआती महीनों में केरल और पंजाब से कई लड़कियों की पढ़ाई छूटने के कारण खुदकुशी करने की खबरें आईं. दूसरे बच्चे किसी तरह इस दौड़ में बने रहने के लिए जूझ रहे हैं. तमिलनाडु में एक आदिवासी गांव के बच्चों का समूह हर दिन एक पहाड़ की चोटी पर चढ़ता है ताकि इंटरनेट के सिग्नल तक पहुंच सके. स्थानीय सरकारें समस्या का समाधान करने की कोशिश में हैं. वो उपकरण मुहैया करा रहे हैं और टीवी चैनलों पर पाठ पढ़ाए जा रहे हैं. केरल और तमिलनाडु के कई गांवों के सामुदायिक केंद्रों में टीवी सेट लगाए गए हैं.

उर्वशी साहनी कहती हैं, "सरकारें डिजिटल क्लासरुम के बारे में बात कर रही हैं लेकिन इस महामारी ने बताया है कि तकनीक कितनी जरूरी है और खासतौर से ऐसे छात्रों तक पहुंचना कितना अहम है." साहनी का संगठन 6000 बच्चों के लिए स्कूल और कार्यक्रम चला रहा है. इसमें संपन्न छात्रों से लेकर सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े बच्चे भी शामिल हैं.

समस्या से जूझते दो तिहाई बच्चे

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तस्वीर: Reuters/P. Waydande

भारत के छात्रों में करीब एक तिहाई संख्या मध्यम और उच्च वर्ग के छात्रों की है. ये छात्र नए सिस्टम में ऑनलाइन क्लास, वीडियो और सोशल मीडिया पर शेयर किए जाने वाले वर्कशीट का सहारा लेना तुरंत सीख गये. इनके पास कंप्यूटर और मोबाइल मौजूद है. टीचरों के लिए तकनीक सीखना और इस्तेमाल करना थोड़ा मुश्किल जरूर हो रहा है लेकिन ट्रेनिंग के जरिए उन्हें भी तैयार कर दिया गया है.

समस्या उन बच्चों के लिए है जिनके पास यह सब नहीं है. छात्रों की आबादी में ज्यादातर के पास इन उपकरणों तक पहुंच नहीं है कम से कम घर में. इससे पहले कि वो इनके बारे में सोचें उनके परिवारों को उनका पेट भरने के बारे में सोचना है. साहनी की संस्था झुग्गी बस्तियों में भी कई एजुकेशन सेंटर चलाती है. यहां आने वाले ज्यादातर छात्र दिन में मजदूरी करते हैं और शाम को यहां आ कर पढ़ाई करते हैं. इस संस्था ने पहले छात्रों को परिवार के सदस्यों या फिर पड़ोसियों के फोन से जोड़ा. इसके बाद टीचरों ने जहां संभव था वहां वीडियो और नहीं तो फिर एक एक छात्र से फोन कॉल और वॉयस मैसेज के जरिए पाठ पढ़ाया.

तालाबंदी खत्म होने के बाद टीचरों ने पांच पांच बच्चों की या तो उनके घर में या फिर किसी सामुदायिक जगह पर क्लास लगाई. इन बच्चों का भला चाहने वाले लोगों, या फिर स्थानीय सरकारों ने इनके लिए मोबाइल फोन और लैपटॉप दान में दिया. ऐसे पुराने छात्रों की पहचान की गई जो कम से कम पांच छात्रों को अपने साथ जोड़ सकें. उन्हें स्मार्टफोन और डाटा पैक दिए गए ताकि वो पाठ इन बच्चों के साथ बांट सकें.

कमजोर बच्चों तक पहुंचने की कोशिश

Indien Corona-Pandemie Symbolbild Armut Kinder
तस्वीर: Getty Images/AFP/P. Singh

15 साल की सोनम कुमारी को भी जून में एक मोबाइल फोन और डाटा पैक मिला. अब वो हर शाम पड़ोस के 8-9 बच्चों के साथ पाठ शेयर करती हैं. सोनम ने बताया, "मेरे घर के छोटे से अहाते में हम बैठ जाते हैं, हर कोई मास्क पहनता है, जब बारिश होती है तो हम घर में ही बैठने के लिए जगह बनाते हैं." बहुत से छात्रों को उनके समूह में उनके टीचर लैपटॉप के जरिए ट्यूशन दे रहे हैं. दिन छोटे होने के बाद अब वो बैटरी से चलने वाली लैंप की रोशनी में क्लास लेते हैं. जब बिजली रहती है तो टीचर अपने लैपटॉप को चार्ज कर लेते हैं. ग्रामीण इलाकों में बिजली का कोई भरोसा नहीं और बहुत सी जगहों पर तो यह सिर्फ 12 घंटे के लिए ही रहती है.

दिल्ली की संस्था दीपालय गरीब बच्चों के लिए औपचारिक स्कूल और लर्निंग सेंटर चलाती है. यहां पढ़ने वाले ज्यादातर छात्र दिल्ली की झुग्गी बस्तियों के हैं या फिर प्रवासी मजदूरों के बच्चे हैं. लॉकडाउन के दौरान इन मजदूरों का काम छिन गया और वो अपने गांव लौट गए. दीपालय ने बिहार और झारखंड में लौटे बच्चों तक पहुंचने की कोशिश की लेकिन यह इतना आसान भी नहीं है.

बहरहाल छोटी बड़ी कोशिशें जारी हैं ताकि महामारी की आंधी में इन बच्चों के ज्ञान का दिया किसी तरह जलता रहे. बावजूद इसके बहुत से बच्चों तक इसकी रोशनी अब भी नहीं पहुंच रही.

एनआर/एमजे (डीपीए)

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